सरोकार
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सरोकार
n मृदुला सिन्हा
चारों ओर खड़े वृक्षों में नई-नई पंक्तियां आ गईं। आम-लीची के वृक्षों पर लगे फूलों में भी नन्हे-नन्हे फल आ गए। आँखों को ठंडक देने वाला परिवेश है, पर सूरज तप रहा है। गर्मी बढ़ रही है। रात्रि को ठंडा भी है, दिन में गर्म भी। ऐसे ही समय में आता है 'जूड़ शीतल' त्योहार, जिसे बिहार में 'सत्तुआनी' कहते है। रवि की नई फसल आ गई। चना, अरहर, गेहूं जैसा अन्न। नये-नये अनाज का भांति-भांति का खाद्य पदार्थ बनाने और रखने का भी मन करता है। सबसे पहले महिलाएं बनाती हैं सत्तू। इसके भी कई रूप-रंग होते हैं। जौ-जई, चना और मक्के के मेल से बन गया सत्तू। भुने हुए अनाजों को चक्की में पिसाते हुए उससे भीनी-भीनी खुशबू आती है। सौंधी-सौंधी गंध। उसका स्वाद भी जिह्वा पर उतर आता। इधर आम के पेड़ पर लगी नन्हीं-नन्ही अमियां। गर्मी बढ़ रही होती है तो इन सबको देखकर मुंह में पानी भी भर आता है। सत्तू के साथ अमिया की चटनी खाने का ही जी करता है। अम्मा से हम सत्तू खाने के लिए जिद करते थे। दादी का अलिखित फरमान जारी हो जाता था-'अभी नहीं। अभी सत्तू नहीं मिलेगा। 'सत्तु आनी' कल है। आज सत्तू और अमिया देवता को चढ़ायेंगे, फिर हम कल प्रसाद खाएंगे। कल से गर्मी भर सत्तू खाना-पीना प्रारंभ।'
हम मचल उठते। मन को संतोष दिलाते। रात भर की ही तो बात है। कल सुबह सत्तू खाएंगे। उसके साथ अमिया की चटनी भी। और ऐसा ही होता। दादी जब सत्तू और अमिया नये मिट्ठी के बर्तन में रखकर अपने गृह देवता के गहवर में चढ़ातीं हम बच्चे उनकी पीठ पर खड़े रहते। हम सोचते – 'यह तो भगवान जी खाएंगे।'
सुबह उठकर फिर दादी पूजा घर में जातीं। धूप-दीप दिखाकर पूजा करतीं। हम सत्तू खाने को बेहाल। मुंह में आया पानी सूखता ही नहीं। हमें यह देखकर आश्चर्य होता कि दादी द्वारा चढ़ाया सत्तू जस का तस होता था। उसमें से चुटकी भर भी घटा नहीं होता। हम दादी से पूछते-'दादी! भगवान जी तो खाए ही नहीं। आपसे नाराज हैं क्या?' दादी सत्तू का बर्तन हाथ में लिए अपनी कमर सीधी कर उठने का उपक्रम करती हुईं कहतीं-'चल! आंगन में तुम लोगों को प्रसाद देती हूं। कल से तुम लोग सत्तू – सत्तू के लिए मचल रहे थे, इसलिए भगवान ने भी केवल छू दिया। खाया नहीं। तुम लोगों के लिए छोड़ दिया।'
सत्तू तो मां के पास बहुत था। पर उस सत्तू में विशेष स्वाद लगता। प्रसाद जो होता था। दादी के अनुसार हमारे लिए भगवान द्वारा छोड़ा हुआ सत्तू। घर के सब लोग सत्तु ही खाते। उसी दिन सायंकाल तरह-तरह के पकवान बनाए जाते। चावल और कढ़ी भी। चावल ज्यादा ही बनता। रात्रि को खाकर जो बचता उसमें पानी डाल दिया जाता। प्रतिदिन सुबह-सुबह दादी ही जगाती थीं। उस दिन तो एक-एक कर सबों के सिर पर चूल्लू से पानी डाल-डाल कर जगातीं वे सिर पर चुल्लू भर पानी रखकर थोपतीं, हम सब अचकचा कर जगते। पूछते-'क्या कर रही हैं?' वे कहतीं-' जूड़ रहना। आज जूड़ शीतल है।' सुबह-सुबह अन्य दिनों की तरह अम्मा चूल्हा नहीं जलातीं। सुबह-सुबह नींद खुलते ही हम मां को जलते हुए चूल्हों पर कुछ-कुछ बनाते देखते थे। उस दिन चूल्हे को ठंडा देख हम दादी से पूछते-'दादी, आज खाना नहीं बनेगा?' फिर हम क्या खाएंगे?' दादी पहले तो हमारी बातों को सुन खूब हंसती। उसके बाद कहतीं-' आज चूल्हा ठंडा ही रहेगा। चूल्हे को भी तो एक दिन आराम चाहिए न! रोज-रोज सुबह-शाम जल-जल कर चूल्हा थक जाता है। आज चूल्हा आराम करेगा। रही बात हमारे खाने की तो हमने रात्रि को ही खाना बनाकर रख लिया है। भात में पानी डालकर रखा है। ठंडा-ठंडा खाएंगे।' जूड़ शीतल है। जूड़ का मतलब भरा-भरा और शीतल का मतलब ठंडा। नीम की पत्तियों की चटनी भी पिसानी शुरू हो गई। ठंडा खाना ही खाना पड़ा। इस तरह मनता था त्योहार।
'सत्तुआनी' और 'जूड़ शीतल'। दोनों जुड़वा त्योहार। उत्सव। उत्सव तो अन्न का ही था। फल का भी, नीम की हरि पत्तियों का भी। प्रकृति का उत्सव। मौसम बदलने को साथ हमारा खान-पान, रहन-सहन, पहनावा भी बदल जाता है। प्रकृति के साथ हमारा इतना गहरा संबंध है कि उसके रूप-स्वरूप के अनुसार हम भी अपना सब कुछ बदल लेते हैं। इस बदलाव के अवसर पर भी एक त्योहार मना लिया। नये अनाज, नये फल को ग्रहण करना है तो उत्सव तो चाहिए ही। ईश्वर को धन्यवाद भी देना है। इसीलिए तो उन्हें भी अन्न चढ़ाया।
कितनी गहरी सोच। कितना गहरा व्यवहार। दादी के जमाने में इन गहराइयों में डूबने का अवसर नहीं मिला था। जैसे-जैसे बड़ी होती गई, देश दुनिया, और अपने ही देश में भिन्न-भिन्न राज्यों में मनाए जा रहे तीज-त्योहारों की जानकारियां मिलती गई, बात समझ में आई कि थोड़ी-थोड़ी भिन्नता लिये हुए देश भर में लोग प्रकृति और मौसम में आए परिवर्तन को नमस्कार करते आए हैं। खेत में एक बीज डालने पर सहस्त्र दाने देने वाली धरती के चमत्कार को हम नमस्कार करते आए हैं। इन्हीं अवसरों पर हम अलग-अलग नामों से त्योहार मनाते हैं। असम की रंगोली बीहू हो या पंजाब-हरियाणा (उत्तर) की वैशाखी दक्षिण का पोंगल, उत्तर प्रदेश में बासौड़ा। सभी प्रदेशों में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता लिए। हैं तो यह वासी (ठंडा) खाना प्रारंभ करने का उत्सव। ठंडा पीने का उत्सव ही। ऋतु परिवर्तन के साथ आने वाली बीमारियों से बचने के लिए नीम की पत्तियां चबाने का प्रारंभ। गर्मियों में होने वाली बीमारियों से बचाव के लिए खान-पान, रहन-सहन और पहनावे में परिवर्तन।
अपने तीज त्योहारों पर विचार करते समय लगता है कि प्रकृति से अलग हमारा अपना कुछ भी नहीं है। प्रकृति पर हमारी निर्भरता का अर्थ केवल उससे लेने का नहीं होता। हमारा हंसना-विसूरना भी प्रकृति पर निर्भर है। पतझड़ के समय मन उखड़ा-उखड़ा सा लगता है। वृक्षों पर नई पत्तियां और फूल-फल आने पर चिड़ियों के साथ हमारा मन भी प्रफुल्लित हो जाता है। वासी और ठंडा खाना गर्मियों के मौसम के अनुकूल होता है।
तभी तो चूल्हेे को भी ठंडा रखा जाता है। यूं तो चूल्हे का जलते रहना ही उसका गुण है। पर चूल्हे को एक दिन का आराम देना भी हमारी लोक-संस्कृति की विशेषता है। चूल्हे का भी अपना व्यक्तिगत संस्कार और उसको आराम देने की सोच ही हमारी संस्कृति की विशेषताओं में से एक है। हमारे तीज-त्योहार हमारी इन्हीं विशेषताओं के व्यावहारिक प्रगटीकरण हैं। n
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