हिन्दी को 'हिंग्लिश' बनाने से न जनहित, न राष्ट्र का हित
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न जनहित, न राष्ट्र का हित
n डा. ओम प्रभात अग्रवाल
26 जनवरी, 1950 को स्वतंत्र भारत का संविधान लागू होने के साथ ही हिन्दी इस देश की राजभाषा बन गई। हिन्दी, जो उस समय भी देश के अधिसंख्य नागरिकों की मातृभाषा और समस्त देश की सर्वमान्य सम्पर्क सूत्र थी, तथा जो लंबे कालखण्ड तक चले स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र की भावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम थी, के लिए यह गौरवशाली स्थान नितांत उचित और स्वाभाविक था। इसके साथ ही मां भारती के सेवकों को लगने लगा कि अब हिन्दी शीघ्र ही उच्च शिक्षा, न्याय, चिकित्सा और प्रशासन आदि सभी क्षेत्रों से अंग्रेजी को विस्थापित कर देगी। परन्तु कुछ ही समय बाद यह आशा धूमिल पड़ने लगी। वस्तुत: अब तो डर लगने लगा है कि हिन्दी कहीं संस्कृत की भांति एक शास्त्रीय भाषा मात्र बनकर न रह जाए। और यदि वह सम्प्रेषण का माध्यम बनी भी रही तो क्या उसका शुद्ध और प्राञ्जल स्वरूप बना रह सकेगा?
आशा की किरण
इस समय हिन्दी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती प्रतीत हो रही है। यद्यपि कहीं-कहीं लग सकता है कि उसका प्रचार और प्रसार बढ़ता जा रहा है। नये युग के अनुकूल बनाने की दौड़ में केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने साढ़े सात लाख नये शब्दों की रचना की है, जिसमें से लगभग तेरह हजार शब्द सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र के हैं। हिन्दी समाचार पत्रों ने अंग्रेजी समाचार पत्रों को पाठक संख्या में बुरी तरह पछाड़ दिया है। प्रशासनिक सेवाओं की प्रवेश परीक्षा में हिन्दी माध्यम वाले प्रतियोगियों और अंतत: चुने जाने वालों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। 'गूगल' के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एरिक श्मिट की भविष्यवाणी (दाधीच, पाञ्चजन्य, स्वतंत्रता दिवस विशेषांक 2011) अभी प्रासंगिक है कि कुछ सालों में अंतरजाल (इंटरनेट) पर हिन्दी का दबदबा होगा। यही नहीं, हिन्दी अभी भी मीडिया में जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम बनी हुई है, जैसा कि अण्णा हजारे के आन्दोलन के समय स्पष्ट हो चुका है (देखिये अरविंद राजगोपाल, 'द हिन्दू', दिल्ली संस्करण, 8-9-2011)। इन सबके बावजूद हिन्दी के अस्तित्व पर शक्तिशाली चौतरफा आक्रमण भी जारी है।
तीन चुनौतियां
हिन्दी के अस्तित्व पर यह आक्रमण उसके 'हिंग्लिशकरण', विरूपण तथा लिपि विस्थापन के प्रयासों के रूप में सामने आ रहा है। पहले 'हिंग्लशकरण' को ही लें। गली-गली में खुले अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों ने नगरों और कस्बों में रोजमरर्ा की हिन्दी में अनावश्यक रूप से अंग्रेजी शब्दों को पहले ही घुसेड़ दिया था, अब समाचार पत्रों की नई 'हिंग्लशवादी' नीति ने भाषा के 'हिंग्लिशकरण' को और हवा दे दी है। आर्थिक समृद्धि की तलाश में इस बाजारीकरण से वे अपने उस सामाजिक उत्तरदायित्व को भुला बैठे हैं कि अपने पाठकों में हिन्दी का उच्च स्तर बनाये रखें। अक्तूबर, 2008 के 'कथादेश' में छपे अपने एक अत्यंत विचारोत्तेजक लेख में इंदौर के पत्रकार श्री जोशी ने सच ही लिखा है कि 'भाषा सम्प्रेषण का माध्यम भर नहीं है, बल्कि चिंतन प्रक्रिया एवं ज्ञान के विकास और विस्तार का भी हिस्सा होती है और उसके नष्ट हो जाने का अर्थ है एक समाज, एक संस्कृति और एक राष्ट्र का नष्ट हो जाना।'
हमारे आज के समाचार पत्र और पत्रिकाएं (पाञ्चजन्य नहीं) आंख मूंदकर इसी सर्वसंहारी प्रक्रिया में खतरनाक भूमिका निभा रहे हैं। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि एक रपट के अनुसार उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के बानिका गांव में 'इंग्लिश माई' के मंदिर का निर्माण किया गया है (द हिन्दू, 7 नवम्बर, 2010) एक अन्य रपट के अनुसार सत्यनारायण व्रत कथा के अंग्रेजी रूपांतरण की सीडी जारी हुई है, जिसकी भाषा कुछ इस प्रकार है- 'नाउ लिसन यू मी नारद'
केवल हवाई बातें करना ठीक नहीं, कुछ सटीक उदाहरण देना आवश्यक है। हिन्दी के एक प्रमुख समाचार पत्र में 21 फरवरी 2012 को छपी भाषा का एक नमूना देखिए- 'नारसा पेटैटो इमेज बताती है कि प्लेनेट की ग्रेविटी में बदलाव से बर्फ कैसे पिघल रही है। यह तस्वीर उस विवाद के बाद जारी हुई है जिसमें कहा गया था कि वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग की अपनी थ्योरी को सही साबित करने के लिए क्लाइमेट चेंज की जानकारियों से छेड़छाड़ कर रहे हैं।' दो वाक्यों के इस छोटे से उदाहरण में आठ शब्द अंग्रेजी के हैं और वे भी ऐसे जिनके हिन्दी समानार्थक शब्द सरलतापूर्वक लिखे जा सकते थे। एक अन्य पत्र के 9 फरवरी, 2012 के अंक से उदाहरण लें- 'चैकिंग के नाम पर पीक आवर्स में पुलिस बेवजह वाहनों को न रोके।' यदि इसे ही कुछ इस प्रकार से लिखा जाता तो भाषा की सम्प्रेषणीयता किस प्रकार कम हो जाती- 'जांच के नाम पर व्यस्ततम समय में पुलिस बेवजह वाहनों को न रोके।'
उचित–अनुचित को परखें
कुछ अंग्रेजी शब्द धड़ल्ले से प्रयुक्त हो रहे हैं। बानगी के तौर पर ऐसे कतिपय शब्द कोष्ठक में उनके हिन्दी समानार्थकों के साथ दिये जा रहे हैं। पाठक स्वयं ही तय करें कि वे किस प्रकार अंग्रेजी शब्दों से अधिक कठिन हैं-
अर्बन (शहरी या नगरीय), ट्रेजरी क्लर्क (खजांची या रोकड़िया), क्लाइमैक्स (चरम), हाई प्रोफाइल (उच्चस्तरीय), प्रॉपर्टी (जायदाद या संपत्ति), एमपी (सांसद), की बोर्ड (कुंजी पटल), वोटर (मतदाता), पार्टी (दल) आदि।
मैं मानता हूं कि कुछ अंग्रेजी शब्दों का व्यवहार तर्कसंगत हो सकता है, जैसे- मीडिया, टर्नओवर, कंपनी, स्टेशन, रिकार्ड आदि। ऐसा व्यवहार निश्चित रूप से भाषा को समृद्ध करता है, सम्प्रेषणीयता को बढ़ाता है और उसकी पाचन शक्ति का परिचायक होता है। ऐसा ही कुछ उर्दू शब्दों के साथ हो भी चुका है। परन्तु इतर भाषा के शब्दों का व्यवहार अनावश्यक और इतना भी न हो कि गरिष्ठ हो जाए और भाषा की प्राञ्जलता को ही नष्ट कर दे, जैसा कि आज हो रहा है। इसमें भी कोई आपत्ति नहीं होगी यदि अधिक प्रचलित न होने की दशा में हिन्दी के समानार्थक शब्द कोष्ठक में दे दिये जाएं, जैसे शेयर (प्रतिभूति), लोन पोर्टफोलियो (कर्ज खाता)आदि। यह एक प्रकार से हिन्दी सेवा ही होगी, क्योंकि समय पाकर ये शब्द अच्छी तरह रच-पचकर सामान्य व्यवहार में आ जायेंगे। स्वागतयोग्य यह प्रवृत्ति कहीं-कहीं आज भी देखने को मिलती है। अभी तक सामान्यतया अप्रचलित ऐसे कुछ नये शब्द हैं- उड़न खटोला (हैलीकाप्टर), अग्र वक्तव्य (की-नोट एड्रेस) आदि। इसमें उड़न खटोला तो पंख फैलाने भी लग गया है। प्रश्न उठता है कि जब हिन्दी सम्पादकों के सामर्थ्य की यह आग अभी तक बुझी नहीं है तो फिर उसका प्रयोग भाषा को समृद्ध करने में हिचकिचाहट क्यों?
लोकसभा की वर्तमान अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार ने अभी इस्लामाबाद जाने पर कहा- 'यदि आपका मानस गुलाम है, भाषा गुलाम है तो आप अपनी आर्थिक गुलामी किस प्रकार दूर कर सकते हैं?' फिर भारत सरकार इस सत्य को क्यों नहीं समझती? उसने अभी कुछ समय पूर्व जारी किये गये पत्रक में स्वयं ही अपने कार्यालयों को सरल हिन्दी के नाम पर 'हिंग्लिश' के प्रयोग की छूट क्यों दे दी है? यह छूट तो समाचार पत्र-पत्रिकाओं के 'हिंग्लिशकरण' को निश्चित रूप से बढ़ावा ही देगी।
भाषा–प्रदूषण को रोकें
हिन्दी के अस्तित्व पर दूसरा आक्रमण उसके विरूपण के रूप में हो रहा है। दृश्य एवं प्रकाशन मीडिया ने लगता है कसम खा रखी है कि 'न' को 'ना', 'दंपति' को 'दंपती' और इसी प्रकार स्थिती, नीचली, प्रस्तुती, ध्वनी, ध्वनियों आदि ही लिखेंगे। 'ना' का प्रयोग तो अब गजब ही ढा रहा है। ऐसा क्यों? क्या यह सब एक साजिश के तहत हो रहा है कि जन भावनाओं और राष्ट्रीयता को अभिव्यक्त करने वाली भाषा का स्वरूप ही बिगाड़ दिया जाए।
तीसरा आक्रमण लिपि विस्थापन के प्रयासों के रूप में सामने आ रहा है। कुछ समय पहले सैम पित्रोदा की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की यह संस्तुति कि हिन्दी की लिपि देवनागरी के स्थान पर रोमन कर दी जाए, एक अबूझ पहेली- सी लगती है। सोचकर ही लिजलिजा-सा अहसास होता है कि अब सूर, मीरा, पंत और निराला का साहित्य रोमन में पढ़ने को मिल सकता है। तनिक सोचें कि क्या उच्चारण की शुद्धता रोमन में सुरक्षित रह पायेगी?
कभी गुन्नार मिर्डल ने अपने 'एशियन ड्रामा' में लिखा था कि भारत एक अद्भुत देश है जहां की संसद में अधिकांश कार्यवाही एक विदेशी भाषा में होती है। अब तो मीडिया की कृपा से हिन्दी की चिंदी बन जाने के पश्चात कार्यवाही का जो अंश देश की प्रमुख भाषा में होता है, वह भी एक अनजान-सी भाषा में ही होता दिखेगा। पीड़ा तो यह है कि किसके सामने रोया जाए कि हमारी हिन्दी को गंगा की धार की तरह निर्मल बहने दें, उसे प्रदूषित न Eò®åú*n
(लेखक म.द. विश्वविद्यालय, रोहतक में रसायन विज्ञान विभाग के अध्यक्ष रहे हैं।)
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