सम्पादकीय
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सम्पादकीय
देशद्रोहियों की प्रथम पंक्ति में खड़े होने से कहीं अच्छा है किदेशभक्तों की अन्तिम पंक्ति में खड़ा हुआ जाय। –वीर सावरकर (कालजयी सावरकर, पृ. 103)
सरकार और सेनाध्यक्ष के बीच विवाद को तूल दिया जाना, सेनाध्यक्ष द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे रक्षा तैयारियों से संबंधित पत्र को 'लीक' किया जाना और सामान्य सैन्य गतिविधियों के राजनीतिक मंतव्य निकाला जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही, यह राष्ट्रहित का भी खुला उल्लंघन है। भारतीय सेना विश्व की श्रेष्ठतम राष्ट्रभक्त सैन्यशक्ति है। इसी सेना के दम पर भारत ने चार–चार बार धूर्त्त पाकिस्तान को धूल चटाई है। चीन से युद्ध में भी भारतीय सेना अपने पराक्रम की कमी से नहीं, बल्कि तत्कालीन राष्ट्रीय नेतृत्व, विशेषकर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अदूरदर्शिता और रणनीतिक चूक के कारण चीनी धोखेबाजी का शिकार हुई। देश में गत दो दशकों से ज्यादा समय से पाकिस्तान और चर्च की ताकतों के दम पर पनप रहा जिहादी आतंकवाद व अलगाववाद हो या चीनी षड्यंत्रों से फल–फूल रहा माओवादी नक्सलवाद, हमारी सेना ने देश की आंतरिक व राष्ट्रीय सुरक्षा पर घात लगा रहे राष्ट्रद्रोही तत्वों को हर जगह धर दबोचा है। देश की एकता–अखंडता को बनाए रखने में भारतीय सेना की असंदिग्ध रूप से समर्पित व वीरतापूर्ण भूमिका हर तरह से प्रशंसनीय व प्रेरणास्पद है। राष्ट्रहित में सेना के इस सम्मान को बनाए रखना बेहद जरूरी है। लेकिन संप्रग सरकार की लचर नीतियों और उसके कमजोर ढांचे के कारण जहां देश के सामने आज अनेक चुनौतियां खड़ी हो गई हैं, देशवासियों का जीवन असुरक्षा, महंगाई, गरीबी और विभाजनकारी मजहबी व जातीय दुष्प्रेरणाओं का शिकार हो रहा है, वहीं संप्रग सरकार अपनी विफलताओं का ठीकरा फोड़ने के लिए नए–नए प्रपंच रच रही है तथा अपने विरुद्ध बन रहे वातावरण को दूसरी दिशा में मोड़ने की चालाक कोशिशें भी कर रही है। सेना और सेनाध्यक्ष से जुड़ा विवाद ऐसा ही एक प्रकरण है जिसे गलत ढंग से प्रचारित करने में सरकारी तंत्र ने मीडिया का भी इस्तेमाल किया।
इस पूरे मामले में जिस तरह मीडिया ने सनसनी फैलाने की कोशिशें कीं, वह न तो देशहित में हैं और न मीडिया की रचनात्मक भूमिका के अनुकूल। सनसनी फैलाकर सुर्खियां बटोरना, लेकिन भारत के राष्ट्रीय हितों को पलीता लगाना, यह मीडिया को कठघरे में खड़ा करने वाला कृत्य है। जैसी कि चर्चाएं हैं, भारत में सक्रिय हथियार लॉबी से जुड़े कुछ प्रभावी लोग सरकार में भी पैठ बनाए हुए हैं और ये तत्व हथियार सौदों से जुड़े अपने हितों में सेनाध्यक्ष को बाधा मानते हैं। इनके द्वारा फैलाए जाल में देश के हित–अहित की परवाह किए बिना मीडिया सनसनीखेज खबरों के लिए किस तरह फंसता चला गया, सैन्य तैयारियों में कमी का पत्र लीक किए जाने और सेना के कूच की खबरें उसी का परिणाम हैं। चीन की बढ़ती सैन्य ताकत के मुकाबले भारत को किस तरह की रक्षा तैयारियां करनी चाहिए, उनमें क्या–क्या कमियां हैं, पत्र में लिखी यह जानकारी उस समय मीडिया के द्वारा प्रचारित किया जाना राष्ट्रीय संदर्भों में कितना खतरनाक हो सकता है जब 'ब्रिक्स' सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीनी राष्ट्रपति हू जिन ताओ भारत में थे, इस पर गौर किया जाता तो इस सनसनी से बचा जा सकता था। कई खबरें सनसनीखेज होते हुए भी राष्ट्रहित में प्रकाशित करने से बचना, मीडिया की न केवल नैतिक बल्कि राष्ट्रीय जिम्मेदारी है। चीन, जो भारत को नेस्तनाबूद करने के सपने देख रहा है, उसके लिए नित नए षड्यंत्र करता है, अपनी ओर से भारतीय सैन्य तैयारियों की कमियों पर सेनाध्यक्ष की चिंता को सार्वजनिक किया जाना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है। इस पत्र का 'लीक' होना गंभीर मामला है, सरकार सख्ती से इस षड्यंत्र का खुलासा करे, क्योंकि पत्र 'लीक' मामले में उंगली सरकार की तरफ उठ रही है।
इसी तरह सैन्य अभ्यास की सामान्य गतिविधि को राजनीतिक सत्ता-षड्यंत्र के रूप में निरूपित कर सनसनी फैलाना सर्वथा अनुचित और निंदनीय है। इससे सेना की राष्ट्रभक्ति पर तो प्रश्नचिन्ह खड़े करने की कोशिश की ही गई, यह सेना के मनोबल को तोड़ने का भी कुत्सित प्रयास माना जाना चाहिए। ये खबरें, कि किस तरह संप्रग सरकार के ही एक वरिष्ठ मंत्री ने हथियार लॉबी से जुड़े अपने एक रिश्तेदार को लाभ पहुंचाने के लिए 'सेना कूच' का शिगूफा मीडिया तक पहुंचाया, और मीडिया ने बिना सोचे-समझे सनसनी के रूप से उसे परोस दिया, साबित करती हैं कि मीडिया सनसनीखेज खबरों की चाह में और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में किस तरह बौराया रहता है और कभी-कभी षड्यंत्रों का मोहरा बन जाता है। सेनाध्यक्ष ने सेना की नीयत पर सवाल उठाने वाली ऐसी खबरों को ठीक ही मूर्खतापूर्ण बताया है। इन खबरों और सरकार व सेना के बीच अविश्वास व दरार पैदा करने की कोशिशों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। सरकार इसमें चूकी तो वह खुद संदेह के दायरे में बनी रहेगी। भारत के मीडिया में जिस तरह विदेशी पूंजी निवेश बढ़ रहा है, उससे जाहिर है कि विदेशी हितों के अनुरूप मीडिया की प्राथमिकताएं भी बदलने की कोशिशें होंगी, इसलिए ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर मीडिया को कितनी सतर्कता बरतने की जरूरत है, इसका दुर्लक्ष्य नहीं किया जा सकता। मीडिया ने अनेक मामलों में अपनी भूमिका को बड़े सार्थक और सकारात्मक तरीके से निभाया है, लेकिन जब कुछ मीडिया हस्तियां नीरा राडिया जैसे कारपोरेट प्रबंधकों के जाल में फंसकर सत्ता के जोड़-तोड़ में लग जाएं तो चिंताएं उभरना स्वाभाविक है। डा.मनमोहन सिंह जैसे एक कमजोर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में चल रही संप्रग सरकार किस तरह राष्ट्रहित के हर मोर्चे पर विफल रही है और उस पर किस तरह देशघातक शक्तियां हावी हैं तथा वे देश के सत्ता प्रतिष्ठानों व मानबिन्दुओं को कमजोर करके अपने हित साधने में लगी हैं, सेना व सेनाध्यक्ष की छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र उसी का परिणाम है। समस्त देशवासियों को इस तथ्य को समझते हुए सजग और सक्रिय रहने की आवश्यकता है कि वे ऐसी किसी गलतफहमी के शिकार न हों।
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