अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस ही गया
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अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस ही गया

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Apr 7, 2012, 12:00 am IST
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मंथन

दिंनाक: 07 Apr 2012 17:17:20

मंथन

n  देवेन्द्र स्वरूप

भारत कैसे बना रहे भारत-7

आखिरकार गांधी जी दौड़ते-भागते 29 अगस्त, 1931 को बम्बई बंदरगाह से एस.एस.राजपूताना नामक जलपोत पर सवार होकर लंदन के लिए रवाना हो ही गए और 12 सितम्बर से गोलमेज सम्मेलन की कार्रवाई में शामिल हो गये। यद्यपि सम्मेलन की कार्रवाई 7 सितम्बर को संघीय समिति की बैठक के साथ आरंभ हो चुकी थी, पर देर से ही क्यों न हो गांधी जी को गोलमेज सम्मेलन में लाने पर लंदन की ब्रिटिश सरकार तुली हुई थी और उसके दबाव के कारण वायसराय विलिंग्डन को गांधी जी को शिमला आने का न्योता देना पड़ा था। 25 से 28 अगस्त तक गांधी जी ने वायसराय विलिंग्डन, गृहमंत्री केराट, गृहसचिव एमर्सन आदि से बात की। वायसराय ने उन्हें दिल्ली से बम्बई के लिए फ्रंटियर मेल पकड़वाने के लिए स्पेशल ट्रेन की व्यवस्था की। बम्बई स्टेशन से गांधी जी मीरा बहन और महादेव देसाई के साथ बम्बई बंदरगाह के लिए दौड़े। उनके व्यक्तिगत सचिवालय के दो सदस्य- देवदास गांधी और प्यारेलाल को निकलने में कुछ देर हो गई, तब तक जहाज का लंगर उठ चुका था। इसलिए इन दोनों को एक छोटे स्टीमर पर बैठाकर राजपूताना जहाज तक पहुंचाया गया।

एकमात्र प्रतिनिधि

गांधी जी कांग्रेस पार्टी के अकेले प्रतिनिधि बनकर गये थे। सुशीला नायर ने लिखा है कि लार्ड इर्विन ने उन्हें कहा था कि वे अपने साथ 15-20 लोगों का अधिकृत प्रतिनिधिमंडल कांग्रेस की ओर से ले जा सकते हैं। इनमें एक नाम की चर्चा बार-बार आती है और वह है डा.एम.एस.अंसारी का। इर्विन भी इस नाम पर सहमत थे। पर, उनके उत्तराधिकारी विलिंग्डन ने अपनी एक्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य फजल हसन के दबाव में डा.अंसारी के नाम को मंजूर नहीं किया। वास्तव में गांधी जी इसी मुद्दे को आधार बनाकर गोलमेज सम्मेलन के बहिष्कार का निर्णय सुनाकर ब्रिटिश सरकार को सकते में डाल सकते थे। क्योंकि उनकी उपस्थिति के बिना गोलमेज सम्मेलन नामक चक्रव्यूह की रचना ही बेकार हो जाती। किन्तु पता नहीं क्यों लार्ड इर्विन से बात करते समय गांधी जी स्वयं गोलमेज सम्मेलन में जाने को उत्सुक थे और कराची कांग्रेस (28-31 मार्च, 1931) तक आते-आते उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन से अपने अकेले नाम को प्रस्तावित कराने का मन बना लिया था। हालांकि अधिवेशन द्वारा पारित प्रस्ताव में केवल उन्हीं का नाम घोषित किया गया, पर साथ ही यह भी जोड़ा गया कि गांधी जी जिन और कांग्रेस नेताओं को अपने साथ ले जाना चाहें, उन्हें भी कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल में सम्मिलित किया जाए। इनमें जवाहर लाल नेहरू के नाम की भी बहुत चर्चा रही। पर गांधी जी ने स्वयं यंग इंडिया में लिखा कि जवाहर लाल और वल्लभ भाई पटेल की जगह यहीं भारत में है, गोलमेज सम्मेलन में नहीं। दूसरी बार उन्होंने यह भी लिखा कि कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल का वजन उसकी संख्या में नहीं उसकी गुणवत्ता में होगा, और इस दृष्टि से एक व्यक्ति का ही जाना ठीक रहेगा। उनकी ऐसी टिप्पणियों से प्रश्न पैदा होता है कि गांधी जी पहले गोलमेज सम्मेलन का तेज बहादुर सप्रू और मुकुंदराव जयकर के प्रयत्नों के बावजूद बहिष्कार करने का निर्णय लेने के बाद दूसरे गोलमेज सम्मेलन में जाने को तुरंत तैयार क्यों हो गये? और उन्होंने अकेले जाने का ही मन क्यों बनाया?

गांधी जी का अचेतन मानस

उस काल के समस्त पत्राचार और घटनाक्रम का सूक्ष्म अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि पहले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने वाले अधिकांश प्रतिनिधियों, विशेषकर तीनों नरम दलीय नेताओं-तेज बहादुर सप्रू, वी.एस.श्रीनिवास शास्त्री और मुकुंदराव जयकर को यह विश्वास हो गया था कि ब्रिटेन ने भारत को औपनिवेशिक राज्य का दर्जा देने का पक्का मन बना लिया है और प्रधानमंत्री रैमजे मैकडानल्ड द्वारा अगले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का सार्वजनिक निमंत्रण देने का अर्थ है कि अगले सम्मेलन में औपनिवेशिक दर्जा देने वाले संविधान की रचना को अंतिम रूप देने का काम किया जाएगा। ब्रिटिश शासक और नरम दलीय नेता नमक सत्याग्रह के विराट रूप को देखकर स्तंभित थे और मान चुके थे कि भारतीय राष्ट्रवाद का वास्तविक प्रतिनिधित्व गांधी जी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ही कर सकती है, इसलिए दूसरे गोलमेज सम्मेलन की सफलता कांग्रेस की उपस्थिति पर ही निर्भर करती है। गांधी-इर्विन समझौते को भारतीय जनता ने जिस प्रकार गांधी जी की विजय के रूप में देखा, शायद उससे भी गांधी जी के अचेतन मानस में यह भाव उठा हो कि लंदन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री के साथ बराबरी के धरातल पर सत्ता हस्तांतरण की संधि पर भारत के अकेले प्रतिनिधि के रूप में उन्हें ही हस्ताक्षर करने का अवसर प्राप्त होगा। शायद गांधी जी के अचेतन मानस के इस पक्ष को लार्ड इर्विन ने पहचान लिया था, क्योंकि भारत सचिव बर्केनहेड को उन्होंने लिखा था कि गांधी जी अपनी महानता और व्यक्तित्व से अभिभूत हैं और हम इसी का लाभ उठा सकते हैं।

भारत का सर्वमान्य प्रतिनिधित्व करने की इच्छा से ही गांधी जी ने इर्विन के साथ समझौता होने के तुरंत बाद बीकानेर, भोपाल आदि के महाराजाओं और मुस्लिम नेताओं के मन को टटोलना आरंभ कर दिया, क्योंकि केन्द्र में संघीय संविधान और उत्तरदायी सरकार की स्थापना को ब्रिटिश शासकों ने नरेशों की सहमति और मुस्लिम आदि अल्पसंख्यकों की समस्या के साथ बांध दिया था। उसमें भी उन्होंने अल्पसंख्यकों की समस्या को प्राथमिकता दे दी थी कि इस समस्या का संतोषजनक समाधान निकलने पर ही संघीय व्यवस्था और उत्तरदायी शासन क्रियान्वित होगा। इसलिए गांधी जी ने अपना पूरा प्रयास मुस्लिम प्रश्न को हल करने पर केन्द्रित कर दिया। यह प्रयास विफल होने पर गांधी जी ने 11 जून, 1931 को बम्बई में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में प्रस्ताव रखा कि मुस्लिम प्रश्न हल न होने पर लंदन जाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। परंतु बताया जाता है कि कार्यसमिति ने उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

वेशभूषा का प्रभाव

एक ओर गांधी जी बार-बार कह रहे थे कि भारत में ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति और साम्प्रदायिक-प्रश्न का हल न निकलने के कारण शायद मेरा लंदन जाना संभव न हो, दूसरी ओर उनके मन में यह विचार मंथन भी चल रहा था कि यदि वे लंदन चले ही गये तो उनकी वेशभूषा क्या होगी। 9 जुलाई के यंग इंडिया में उन्होंने इस विषय की सार्वजनिक चर्चा करते हुए लिखा कि 'मुझे इस बारे में तरह-तरह की सलाह मिल रही हैं, पर मैं वहां भारत के भूखे-नंगे दरिद्र नारायण का प्रतिनिधि बनकर जा रहा हूं, इसलिए मैं अपनी लंगोटी से अधिक कुछ धारण करना नहीं चाहूंगा, वहां के मौसम के कारण शाल जैसा कुछ धारण करना पड़ा तो बात अलग है।' वेशभूषा की यह समस्या ब्रिटिश सम्राट के निमंत्रण पर बकिंघम पैलेस में आयोजित भोज में जाने के समय भी खड़ी हुई। और गांधी जी ने अपने पुराने वेश पर अडिग रहकर भारतीयों के मन को गद्गद् कर दिया। पर, गांधी जी की इस संत छवि का गोलमेज सम्मेलन में भाग ले रहे प्रतिनिधियों पर वही प्रभाव नहीं पड़ा जो भारतीय जनता के मन पर था। वहां जितने भी प्रतिनिधि आये थे वे मंजे हुए कूटनीतिज्ञ और घाघ राजनीतिज्ञ थे। वे हृदय से नहीं, मस्तिष्क से सोचते थे। वे संकीर्ण हितों का प्रतिनिधित्व करते थे और उन्हें साधने के लिए ही वहां आये थे। गांधी जी को इस वेशभूषा में वे एक हिन्दू संत के रूप में ही देखते थे, जो गांधी जी की एक साम्प्रदायिक हिन्दू की छवि उनके मन पर अंकित करती थी।

ब्रिटिश शासक और मुस्लिम नेतृत्व गांधी जी और कांग्रेस को केवल सवर्ण हिन्दुओं की संस्था कहता और मानता था। भले ही गांधी जी ने अपने भाषणों में बार-बार यह कहा कि कांग्रेस 85 प्रतिशत भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि यहां आए अधिकांश प्रतिनिधि छोटे-छोटे संकीर्ण हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनका अपना कोई जनाधार नहीं है। वे न अपनी पार्टी और न अपने समाज के द्वारा निर्वाचित हुए, अपितु उनका चयन और मनोनयन ब्रिटिश वायसराय के द्वारा किया गया है। गांधी जी ने दु:ख प्रकट किया कि भारत की 85 प्रतिशत जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस को जनाधारशून्य संकीर्ण हितों की पंक्ति में सम्मिलित कर दिया गया है। आश्चर्य है कि गांधी जी को इस सत्य की अनुभूति गोलमेज सम्मेलन के अंतिम दिनों में हुई, जबकि यह सत्य पूरी दुनिया के सामने पहले दिन से स्पष्ट था। यदि गांधी जी अपने साथ 15-20 कांग्रेस जनों का प्रतिनिधिमंडल ले गये होते तो वे भारतीय समाज के सब वर्गों और सम्प्रदायों में कांग्रेस का प्रभाव प्रदर्शित कर सकते थे। उस प्रतिनिधिमंडल में मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी, मद्रासी, बंगाली, पंजाबी, वंचित, सवर्ण आदि सब क्षेत्रों और वर्गों का प्रतिनिधित्व होता। उनकी उपस्थिति मात्र ही ब्रिटिश वायसराय द्वारा मनोनीत संकीर्ण हितों के प्रतिनिधियों को हतप्रभ कर देती और तब गांधी जी की संत छवि का आभामंडल कुछ अलग ही होता। उन्हें संकीर्ण हितों के प्रतिनिधियों को मनाने के लिए चक्कर न लगाने पड़ते।

परिणाम पूर्वनिर्धारित

गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी के अवमूल्यन से सबसे अधिक पीड़ा नरम दलीय नेता वी.एस.श्रीनिवास शास्त्री को हुई। दूसरे गोलमेज सम्मेलन में लंदन से अपने मित्रों को उन्होंने जो पत्र लिखे हैं, वे इस दृष्टि से बहुत पठनीय हैं। गांधी जी को गोलमेज सम्मेलन में लाने की दृष्टि से गांधी-इर्विन समझौता कराने में उनकी मुख्य भूमिका थी। वे गांधी जी के आध्यात्मिक व्यक्तित्व के अत्यंत प्रशंसक थे। वे भी गांधीजी के समान गोपाल कृष्ण गोखले को अपना गुरू मानते थे। लंदन से अपने कई पत्रों में उन्होंने लिखा है कि गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी के भाषणों की वहां उपस्थित प्रतिनिधियों पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती रही। उन्होंने यह भी लिखा है कि गांधी जी गोलमेज सम्मेलन की सफलता के बारे में प्रारंभ से ही निराश थे और उनके निकटस्थ साथियों ने शास्त्री जी को बताया कि गांधी जी गोलमेज सम्मेलन को ध्वस्त करने का निश्चय करके यहां आए हैं। उन्हें इस सम्मेलन से कुछ निकलने की आशा नहीं है।

गांधी जी ने भी शास्त्री जी को बताया कि भारत को स्वतंत्रता समझौता-वार्ता से नहीं, शक्ति से प्राप्त होगी, और वह शक्ति सविनय अवज्ञा आंदोलन या सत्याग्रह से ही पैदा हो सकती है। इसीलिए सम्मेलन के अंत में गांधी जी ने घोषणा कर दी कि वे भारत लौटकर 3 जनवरी से सविनय अवज्ञा आंदोलन को पुन: प्रारंभ करेंगे। किन्तु वायसराय ने गांधी जी को यह अवसर ही नहीं दिया। गांधी जी 28 दिसंबर को भारत वापस लौटे और विलिंग्डन ने उन्हें 3 जनवरी को जेल में बंद कर दिया। अनेक दमनकारी निर्देश जारी कर दिये। कांग्रेस कार्यसमिति और कांग्रेस संगठन को प्रतिबंधित कर दिया। परंतु गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश साम्राज्यवाद डा.अम्बेडकर के नेतृत्व में वंचित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन का एक नया भस्मासुर पैदा करने में सफल हो गया। मुस्लिम नेतृत्व ने भारतीय ईसाईयों और वंचित वर्गों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री को साम्प्रदायिक निर्णय का अधिकार लिखित रूप से दे दिया, जिसके आंशिक निराकरण के लिए गांधी जी को अपनी जान की बाजी लगानी पड़ी। यदि गांधी जी गोलमेज सम्मेलन में न जाते तो संभवत: यह संयुक्त मोर्चा बनने की नौबत ही न आती और कांग्रेस के बिना गोलमेज सम्मेलन के निर्णयों का कोई महत्व ही न रह जाता। भारत सरकार की योजना से डा.ताराचंद ने चार खंडों में स्वाधीनता आंदोलन का जो इतिहास लिखा है, जिसे भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने छापा है, उसमें भी यही निष्कर्ष निकाला गया है कि गांधी जी को गोलमेज सम्मेलन में नहीं जाना चाहिए lÉÉ*n (Gò¨É¶É:)

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