संघ की व्याप्ति, शक्ति और रीति
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मा.गो. वैद्य
संंघ, अर्थात् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। आज हमारे देश में या अन्यत्र अनेक सामाजिक संस्थाएं कार्य कर रही हैं, पर उनके पैमाने पर संघ नहीं बैठता। काव्यालंकारों में “अनन्वय” नाम का एक अलंकार है, जिसकी तुलना केवल उसी से ही हो सकती है, अन्य किसी से नहीं। उसका विशिष्ट उदाहरण है-
“गगनं गगनाकारं सागर: सागरोपम्,
रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव।।
अर्थात् आकाश आकाश के समान ही है, समुद्र समुद्र के समान ही है, और राम-रावण युद्ध भी राम-रावण युद्ध के समान ही है। इसी प्रकार संघ भी बस संघ ही है, उसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती। संघ कितना बड़ा है, कितना व्यापक है, यही बताते हुए कोई भी संघ की कितनी शाखाएं हैं, वह कितने स्थानों पर लगती हैं, यह बताएगा, यह उचित भी है। हाल ही में संपन्न हुई रा.स्व. संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में जो आंकड़े प्राप्त हुए, उनके अनुसार भारत में 27,997 स्थानों पर संघ की 40,891 शाखाएं लगती हैं। यह नियमित लगने वाली दैनिक शाखा हैं। सप्ताह में एक बार या माह में एक बार होने वाले मिलनों की संख्या 15,000 है। कुल मिलाकर 55,891 स्थानों पर संघ के कार्यकर्ता नियमित रूप से एकत्र होते हैं। हिन्दुस्थान या दुनिया में है ऐसा कोई संगठन, जिसके छ: लाख से अधिक कार्यकर्ता नियमित रूप से, निश्चित समय पर एकत्रित होते हों? मेरी जानकारी में ऐसी कोई संस्था नहीं है। किसी को पता हो तो मुझे बताए, मुझे मेरा अज्ञान दूर होने का आनंद होगा।
मौलिक संकल्पना
लेकिन, यह शाखा ही संघ की संपूर्ण व्याप्ति नहीं है। वह तो केवल “पॉवर हाउस” अर्थात् ऊर्जा निर्मिती का केन्द्र है। ऊर्जा वितरण के लिए शक्ति केन्द्र (पॉवर हाउस) सक्षम, समर्थ और नित्य सिद्ध होना ही चाहिए। तभी उस ऊर्जा से हमारें घरों में प्रकाश होगा, टयूब और बल्ब जलेंगे, यंत्र चलेंगे, बड़ी-बड़ी मिलें चलेंगी। इसलिए संघ की रचना में “पॉवर हाउस” जैसी इन शाखाओं का बहुत महत्व है। इससे ही ऊर्जा लेकर समाज-जीवन के अनेक क्षेत्र आज प्रकाशित हैं।
एक मूलभूत संकल्पना नित्य ध्यान में रखनी चाहिए। वह यह कि संघ संपूर्ण समाज का संगठन है। यह समाज “का” संगठन है, समाज “में” संगठन नहीं। यहां “का” और “में” का अंतर समझना चाहिए। कोई भी समाज, विशेष रूप से प्रगतिशील समाज, कभी भी एक समान नहीं होता, वह मिश्रित होता है। समाज-जीवन के विविध क्षेत्र होते हैं- राजनीति, धर्म, शिक्षा, उद्योग, खेती, कारखाने आदि-आदि। संघ के “पॉवर हाऊस” में से ऊर्जा लेकर संघ के स्वयंसेवकों ने यह सब क्षेत्र अपनी- अपनी शक्ति के अनुसार प्रकाशित और प्रभावित किए हैं। कोई उन्हें आनुषांगिक संगठन कहता है, कोई विविध गतिविधि मानता है, कोई संघ परिवार मानता है। किसी भी शब्द का प्रयोग करें लेकिन उसके मूल ऊर्जा स्रोत का स्मरण रखना आवश्यक है।
संघ की व्याप्ति
अ. भा. प्रतिनिधि सभा में जिन्होंने अपना वृत्त-निवेदन (वार्षिक प्रगति रपट की प्रस्तुति) किया, ऐसी संस्थाओं की संख्या 35 थी। सामान्य लोगों को केवल भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिन्दू परिषद् ही दिखती है। जरा दृष्टि व्यापक की तो वनवासी कल्याण आश्रम, राष्ट्र सेविका समिति, अ.भा. विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच भी नजर आ सकते हैं, लेकिन विश्व विभाग नजर आएगा? और राष्ट्रीय सिख संगत? या सेवा भारती, विद्या भारती, सीमा जागरण मंच, पूर्व सैनिक सेवा परिषद, इतिहास संकलन समिति, प्रज्ञा प्रवाह…? जिनके नाम के अंत में ” भारती” शब्द है, इससे संस्कृत भारती, सहकार भारती, आरोग्य भारती, लघु उद्योग भारती, क्रीड़ा भारती का स्मरण होगा? इनकी ही जानकारी नहीं होगी तो नेत्रहीनों को नेत्र पूर्ति करने वाली “सक्षम”, स्वदेशी विज्ञान, साहित्य परिषद, सामाजिक समरसता मंच, और एक विशेष नाम लेना हो तो आईसीसीएस कितने लोगों को ज्ञात होगी?
विश्वव्यापी संघ
क्या है यह आईसीसीएस? “इंटरनेशनल सेंटर फार कल्चरल स्टडीज” नामक इस संस्था का हाल ही में (4 से 7 मार्च, 2012) हरिद्वार में सम्मेलन हुआ। जिन्होंने ईसाई मत का प्रसार होने के पूर्व की अपनी संस्कृति अभी भी संजोए रखी है, ऐसी 50 सांस्कृतिक परम्पराओं के 400 प्रतिनिधि वहां आये थे। उनमें न्यूजीलैंड के माओरी थे, अमरीका के मायन और नॅव्जो थे। यूरोप में जिनकी “पेगन” मतलब “झूठे देवताओं की पूजा करने वाले” कहकर अवहेलना की जाती है, वे भी थे। लिथुआनिया के रोमुवा और बाली के हिन्दू थे। सन् 2002 में दिल्ली में मुझे इस समूह के एक लेखक फ्रेडरिक लॅमण्ड मिले थे, उन्होंने मुझे अपनी पुस्तक “रिलीजियन्स विदाउट बिलीफ्स” भेंट की थी। वे यूरोप के ऑस्ट्रिया देश के निवासी हैं। संघ की ओर से इन संस्कृति-परम्पराओं का रक्षण और संवर्धन किया जा रहा है। हिन्दू संस्कृति व परम्पराओं से उनका कितना साम्य है, यह उनके ध्यान में आया है। यह एक प्रकार से संघ की विश्व दृष्टि ही है।
भारत के अतिरिक्त विश्व के 32 देशों में हिन्दू स्वयंसेवक संघ की 528 शाखाएं हैं। अमरीका में 140 तो इंग्लैण्ड में 70 शाखाएं हैं। गत जनवरी माह में हिन्दू स्वयंसेवक संघ की ओर से अमरीका में “सूर्यनमस्कार यज्ञ” का आयोजन किया गया था। उसमें 13,191 प्रतिभागियों ने भाग लिया और 10 लाख, 38 हजार, 842 सूर्य नमस्कार किये। अमरीका के एक राज्य के गवर्नर, दो कांग्रेसमैन (हमारी भाषा में सांसद) और 20 शहरों के महापौरों ने अधिकृत सूचना देकर इस यज्ञ में सहभागिता की। संघ के नाम में राष्ट्रीय शब्द है, लेकिन उसका विचार और संगठन चारित्र्य अंतरराष्ट्रीय बन गया है।
संघ की रीति
अ. भा. वनवासी कल्याण आश्रम का नाम अब सर्व परिचित है। वनाञ्चल में उसके द्वारा हजारों एकल विद्यालय चलाए जा रहे हैं। विहिप, विद्यार्थी परिषद भी एकल विद्यालय चलाते हैं, लेकिन उसमें वनवासी कल्याण आश्रम का कार्य सबसे अधिक है। वनवासी कल्याण आश्रम के कारण ईसाई मिशनरियों के मतान्तरण के कार्यक्रम पर रोक लगी है। पूर्वोत्तर भारत के अरुणाचल, मेघालय, असम, त्रिपुरा, नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर आदि छोटे-छोटे राज्यों में अनेक जनजातियां हैं। उनकी अपनी कुछ विशेषताएं हैं तो उनमें कुछ साम्य भी है। इस साम्य (समानता) का आधार लेकर अपनी परम्परा बचाए रखने के लिए उन्होंने अपनी एक संस्था बनाई है। विक्रमसिंह जमातिया उनके नेता हैं। यह सब वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से हुआ है। 1 दिसंबर, 2011 को अरुणाचल प्रदेश में ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पासीघाट में “दोन्यीपोलो (अर्थात् चंद्र और सूर्य) एलाम केबांग” (पारम्परिक धर्म-संस्कृति संगठन) नामक संस्था का रजत जयन्ती समारोह संपन्न हुआ। वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष जगदेवराम उरांव और अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री नाबम तुकी उसमें उपस्थित थे।
27 दिसंबर, 2011 से 1 जनवरी, 2012 तक कल्याण आश्रम ने पुणे में “वनवासी क्रीड़ा महोत्सव” का आयोजन किया था। उसमें 2038 खिलाड़ियों ने भाग लिया जिनमें 725 महिलाएं भी थीं। ये सब खिलाड़ी 34 राज्यों से आये थे। कोई कहेगा कि इसमें विशेष क्या है? कोई भी क्रीड़ा स्पर्धा आयोजित कर सकता है। लेकिन यहां रा.स्व. संघ की एक विशेषता प्रकट हुई। एक दिन पुणे के 1300 परिवारों ने इन खिलाड़ियों के लिए अपने घर से भोजन लाकर आत्मीयता और बंधुता का परिचय दिया। इन परिवारों की केवल महिलाएं ही भोजन लेकर नहीं आई थीं बल्कि पूरा परिवार ही आया था और एक-एक परिवार के साथ बैठकर वनवासी खिलाड़ियों ने भोजन का आनंद लिया। यह है संघ की विशेषता। यह है संघ की रीति।
सीमा जागरण
हमारे देश की सीमा शत्रु देशों की ओर से खतरे में है। उसकी रक्षा के लिए हमारे सैनिक सिद्ध हैं। लेकिन, जैसे सैनिक सिद्ध हैं वैसे ही उस सीमावर्तीं प्रदेश की जनता भी है? सैनिकों के साथ संबंध और जनता में धैर्य बंधाने का यह महत्त्वपूर्ण कार्य सीमा जागरण मंच करता है। गत वर्ष भारतीय सीमा की 500 चौकियों पर रक्षाबंधन का कार्यक्रम हुआ। पंजाब, जम्मू-कश्मीर और राजस्थान की सीमा पर प्रतिवर्ष सेना भर्ती प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए जाते हैं। लोगों में जागृति निर्माण हो, इसके लिए “सीमा सुरक्षा चेतना यात्रा” भी निकाली जाती है। गत वर्ष 61 स्थानों पर सीमा सुरक्षा सम्मेलन हुए। दो हजार गांवों में सभाएं हुईं। तीन सौ से अधिक पाठशालाओं में प्रदर्शनी लगाकर विद्यार्थियों के बीच सीमा सुरक्षा के बारे में जागृति पैदा की गई। भविष्य में अपनी सीमाएं सिकुड़ने नहीं देंगे, ऐसा संकल्प लोगों के मन में पिरोया गया।
केवल राष्ट्र के लिए
संघ के कार्यकर्ताओं ने अपने “पॉवर हाउस” से ऊर्जा लेकर समाज जीवन के जो-जो क्षेत्र प्रकाशमान किए, उन सबका समग्र परिचय करा देने की बात सोचंे तो एक बड़ा ग्रंथ ही बनेगा। वैसा ग्रंथ निर्माण करने में कोई आपत्ति भी नहीं है। लेकिन संघ प्रेरित कार्य प्रचार के भरोसे नहीं चलते। प्रसिद्धि तो छोड़ दें, जान की परवाह किए बिना कार्यकर्ता अपने सेवा के क्षेत्र में मजबूती से खड़े हैं। किसलिए? स्वयं के लिए? मंत्रिपद प्राप्त करने के लिए? या समाचारपत्रों में नाम आने के लिए? नहीं!! उनकी कोई व्यक्तिगत आकांक्षा ही नहीं है। अपना देश, अपना राष्ट्र, अपना समाज – एक संघ बने, परस्पर सामंजस्य और सहयोग से बर्ताव करने वाला बने और इस रीति से अपने एक राष्ट्रीयत्व की अनुभूति सबके अंतरंग में बने, इसके लिए यह सब प्रयास हैं। यह नि:स्वार्थ प्रयास ईश्वर का अधिष्ठान है और आशीर्वाद भी। इसलिए सफलता ही उसकी नियति है।
अनुशासन का रहस्य
संघ की एक विशिष्ट पहचान है- अनुशासन। संघ में यह सर्वज्ञात है, लेकिन उसके लिए दण्डात्मक प्रावधान नहीं है। एक पुरानी कथा बताता हूं, 1952-53 की। उस समय गोहत्या बंदी के लिए संघ ने हस्ताक्षर संग्रह किया था। तब अनेक गोभक्त तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी से मिलने आते थे। एक बार लाला हरदेव सहाय के साथ एक साधु जी आये। उन्होंने गुरुजी से कहा, “आप ऐसा एक आदेश निकालें कि संघ का कोई भी स्वयंसेवक अपने घर “डालडा” का प्रयोग नहीं करेगा।” उस समय वनस्पति घी “डालडा” नया- नया ही बाजार में आया था। श्रीगुरुजी ने कहा, “ऐसी आज्ञा निकालने की संघ में पद्धति नहीं है।” उस साधु महाराज को बहुत अचरज हुआ। वे बोले, “आप यह क्या कह रहे हैं? मैं जहां-जहां जाता हूं वहां मुझे यही उत्तर मिलता है कि संघ की आज्ञा होगी तो हम ऐसा करेंगे।” इस पर श्रीगुरुजी ने कहा, “ऐसी आज्ञा के लिए हमारे पास कौन-सी दण्डशक्ति (प्रावधान) है? किसी ने आज्ञा का पालन नहीं किया तो हम उसे क्या दण्ड दे सकते हैं?” साधु जी ने पूछा, “फिर आपके संघ में इतना अनुशासन कैसे है?” श्रीगुरुजी ने कहा, “हम प्रतिदिन संघस्थान पर एकत्र आते हैं, हमारी पद्धति से कबड्डी आदि खेलते हैं, उससे ही अनुशासन निर्माण होता है।” ऐसा लगा कि उन साधु महाराज का समाधान हो गया।
मुझे इसके साथ और एक उदाहरण जोड़ना है, वह है संघ में श्रेष्ठ अधिकारियों का व्यवहार। एक सामान्य मुख्य शिक्षक “दक्ष” कहता है और सरसंघचालक से लेकर सब ज्येष्ठ-श्रेष्ठ पदाधिकारी सीधे खड़े हो जाते हैं। वे सब वरिष्ठ जन शिविरों में सबके साथ रहते हैं। सब जो भोजन करते हैं, वही वे भी करते हैं। सबके समान गणवेश पहनते हैं। आचरण की इस समानता से एक अलग वातावरण निर्माण होता है। समता भाव का निर्माण होता है। उससे अनुशासन निर्माण होता है। वह स्वयं द्वारा स्वीकार किया गया अनुशासन होता है। वह भय से निर्माण किया हुआ नहीं होता। कार्यक्रम शुरू होगा का अर्थ है समय पर ही शुरू होगा। कई लोगों को देर से आने में प्रतिष्ठा अनुभव होती है। पर संघ में अलग ही वातावरण होता है। कभी किसी के विरुद्ध अनुशासन भंग की कार्रवाई होने की बात किसी ने सुनी है? नहीं न! कारण, यह अनुशासन स्वयं स्वीकृत है। यही संघ की विशिष्टता है। द
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