150 करोड़ मुसलमानों के बीचइस्लामी जगत में शिया-सुन्नी संघर्ष
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इस्लामी जगत में शिया–सुन्नी संघर्ष
n मुजफ्फर हुसैन
इस्लामी दुनिया में जब एकता की बात होती है उस समय 'उम्मा' शब्द का उपयोग किया जाता है। यह कहा जाता है कि हजरत मोहम्मद को मानने वाले आपस में खून-खराबा नहीं कर सकते हैं। मुस्लिम, मुस्लिम के बीच संघर्ष कैसा? लेकिन उपरोक्त शब्द सुनने और पढ़ने में तो कानों को अच्छे लगते हैं, लेकिन इनमें कोई वास्तविकता नहीं दिखाई पड़ती है। अरब भूखण्ड में इस्लाम के प्रचारित होने के पश्चात् अरब और अजम का संघर्ष प्रारम्भ हो गया। यह टकराव पहले भी मौजूद था, लेकिन मुस्लिमों ने जब ईरान पर आधिपत्य जमा लिया उसके पश्चात् यह दिनों दिन बढ़ता चला गया। इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण यह है कि अरब में जिस खिलाफत की शुरुआत हुई उसे ईरान के मुसलमानों ने मान्यता नहीं दी। उन्होंने पैगम्पर मोहम्मद के उत्तराधिकारी के रूप में चौथे खलीफा हजरत अली को इमाम के रूप में स्वीकार कर एक पंथ की शुरुआत कर दी। समय के साथ जब खिलाफत बादशाहत में बदलती चल गयी तो ईरान और अरब प्रायद्वीप में संघर्ष बढ़ता गया। यह प्राचीन विवाद अब दुनिया में शिया-सुन्नी संघर्ष के रूप में प्रचलित है। 20वीं शताब्दी में अनेक मुस्लिम राष्ट्र स्वतंत्र होते चले गए। ईरान भले ही एक मात्र शिया बहुल राष्ट्र रहा हो, लेकिन दुनिया के अनेक मुस्लिम देशों में शिया सम्प्रदाय से जुड़े लोगों की संख्या भी बढ़ती चली गई। इसलिए सुन्नी देशों में शिया जनसंख्या भी अपने आपमें एक ताकतवर समीकरण बनता चला गया। पश्चिमी राष्ट्रों ने मुस्लिम जगत पर अपना शिकंजा मजबूत करने के लिए शिया- सुन्नी विवाद को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
विभाजित ताकत
पिछले दिनों मध्य-पूर्व के मुस्लिम राष्ट्रों में जसमिन क्रांति की शुरुआत हुई। उसे निष्प्रभावी बनाने के लिए पश्चिमी राष्ट्रों ने शिया-सुन्नी मतभेदों को हवा दी। अब तो हालत यह है कि दुनिया के 56 मुस्लिम राष्ट्र इस रोग से पीड़ित हो गए हैं। मुस्लिम देशों की राजनीति या तो खनिज तेल की राजनीति है या फिर शिया-सुन्नी के बंटवारे की कहानी। वास्तव में तो ईरान अकेला शिया देश है, लेकिन शायद ही कोई मुस्लिम देश होगा, जहां शिया नेता राजनीति में अपना वर्चस्व नहीं रखते हों। मुस्लिम राष्ट्रों में जहां कहीं कोई मतभेद है या किसी प्रकार का संघर्ष है वह शिया-सुन्नी लड़ाई बनते देर नहीं लगती। भारत के उर्दू मीडिया से लेकर अलजजीरा नेटवर्क तक एक ही आवाज मुस्लिम नेताओं और कूटनीतिज्ञों के मुख से सुनाई पड़ती है कि मुसलमानों की ताकत को विभाजित कर देने का सस्ता और सुंदर नुस्खा शिया-सुन्नी विवाद है।
विश्व मीडिया में पिछले दिनों चर्चित हुई घटनाओं और शब्दों पर नजर दौड़ाएं-शिया ईरान, सुन्नी सऊदी, सुन्नी जोर्डन, शिया लेबनॉन, सुन्नी बहरीन शिया इराक, शिया ईरान का उत्थान, सीरिया में सुन्नियों की बगावत, सऊदी अरब में शिया बेचैन, बहरीन में शियाओं का आगे कूच, सुन्नी तानाशाहों का पतन, शिया राजनीति का चमत्कार आदि-आदि।
इसलिए जिस मुसलमान को 'उम्मा' पर गर्व था वह चकनाचूर हो गया है। अब इस्लाम की पहचान केवल मुसलमान नहीं है, बल्कि उसके साथ सुन्नी और शिया शब्द भी जुड़ा हुआ है। मुस्लिम राजनीतिज्ञ अब भी इसे मुसमलानों के बीच मतभेद नहीं मानते हैं, बल्कि उनका कहना है कि मुसलमानों को मुसलमानों से लड़ाने का यह प्रभावी हथियार है। लेकिन इतिहास साक्षी है कि जब कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच लड़ाई है, इस आधार पर एक मजहब के दो अलग समूह क्या आपस में नहीं टकरा सकते? लेकिन मुस्लिम नेताओं का कहना है कि यह तो यहूदियों का खेल है, जो मुसलमानों को विभाजित कर उनकी ताकत को तोड़ देना चाहते हैं। लेकिन ईरान, लेबनॉन, सऊदी अरब, बहरीन, सीरिया और लीबिया में तो यहूदियों का नामोनिशान भी नहीं है, फिर उन्हें आपस में लड़ाने का खेल कौन खेलता है? अपना बचाव करते हुए मुस्लिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि शिया-सुन्नी टकराव की पटकथा यहूदियों ने यानी इस्रायल ने लिख दी है। जिसे विश्व के मंच पर अभिनय के लिए प्रस्तुत करने वाले निर्माता और निदेशक का नाम अमरीका है।
अरब की पहचान
कल तक मुसमलान अपने चरित्र और अपने कार्यों से पहचाना जाता था, लेकिन अब वह केवल शिया-सुन्नी दो नामों से पहचाना जाता है। पाकिस्तान से लेबनॉन तक शिया-सुन्नी के नारे सुनने को मिलते हैं। लेकिन मुस्लिम राजनीतिज्ञ और विचारक इस बात का उत्तर नहीं देते हैं कि पाकिस्तान से लेबनॉन तक और सुन्नी व शिया में अपने देशों को बांटने वाले कौन हैं? 21वीं शताब्दी में भी वे अपने पंथ और सम्प्रदाय के विवादों को भूल नहीं पाए हैं। बल्कि असलियत तो यह है कि वे विश्व राजनीति में भी अपनी इस पहचान के बलबूते पर अपना अस्तित्व टिकाए रखना चाहते हैं। इस्रायल और अरब की लड़ाई फिलस्तीन के लिए सबसे पुरानी लड़ाई है, लेकिन वे इस बात का जवाब दें कि क्या इस्रायल के सामने वे कभी एकजुट होकर मुस्लिम के रूप में अपना लोहा मनवा सके हैं? अब तक अरब राष्ट्रों ने इस्रायल के विरुद्ध तीन युद्ध लड़े हैं। क्या इन युद्धों में वे अपनी अरब की पहचान अथवा मुसलमान की पहचान पर संघर्ष के लिए युद्ध के मैदान में उतरे हैं? उनका उद्देश्य अत्यंत संकीर्ण और स्वार्थी रहा। इसलिए वे आज तक सफल नहीं हो सके हैं। कैम्पडेविड समझौते में अनवर सादात ने अपने देश के हितों की खातिर इस्रायल से समझौता किया। इस पर अरबों ने उनका बहिष्कार कर दिया। अंतत: सादात की मुस्लिम कट्टरवादियों ने हत्या कर दी, लेकिन क्या इस नीति को अपना कर इस्लामी जगत सफल हो सका? इखवानुल मुस्लिमीन जैसे कट्टरवादी मुस्लिम संगठन ने सादात की हत्या करवा दी। उनका स्थान हुसनी मुबारक ने ले लिया। अमरीका पीछे खड़ा था तो अब तक उसका क्या बिगाड़ सके? इस्लामी एकता धूल-धूसरित हो गई। स्वयं को 'उम्मा' और इस्लाम की एकता के अग्रदूत बनने का घमंड करने वाले अब तक यह नहीं बता सके कि जिस मजहबी एकता और अखण्डता की वे बातें करते हैं समय आने पर वह पत्तों के महल की तरह क्यों गिर जाता है?
निशाने पर नेजाद
सद्दाम हुसैन को जब अमरीका ने निशाना बनाया तो ईरान बहुत खुश हुआ। लेकिन वे यह बात भूल गए कि सद्दाम के बाद ईरान के अहमदी नेजाद भी निशाने पर हो सकते हैं। सद्दाम का अंत किस कारण हुआ यह यथार्थ इस्लामी जगत के सामने है। दुनिया इस बात को भूली नहीं है कि जब सद्दाम का पतन हुआ था तो शिया मिठाइयां बांटने लगे थे और तालियां बजा-बजाकर नाचने लगे थे। लेकिन अब जब कि ईरान के विरुद्ध अमरीका और इस्रायल ने बाहें चढ़ाई हैं तो सुन्नी बहुत खुश हैं। सऊदी अरब और पाकिस्तान दोनों तालियां बजाकर नाच रहे हैं। उनके अखबार उठाकर देखें तो एक ही बात पढ़ने को मिलती है कि अब ईरान का सफाया हो जाएगा। एटम बम ईरान पर फेंका जाना तय है। परमाणु युद्ध एशिया के इसी खूबसूरत देश से शुरू होने वाला है। सऊदी अरब तालियां बजाकर नाच रहा है। ईरान उसे बहुत परेशान करता था। हज का मौसम प्रारम्भ होते ही लाखों ईरानी मक्का मदीना पहुंच जाते थे और सऊदी शाह का जीना हराम कर देते थे। अब तेहरान पर इस्रायल बम कब गिराए इसकी प्रतीक्षा की जा रही है। कर्नल गद्दाफी एक ऐसा शासक था जिसने अमरीका की कभी चिन्ता नहीं की। लेकिन कर्नल गद्दाफी जिस प्रकार की मौत मरा उससे उसके दुश्मन खुश हैं। एक समय था कि इसी गद्दाफी ने बेनगाजी नगर में समस्त इस्लामी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को एकत्रित किया था, जिसके आधार पर 'आरगेनाइजेशन ऑफ इस्लामी कंट्रीज' बना था। उन दिनों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुटो भारतीय मुसलमानों के नाम पर राजनीति कर रहे थे और कहते थे कि काफिरों की सरकार को गिरा दिया जाए। भुट्टो तो फांसी पर लटका दिए गए लेकिन भारत सरकार का कुछ भी नहीं बिगड़ा। आज भी भारत की जनसंख्या में 17 प्रतिशत मुसलमान अपने लोकतांत्रिक अधिकार भोग रहे हैं। इराक युद्ध ने मध्य-पूर्व से एशिया तक का नक्शा बदल दिया। सद्दाम युग की समाप्ति के पश्चात् यदि किसी को सबसे अधिक लाभ पहुंचा तो वह ईरान है। बुश ने शियाओं की विजय को जन्म दिया जिसने मध्य-पूर्व में दोनों पंथों के बीच संतुलन को समाप्त कर दिया। इसका प्रभाव वर्षों तक बना रहेगा।
सऊदी अरब का रुख
इराक के साथ हुए युद्ध में तो ईरान और सऊदी अरब आमने-सामने खड़े हो गए। अब जबकि इस्रायल ईरान पर हमला करने की तैयारी कर रहा है तो सऊदी अरब भारत सहित अनेक देशों को अमरीका का साथ देने का आग्रह कर रहा है। यह भी कह रहा है कि ईरान ने पेट्रोल की आपूर्ति रोकी तो वह स्वयं अधिक पेट्रोल की पूर्ति करेगा। राजनीति में शिया-सुन्नी खेल ने इराक में बदतरीन साम्प्रदायिक संघर्ष को जन्म दिया, तो इराक से अफगानिस्तान तक मोहर्रम के पवित्र अवसर पर भयानक बम धमाके किए और मुसलमानों का खून बहाया। पाकिस्तान के शिया भी इस आतंक से नहीं बच सके।
दस वर्ष पूर्व किसी ने सोचा भी नहीं था कि बगदाद में शिया-सुन्नी सरहद बन जाएगी। इराक के भागों को सुन्नी और शिया बहुल का नाम दिया जाएगा। राष्ट्रपति के साथ शिया और उपरराष्ट्रपति के साथ सुन्नी शब्द लिखा जाएगा। बुश के समय सद्दाम के साथ दुश्मनी तो निभा दी गई लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ? अब अमरीका को यह भय है कि शिया ताकत का लेबनॉन में खतरा है, ईरान तो है ही खतरा। बगदाद ने इस साम्प्रदायिक युद्ध को अपनी आंखों से देखा। इराकी चीख रहे हैं दूसरा सद्दाम कहां से लाएं? कौन बचाएगा उन्हें? अब तो इराक ही इराक का दुश्मन है। आश्चर्य तो यह है कि अब उपराष्ट्रपति तारिक अल हाशिमी पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि सुन्नी जिहादियों के दस्तों से वे शियाओं पर हमले करवा रहे हैं। उपराष्ट्रपति देश से बाहर हैं, क्योंकि पिछले दिसम्बर में उन पर गिरफ्तारी का वारंट जारी हुआ था। जिस इराक में सद्दाम के 30 वर्षों में शिया-सुन्नी टकराव की एक घटना भी नहीं हुई थी अब वहां लाशों के ढेर लग गए हैं। अमरीका अब सोच रहा है कि इराक पहले खतरा था या अब है? इराक के कोने-कोने में बास पार्टी के कार्यकर्ताओं को कीड़े-मकोड़े की तरह मारा गया। केवल उद्देश्य यह था कि अमरीकी सिपाही बचे रहें। जब इराक में युद्ध शुरू हुआ था उस समय शिया-सुन्नी एक थे, संगठित और शक्तिशाली थे। फ्लोजन में जब अमरीका के विरुद्ध जिहाद शुरू हुआ था तो शिया नेता मुकतदा अलसदर ने सुन्नियों की सहायता के लिए अपने लड़ाके भेजे थे। यह शिया-सुन्नी एकता थी जिसे अमरीका ने तहस-नहस कर दी।
आज फिलस्तीन में भी गाजापट्टी में हमास और पश्चिमी तट पर अलफतह शिया-सुन्नी में बंट गए हैं। खालिद मशअल और महमूद अब्बास ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, लेकिन दोनों एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देख रहे हैं। पिछले दिनों इस्माइल हानिया ईरान गए थे। इसके साथ ही यह समझा जाने लगा है कि खालिद मशअल को मिस्र की इखवानुल मुस्लिमीन का समर्थन प्राप्त है। पिछले 50 वर्षों से जिस फिलस्तीन के नाम पर दुनिया के मुसलमान एक थे, वे अब शिया-सुन्नी में बंट कर अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा को खो चुके हैं। कल तक सऊदी शक्तिशाली था लेकिन आज ईरान बन गया है। दोनों में शक्ति की खींचतान हो रही है। इसलिए आने वाले दिनों में सम्पूर्ण इस्लामी जगत में शिया-सुन्नी दंगों की लहर चले तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं होगी। n
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