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हाथ-हाथी-साइकिल

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Mar 31, 2012, 12:00 am IST
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बात बेलाग

दिंनाक: 31 Mar 2012 17:06:08

बात बेलाग

हाल में उत्तर प्रदेश विधानसभा चनावों में एक दूसरे के विरुद्ध ताल ठोंककर मतदाताओं को भरमाने की कोशिश करने वाली कांग्रेस, बसपा और सपा की कलई संसद का बजट सत्र शुरू होते ही खुल गयी। मनमाने ढंग से राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केन्द्र-एनसीटीसी-के गठन का तमाम गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों द्वारा जबर्दस्त विरोध किए जाने के बावजूद इस मुद्दे को राष्ट्रपति के अभिभाषण में शामिल किये जाने पर यह स्वाभाविक ही था कि धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा में इसकी आलोचना होती और विपक्ष संशोधन प्रस्ताव भी पेश करता। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस ने भी एनसीटीसी का मुखर विरोध किया था। तृणमूल की पश्चिम बंगाल में सरकार है, जिसकी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एनसीटीसी को राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल और देश के संघीय ढांचे पर हमला करार दिया, लेकिन जब विपक्ष के संशोधन प्रस्तावों पर संसद के दोनों सदनों में मतदान का वक्त आया तो बहुतों के नकाब उतर गये। लोकसभा में मतदान के समय तृणमूल के साथ-साथ बसपा भी “वाकआउट” कर गयी तो सपा ने खुलकर सरकार के समर्थन में मतदान किया। इसके बावजूद सरकार के पक्ष में बहुमत के आंकड़े से कम मत पड़े। राज्यसभा में तो संप्रग है ही अल्पमत में, सो सपा के साथ-साथ बसपा ने भी सरकार के समर्थन में खुलकर मतदान किया, जबकि तृणमूल सदन में ही नहीं आयी। वैसे चुनावी मंच पर एक-दूसरे के विरुद्ध भूमिकाएं निभाने वाले हाथ, हाथी और साइकिल की यह दोस्ती पहली बार बेनकाब नहीं हुई है। महंगाई समेत कई मुद्दों पर मनमोहन सरकार की संकटमोचक बनने में सपा-बसपा अक्सर अग्रणी रही हैं, पर मतदाता हैं कि चुनाव के वक्त इनके दोगलेपन को भूल जाते हैं।

सत्ता की खातिर

वैसे राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुए मतदान में मनमोहन सिंह सरकार को बचाने वाली ममता बनर्जी सरकार की किरकिरी करवाकर अपनी ताकत का अहसास कराने का कोई मौका नहीं चूकती हैं। संसद के बजट सत्र के पहले चरण में ही ममता ने एक बार फिर जता दिया कि यह सरकार उनके रहमोकरम पर चल रही है। पिछले साल ममता के पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनकर चले जाने के बाद तृणमूल कांग्रेस के कोटे से केबिनेट स्तर के रेल मंत्री बनाये गये दिनेश त्रिवेदी ने यात्री किराये में वृद्धि का “साहस” दिखाया तो तृणमूल सुप्रीमो ने त्रिवेदी ही नहीं, मनमोहन सिंह की भी कुर्सी हिला दी। इधर संसद में रेल बजट पेश हुआ, उधर ममता ने प्रधानमंत्री को फरमान भेज दिया कि उनकी पार्टी की ओर से त्रिवेदी अब रेल मंत्री नहीं रहे, मुकुल रॉय उनकी जगह लेंगे। सरकार पसोपेश में, आखिर संसद सत्र के बीचोबीच इस तरह मंत्री कैसे बदला जाए जबकि रेल बजट को तो प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री की भी सहमति हासिल थी! पर सरकार बचाने को अंतत: वह सब करना पड़ा, जिसकी मिसाल आजाद भारत के अब तक के संसदीय इतिहास में नहीं मिलती। चार दिन की रस्साकसी के बाद अंतत: त्रिवेदी को इस्तीफा देना पड़ा और संसद सत्र के बीच ही मुकुल रॉय को नये केबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ग्रहण भी करायी गयी, जिन्होंने पहला काम यात्री किराये में की गई वृद्धि को आंशिक रूप से वापस लेने का ही किया। वैसे यह जानना दिलचस्प होगा कि यह वही मुकुल रॉय हैं, जिन्होंने पिछले साल प्रधानमंत्री के निर्देश के बावजूद बतौर रेल राज्य मंत्री रेल दुर्घटनास्थल पर जाने से इनकार कर दिया था।

अनुत्तरित प्रश्न

यह देश का सबसे बड़ा राज्य है, इसने देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री भी दिये हैं, नाम भी उत्तर प्रदेश है, लेकिन गुंडाराज उसके समक्ष एक अनुत्तरित प्रश्न बन गया है। मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्वकाल में गुंडाराज से आजिज मतदाताओं ने मायावती के इस नारे “चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर” पर यकीन किया…और वर्ष 2007 में उन्हें अप्रत्याशित रूप से स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता सौंप दी। पर फिर गुंडे हाथी पर चढ़कर छाती पर गोली मारने लगे तो मतदाताओं ने अब वापस सपा को सत्ता सौंप दी। शायद इसलिए कि चुनाव प्रचार के बीच ही मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव ने माफियाई छवि वाले डी. पी.यादव को सपा में शामिल करने से इनकार कर अपनी पार्टी का चरित्र बदल जाने का संकेत दिया था। पर यह कलई खुलते देर नहीं लगी कि चरित्र नहीं, सिर्फ चेहरा बदला था। सपा को बहुमत मिलते ही उत्तर प्रदेश भर में शुरू हुई सपाई गुंडागर्दी सरकार बनने के बाद और भी बेखौफ हो गयी है। हो भी क्यों न, डी. पी. यादव का विरोध करने वाले अखिलेश ने मुख्यमंत्री बनकर राजा भैया सरीखे बाहुबलियों को जेल मंत्री बनाकर खुले खेल का संदेश जो दे दिया है। अब भला मतदाता किस पर यकीन करें?    द समदर्शी

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