मंथन
|
मंथन
देवेन्द्र स्वरूप
भारत कैसे बना रहे भारत-6
5 मार्च 1931 को गांधी- इर्विन समझौता पूरी तरह एकपक्षीय था, जिसमें गांधी जी ने सब कुछ खोया और वायसराय इर्विन ने सब कुछ पा लिया। इस सत्य का साक्ष्य प्रस्तुत करता है गांधी जी के “हनुमान और गणेश” महादेव देसाई की डायरी का 12वां खंड। महादेव देसाई इस वार्ता के समय दिल्ली में गांधी जी के साथ मौजूद थे। 17 फरवरी से 5 मार्च तक गांधी जी और इर्विन के बीच जो गुप्त वार्तालाप चला, उसकी जो जानकारी गांधी जी ने महादेव देसाई को दी वह उन्होंने अपनी डायरी में निबद्ध की। इस डायरी के गुजराती संस्करण की भूमिका में चंदुलाल भगुभाई दलाल ने समझौते का निचोड़ इन शब्दों में प्रस्तुत किया, “इस समझौते के अनुसार कांग्रेस ने आंदोलन वापस लिया, गोलमेज परिषद में भाग लेना स्वीकार किया, जमीन महसूल हो सके उतनी मात्रा में भरवाया और शांति बनाये रखी। लेकिन सरकार ने आर्डिनेंस वापस लेने के सिवाय किसी प्रकार से इस समझौते का पालन नहीं किया। समझौते के मुताबिक छोड़े जाने योग्य कितनों को जेल से नहीं छोड़ा, किसानों पर जुल्म ज्यों का त्यों चलता रहा-विशेषकर संयुक्त प्रांत (यूपी) और गुजरात में। गांधी जी और सरकार के बीच लम्बा पत्र व्यवहार चला। गांधी जी ने वायसराय विलिंगडन से तीन बार, संयुक्त प्रांत के गवर्नर से एक बार और बम्बई के गवर्नर से एक बार भेंट की। वे वायसराय से लेकर कलेक्टर तक शिमला और गुजरात के बीच दौड़ते रहे। गांधी जी की इस दुर्दशा को देखकर सरदार पटेल ने झुंझलाकर टिप्पणी की, “आपने युद्ध विराम करके गांधी जी को फंसाया है। या तो वायसराय ने उन्हें ठगा है या उसका अपने अफसरों पर कोई वश नहीं है। गांधी जी की जगह कोई महिला होती तो चूड़ियां फोड़कर खड़ी हो गयी होती।”
गांधीजी जी की लोकप्रियता
महादेव देसाई लिखते हैं कि “बातचीत जब अंतिम दौर में थी तब जवाहर लाल पूरी रात सिसकियां भरते रहे थे। गांधी जी ने उन्हें बहुत समझाया पर सब निष्फल गया…गांधी जी ने नेहरू को कहा,”मुझे अच्छी तरह से रोकने वाले चौकीदार बहुत कम हैं। वल्लभ भाई सिपाही हैं। महादेव भी नहीं रोकता। सिर्फ राजगोपालाचारी, जयरामदास और तुम ही तो हो”। पर ये सब भी समझौते को एकपक्षीय होने से रोक नहीं पाए, क्योंकि समझौते पर हस्ताक्षर होने के ठीक पहले 4 मार्च को ही कार्य समिति से वचन ले लिया था कि वे समझौते को आंख मूंदकर स्वीकार कर लेंगे उस पर कोई सवाल नहीं उठाएंगे। आश्चर्य तो यह है कि वायसराय जो चाहते थे कि गांधी जी अपना सत्याग्रह समाप्त कर दें, गोलमेल सम्मेलन में जाने की हामी भर दें और पहले गोलमेज सम्मेलन के अंतिम दिन 19 जनवरी, 1931 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडानल्ड द्वारा उद्घोषित संवैधानिक ढांचे के दायरे में अगली गोलमेज कांफ्रेंस की बहस को सीमित रखना स्वीकार कर लें, इन तीनों मूलभूत मुद्दों को गांधी जी ने बिना किसी बहस के पहले दौर में ही स्वीकार कर लिया। जबकि यह तीनों मुद्दे लाहौर कांग्रेस के प्रस्तावों के विरुद्ध जाते थे और तीनों को लेकर ही कांग्रेस ने वह विशाल आंदोलन छेड़ा था, जिसने ब्रिटिश सरकार को बुरी तरह हिला दिया था। बारह-तेरह दिन दोनों के बीच बहस चली। वह जब्त और नीलाम जमीनों की वापसी और पुलिस अत्याचार जैसे गौण मुद्दों को लेकर थी न कि पूर्ण स्वराज्य की मांग को लेकर। गांधी जी ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी को रुकवाने का भी बहुत प्रयास किया पर वायसराय ने नहीं माना। फांसी के निर्णय को कराची कांग्रेस के बाद तक स्थगित करना तो दूर उसे एक सप्ताह पहले 23 मार्च की आधी रात को ही क्रियान्वित कर दिया गया।”
स्वाभाविक ही, इन दोनों परिणामों से देश में हताशा और गुस्से की लहर दौड़ गयी थी। इसके परिणामस्वरूप गांधी जी की लोकप्रियता का ग्राफ एकदम नीचे चला जाना चाहिए था, पर हुआ उलटा। जिस गांधी-इर्विन समझौते को राजनेता और राजनीति के विशेषज्ञ ब्रिटिश कूटनीति की विजय और गांधी जी की कूटनीतिक पराजय समझ रहे थे उसे ही भारत के सामान्य जन ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर गांधी जी की विजय के रूप में देख रहे थे।
अधनंगा फकीर
शायद विजय की इस भावना को गहरा करने में विंस्टन चर्चिल के उस प्रसिद्ध उद्गार का योगदान था, जिसे उन्होंने गांधी-इर्विन वार्ता के दौरान 23 फरवरी को कहा था कि “कितना लज्जाजनक दृश्य है कि पूरब का एक जाना-पहचाना अधनंगा फकीर वायसराय भवन की सीढ़ियां चढ़कर साम्राज्य के प्रतिनिधि की बगल में बैठकर बराबरी पर वार्तालाप कर रहा है।” स्वयं इर्विन ने कई बार विनोदपूर्ण लहजे में गांधी जी के सामने इसे दोहराकर उनके मन में गुदगुदी पैदा करने का प्रयास किया था। भारतीय समाज पर गांधी जी की इस असामान्य पकड़ को लार्ड इर्विन और बम्बई के गवर्नर साईक्स ने भी अपने पत्रों में स्वीकार किया है। इर्विन ने 14 मई 1930 को भारत सचिव वेजवुड बेन को एक नोट भेजा जिसमें कहा गया कि जमींदार लोग हमारे पक्ष में वफादारी आंदोलन नहीं चला रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने जोतदारों की नाराजगी का डर है। ये जोतदार गांधी जी को संत के रूप में देखते हैं और गांधी का उन पर भारी प्रभाव है। साईक्स ने 21 मई को इर्विन को लिखा कि उसने गांधी के प्रभाव को बहुत कम आंक लिया था। लिबरल नेता तेजबहादुर सप्रू ने 20 मई 1930 को लार्ड इर्विन को पत्र में लिखा “मैं गांधी को न मसीहा मानता हूं, न राजनीतिज्ञ और न नेता, पर मैं यह महसूस करता हूं कि चाहे कैसे भी क्यों न हो उसने भारत की जनसंख्या के बड़े वर्गों के दिलों पर कब्जा जमा लिया है।” इन्हीं सब कारणों से इर्विन इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि वर्तमान दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए उन्हें गांधी की शरण में जाना ही पड़ेगा और 2 जून, 1930 को भारत सचिव बेन को उसने तार भेजकर सूचित कर दिया कि गांधी जिस तरफ जाएंगे जनमत उसी तरफ उनके पीछे- पीछे चला जाएगा। भारत का सहयोग पाने के लिए गांधी का सहयोग लेना होगा।
जन भावनाओं पर गांधी जी की इस गहरी पकड़ के सामने ही नेहरू और सुभाष जैसे नेता गांधी जी से अनेक बुनियादी विषयों पर मतभेद रखते हुए भी उनके सामने हतप्रभ रहते थे। लाहौर अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में जवाहरलाल नेहरू ने गांधी जी की स्तुति करते हुए कहा कि “भारत में वे अकेले नेता हैं जिन पर जनता को आस्था है। उन्हें ही राष्ट्रव्यापी आदर और श्रद्धा प्राप्त है। इस अधिवेशन में गांधी जी ने ही पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। पं.मदन मोहन मालवीय, एम.एस. अणे, एन.सी.केलकर, सत्यमूर्ति आदि नेताओं ने उस प्रस्ताव पर कुछ शंकाएं उठायीं। उनका उत्तर देते हुए बंगाल के कांग्रेसी नेता जे.एम.सेनगुप्ता ने खुले सत्र में उपस्थित जन समुदाय से प्रश्न पूछा, “क्या आपके पास महात्मा गांधी के अलावा कोई दूसरा नेता है जो देश को विजय दिला सके?” तो पूरे पंडाल में इस प्रश्न का एक ही उत्तर गूंज उठा, “नहीं, नहीं, नहीं।”
नेहरू की मतभिन्नता
जवाहरलाल नेहरू ऊपर से दिखने में चाहे जितने भावुक लगते हों पर वे अपने हित में बहुत यथार्थवादी समझ रखते थे। उन्होंने गांधी जी की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विचारधारा से अपनी मतभिन्नता गांधी जी के साथ अपने पत्राचार, अपनी आत्मकथा और “डिस्कवरी आफ इंडिया” जैसी पुस्तकों में खुलकर प्रगट की है। वे स्वयं को समाजवादियों और कम्युनिस्टों के निकट मानते थे किंतु गांधी जी से संबंध विच्छेद की स्थिति नहीं पैदा होने देते थे। उनका एक ही तर्क था कि भारत कृषकों का देश है और कृषकों को स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ने की प्रेरणा देने का सामथ्र्य अकेले गांधी में है। हम सब समाजवादी मिलकर भी यह काम नहीं कर सकते। अपनी आत्मकथा में उन्होंने गांधी-इर्विन समझौते से अपने मन में पैदा हुए भूचाल का बहुत मार्मिक वर्णन किया है और अदंर से टूट जाने पर भी उन्होंने गांधी के सामने आत्मसमर्पण क्यों किया यह स्पष्ट करने की कोशिश की है। मार्च के अंतिम सप्ताह में कराची अधिवेशन में गांधी-इर्विन समझौते के स्वागत का प्रस्ताव गांधी जी ने नेहरू जी से ही प्रस्तुत कराया था।
गांधी-इर्विन समझौते पर सुभाष जैसे नेताओं और जनसाधारण की प्रतिक्रिया में आकाश-पाताल की दूरी का बहुत रोचक वर्णन हमें सुभाष बोस की 1935 में प्रकाशित आत्मकथात्मक पुस्तक “दि इंडियन स्ट्रगल” में प्राप्त होता है। सुभाष अकेले नेता थे जो मतभेद होने पर गांधी जी के सामने खड़े होने का साहस कर सकते थे। 1928 के कलकत्ता अधिवेशन में और एक दिसम्बर 1929 को दिल्ली घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर न करके उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया था। शायद इसीलिए गांधी-इर्विन वार्ता के समय अंग्रेजों ने उन्हें जेल में बंद कर दिया था और समझौते पर हस्ताक्षर होने के दस दिन बाद 15 मार्च को उन्हें रिहा किया था। रिहा होते ही वे गांधी के पास अपना विरोध दर्ज कराने के लिए तुरंत बम्बई पहुंचे और गांधी जी के साथ ही उसी ट्रेन से दिल्ली वापस लौटे ताकि ट्रेन में भी वह अपना वार्तालाप जारी रख सकें। इस यात्रा का वर्णन उनकी “इंडियन स्ट्रगल” में उपलब्ध है। वहीं उन्होंने गांधी-इर्विन समझौते से अपना मतभेद भी निबद्ध किया है। समझौते की जन प्रतिक्रिया को देखकर वे स्तब्ध थे। हर स्टेशन पर उस समझौते के समर्थन में जन उत्साह और अभिनंदन को देखकर वे चमत्कृत थे। सुभाष बाबू लिखते हैं, “स्पष्ट ही इस समझौते के फलस्वरूप गांधी जी की लोकप्रियता घटने के बजाए बहुत ऊपर पहुंच गयी थी। वह 1921 के रिकार्ड को भी पार कर गयी थी।” आगे वे लिखते हैं, “समझौते की आलोचना में ऊपर जो कुछ लिखा गया है, उसके बावजूद नासमझ जनसाधारण दिल्ली समझौते में महात्मा गांधी की विजय देख रहा है…कराची अधिवेशन में गांधी जी की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा चरम पर पहुंच गयी। मैंने कुछ दिनों तक उनके साथ यात्रा की और तब मुझे हर जगह उनका स्वागत करने के लिए उमड़े विशाल जनसमूहों को देखने का अवसर मिला। मुझे आश्चर्य है कि क्या किसी अन्य देश में किसी नेता को इतना भारी स्वयंस्फूर्त जय-जयकार मिलता होगा। वे भीड़ के सामने केवल एक महात्मा के रूप में ही नहीं तो एक राजनीतिक युद्ध के विजेता के रूप में प्रगट होते थे।”
युवाओं में उबाल
गांधी-इर्विन समझौते से जागरूक राजनीतिक जगत गांधी का आलोचक बन गया था तो भगत सिंह को फांसी लगने के बाद तो पूरा युवा वर्ग क्रोध से उबल रहा था। कम्युनिस्टों ने इस उबाल को गांधी विरोधी दिशा देने का पूरा प्रयास किया। बम्बई में गांधी जी के लिए आयोजित जनसभा के मंच पर अपना लाल झंडा गाड़ दिया किंतु गांधी जी उस झंडे के नीचे बैठकर अविचलित भाव से भाषण देते रहे। कराची अधिवेशन में भी कम्युनिस्ट नियंत्रित नौजवान भारत सभा ने भगत सिंह की फांसी को लेकर पर्चे बांटे, नारे लगाये पर इससे गांधी जी की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा। इतिहासकार डा.आर.सी.मजूमदार लिखते हैं, “गांधी जी अधिवेशन प्रारंभ होने से पहले ही कराची पहुंच गये थे। आयोजकों ने अधिवेशन से एक दिन पहले उनके लिए एक सभा का आयोजन किया जिसमें चार आना प्रति व्यक्ति प्रवेश शुल्क रखा गया। इस शुल्क से 10,000 रु.की राशि इकट्ठी हुई अर्थात 40 हजार लोग शुल्क देकर भाषण सुनने आए।” डा.मजूमदार लिखते हैं कि एक बार फिर राजनीतिज्ञ गांधी पर संत गांधी की विजय देखने को मिली।
दूसरे गोलमेज सम्मेलन में वी.एस.श्रीनिवास शास्त्री ने नाटकीय शैली में गांधी जी की ओर मुड़कर कहा, “आपने अतुलनीय प्रसिद्धि प्राप्त कर ली है। आपके प्रभाव की बराबरी नहीं की जा सकती। पूरा विश्व मनुष्यों पर शासन करने और उन्हें ऊपर उठाने की आपकी आध्यात्मिक शक्ति को स्वीकार करता है। क्या यह अच्छा न होगा कि आप इस दैवी वरदान का राष्ट्र के रचनात्मक विकास में उपयोग करें?” शास्त्री जी ने गांधी जी को इस दिशा में मोड़ने के जो सफल प्रयास किये, वह अज्ञात गाथा कभी और लिखेंगे। यहां तो इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि भारतीय मानस की सही समझ पाने के लिए भारतीय समाज पर गांधी जी के इस प्रभाव और सम्मोहन की सूक्ष्म कारण-मीमांसा बहुत आवश्यक है।द (क्रमश:)
टिप्पणियाँ