गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिएलोकजागरण में लगा एक गंगाभक्त
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गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए
हरिमंगल
“गंगे तव दर्शनात् मुक्ति:” धर्मशास्त्रों के द्वारा इस सूत्र वाक्य को लोगों के दिलों में आत्मसात कर पतित पावनी गंगा को अविरल और निर्मल स्वरूप दिलाने के लिए प्रतिबद्ध डा. दीनानाथ शुक्ल “दीन” को आज का भगीरथ कहा जाए तो शायद यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।
केन्द्रीय वि.वि. प्रयाग के वनस्पति विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डा. दीनानाथ शुक्ल “दीन” की पहचान आज देश-विदेश में गंगा भक्त के रूप में होती है। अपनी यह पहचान बनाने या बनाए रखने के लिए डा. शुक्ल पिछले 32 वर्षों से गंगा सेवा का कार्य कर रहे हैं। यह गंगा सेवा ऐसे बिन्दु पर केन्द्रित है, जिस पर आज देश-विदेश में मंथन चल रहा है। जी हां, गंगा को प्रदूषण से मुक्ति दिलाने का, यानी उसे एक बार फिर पुराने स्वरूप में लाने का। इस कार्य का स्वरूप ऐसा है कि चाहे- अनचाहे हर कोई उसमें सहयोगी या भागीदार बन ही जाता है।
प्रेरक प्रदर्शनी
गंगा में बढ़ते प्रदूषण की ओर जन-जन का ध्यान आकृष्ट करने के लिए डा. शुक्ल ने 32 वर्ष पूर्व प्रयास शुरू किया था। कृषि एवं वनस्पति विज्ञान की स्नातकोत्तर परीक्षा में स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले डा. शुक्ल कहते हैं कि जब लगा कि गंगा में प्रदूषण के साथ-साथ उसकी अविरलता भी प्रभावित हो रही है तो मैंने अपने सहयोगियों के साथ इसके विरुद्ध जन जागरण करने का निश्चय किया। सीमित संसाधन और थोड़े से खर्च में अधिक से अधिक लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए गंगा तट का सहारा लिया। स्थानीय प्रशासन और सहयोगियों के सहयोग से वर्ष 1981 के माघ मेले में “गंगा व यमुना जल प्रदूषण निवारण प्रदर्शनी” लगाई। मात्र 6 दिनों तक चली इस प्रदर्शनी में गंगा के उद्भव स्थल से लेकर गंगा सागर तक की यात्रा के पड़ाव तथा उन स्थानों तथा कारणों को चिन्हित किया गया, जहां-जहां उसकी अविरलता प्रभावित हो रही थी या उसमें प्रदूषण बढ़ रहा था। मात्र 6 दिनों में ही लाखों लोगों तक यह संदेश पहुंच गया कि कैसे आज प्रशासनिक उपेक्षा, परंपरा, अज्ञानता या धार्मिकता की आड़ में गंगा को प्रदूषित किया जा रहा है।
इस प्रदर्शनी से गंगा प्रदूषण का मुद्दा संगम तट पर जुटे तमाम साधु-संतों तथा बुद्धिजीवियों तक पहुंचा तो अनेक संत, ब्रज अकादमी के श्रीपाद जी महाराज, मानस महारथी, देवराहा बाबा के शिष्य स्वामी प्रपन्नाचार्य, टाट वाले बाबा ने सफलता के लिए आशीर्वाद दिया तो अनेक साधु संतों ने गंगा को प्रदूषित कहने के लिए डा. शुक्ल को आड़े हाथों भी लिया। आक्रोश आलोचना और अपमान का दंश झेलने के बाद भी डा. शुक्ल ने तय किया कि वह अपना जन-जागरण अभियान जारी रखेंगे।
अपने जन-जागरण आंदोलन को बढ़ाने के लिए डा. शुक्ल ने प्रयाग वि.वि.में शोध छात्रों के संगठन- “यू.पी. रिसर्च एसोसिशन” का गठन किया, जिसमें वह आज भी संस्थापक अध्यक्ष हैं। साधु-संतों के साथ जिला प्रशासन तथा माघ मेला प्रशासन का भी सहयोग प्राप्त किया। धीरे-धीरे उनके इस जनजागरण आंदोलन को इतनी ख्याति और सहयोग मिलने लगा कि गंगा प्रदूषण निवारण प्रदर्शनी आज विश्व में गंगा एवं पर्यावरण पर सबसे बड़ी जन-जागरण प्रदर्शनी बन गयी है। डा. शुक्ल और उनकी सहयोगी डा. वंदना श्रीवास्तव की मानें तो पिछले 32 वर्षों में संगम तट पर माघ मेला के साथ-साथ कुंभ और अर्ध कुंभ मेले में आये लगभग 29 करोड़ लोग उनकी इस प्रदर्शनी को देख चुके हैं।
…और शुरू हो गया महाअभियान
गंगा पर मंडराते संकट के विरुद्ध शुरू हुआ जनजागरण आज गंगा व यमुना जल प्रदूषण निवारण प्रदर्शनी, प्रकृति संरक्षण, शोध प्रसार एवं जन जागरूकता महाभियान के बैनर में बदल चुका है। हर वर्ष पूरे माघ मास में त्रिवेणी बांध के नीचे लगभग एक हजार वर्ग गज भूमि पर डा. शुक्ल अपनी प्रदर्शनी लगाते हैं। प्रदर्शनी में गंगा के वास्तविक स्वरूप को नष्ट करने वाले कारक और उसके निवारण के उपाय के साथ-साथ गंगा की अविरलता और निर्मलता से प्रभावित हो रही भारतीय संस्कृति, जीवनशैली को बहुत ही मार्मिक चित्रों और शब्दों के सहारे प्रदर्शित किया जाता है। गंगा से इतर अब यमुना नदी में बढ़ते प्रदूषण की ओर भी प्रदर्शनी में लोगों का ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है। वृहद स्वरूप लेती इस प्रदर्शनी में अब पावन नदियों के साथ-साथ अन्य प्रदूषणों यथा-मृदा प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, पर्यावरण और संस्कृति प्रदूषण की ओर भी लोगों का ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है। इस प्रदूषण के निवारण और उसके कुप्रभाव से बचने के तमाम उपायों की जानकारी डा. शुक्ल के साथ-साथ उनके अन्य सहयोगियों द्वारा प्रदर्शनी में दी जाती है।
अपने इस अभियान को प्रदर्शनी से आगे बढ़ाते हुए डा. शुक्ल पूज्य संतों का सहारा ले रहे हैं। संत सम्मेलन, विचार संगोष्ठी, पत्रिका प्रकाशन, पर्यावरण रैली, निबंध, चित्रकला, वाद-विवाद प्रतियोगिता, आज उनके जन-जागरण कार्यक्रम के प्रमुख माध्यम बन चुके हैं।
प्रदर्शनी के बाद उनके अभियान को बल प्रदान करने वाला दूसरा माध्यम है उनके द्वारा बनाये गए आकर्षक नारे। आज रेल, सड़क या जल परिवहन मार्ग से आने वाले हर व्यक्ति को प्रयाग सीमा में प्रवेश करते ही डा. शुक्ल के नारे सचेत करते नजर आते हैं। धर्मशास्त्रों के तमाम सूत्र वाक्यों को डा. शुक्ल ने ही जन-जन की जुबान पर ला दिया है। हजारों स्थानों पर लिखे उनके कुछ नारे इस प्रकार हैं-
1- गंगा दर्शन ही गंगा स्नान है। 2- गंगा में पाप धोएं न कि गंदगी। 3- गंगा मैया जीवन दैया, इन्हें बचाओ बहना-भइया। 4- गंगा हमारी मां है, गंगा हमारी है जिंदगानी। 5- ऐसी नदी कहां है, ऐसी कहां है धारा, जिसका सलिल सुधा मय, जिसने पतित उबारा।
डा. शुक्ल के नारे न केवल आम आदमी की बोलचाल में शामिल हो गये हैं, अपितु माघ मास में संगम तट पर चलने वाले तमाम प्रवचनों में उद्धृत किये जा रहे हैं। अब संगम की ओर पर्यटकों को ले जाने वाला रिक्शाचालक भी कहता है “बड़ी निर्मल धारा बा गंगा मइया का।”
डा. शुक्ल की यह प्रदर्शनी संगम तट से इतर हरि की पौड़ी पर गुरुकुल कांगड़ी वि.वि. के सहयोग से, कालाकांकर, प्रतापगढ़ में गंगा तट पर, प्रयाग के “हिन्दुस्तान एकेडमी” सहित अनेक सम्मेलनों में आयोजित की जा चुकी है।
अभियान की सार्थकता
गंगा में बढ़ते प्रदूषण के निवारण पर डा. शुक्ल की पहल या सक्रियता का आकलन इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उनके प्रयास शुरू करने के लगभग चार वर्ष बाद गंगा प्राधिकरण की स्थापना 1985 में राजीव गांधी द्वारा की गयी। पांच सौ करोड़ से अधिक की राशि प्राधिकरण के माध्यम से खर्च होने के बाद भी गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर कोई रोक नहीं लग सकी। अब सरकार ने तीन वर्ष पूर्व गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया, लेकिन फिर भी कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं दिखी।
दूसरी ओर डा. शुक्ल के जन-जागरण ने तमाम लोगों को इस प्रकार के जन-जागरण करने को प्रेरित किया। डा. शुक्ल के अनुसार आज लगभग 200 संस्थाएं इस प्रकार के कार्य में लगी हैं उनमें कुछ तो बहुत ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वहन कर रही हैं।
अब बात करें उस पक्ष की, जिनको जागृत किया जा रहा है? आंदोलन से जुड़ी डा. वंदना श्रीवास्तव कहती हैं कि गंगा की निर्मलता और अविरलता लाने के लिए यह जन-जागरण अकेले पर्याप्त नहीं है। इसकी प्रमुख भूमिका हो सकती है, लेकिन वास्तविक सफलता के लिए सरकार, गंगाभक्त और आमजन को एक साथ बैठकर हल निकालना होगा। डा. वंदना कहती हैं कि आज संगम तट पर आने वाले हजारों लोग ऐसे हैं जो गंगा तट पर शौच, कुल्ली या गंदगी नहीं करते हैं। अपने साथ लाये पॉलिथिन या अन्य चीजों को अपने साथ वापस लेकर आते हैं। आज इस आंदोलन का प्रभाव है कि संगम क्षेत्र में पॉलिथिन का प्रयोग निषिद्ध है उसके उपयोग पर जुर्माने का आदेश है।
सचमुच डा. शुक्ल के इस जनजागरण का ही असर कहा जाएगा कि आज दर्जनों संस्थाएं ऐसी हैं जिनके सदस्य सप्ताह या पखवाड़े में गंगा तट पर आते हैं और वहां बिखरे फूल, पूजा सामग्री या पॉलिथिन को एकत्र कर उसे कूड़ा घर भिजवाते हैं। इनमें साधु-संतों की भी सक्रिय भागीदारी है।
गंगा प्रदूषण निवारण प्रदर्शनी के संक्षिप्त नाम से विख्यात इस जन-जागरण महाभियान में प्रयाग वि.वि. के तमाम उच्च पदों पर आसीन लोगों के साथ-साथ शोध छात्रों की अहम भूमिका है। मन में बार-बार सवाल उठ रहा था कि इस आज के भगीरथ को अब क्या चाहिए जो उसके संकल्प को पूरा कर दे? जवाब स्वत: मिल जाता है प्राचार्य कक्ष में एक ओर लगे पोस्टर पर इस गीत को पढ़कर “जब शक्ति आसुरी प्रबल बनी, अरु धरम संस्कृति थर्राये। तब संत जनों की रक्षा हित, हरि रूप विपुल धर कर आये। अब आज देवसरि विलख रही, धरती मां ने चीत्कारा है। अवतार धरो हे मधुसूदन, गंगा ने तुम्हें पुकारा है।” थ्
बच्चा-बच्चा भगीरथ बने
-डा. दीनानाथ शुक्ल “दीन”
डा. दीनानाथ शुक्ल “दीन” की पहचान गंगा प्रदूषण निवारण प्रदर्शनी वाले शुक्ला जी के रूप में होती है। धार्मिक प्रवृत्ति के शुक्ला जी कृषि वैज्ञानिक के साथ-साथ अच्छे लेखक हैं। धर्म विज्ञान, पर्यावरण, साहित्य पर उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। अब तक 54 शोध छात्रों के निदेशक रह चुके डा. शुक्ल के अधीन 18 लोगों ने गंगा, यमुना, प्रदूषण पर शोध कार्य किया है। गंगा पर उनकी चर्चित पुस्तक “होली गंगा, द लाइफ लाइन आफ इंडियन” (सात खंड) शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है। यहां प्रस्तुत हैं डा. शुक्ल से पाञ्चजन्य संवाददाता की हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
थ् गंगा में बढ़ते प्रदूषण के विरुद्ध जनजागरण की प्रेरणा किससे मिली?
द्र अध्ययनकाल से ही धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति रहा हूं। वैज्ञानिक होने के नाते गंगा में प्रदूषण बढ़ते देख स्वत: ही कुछ करने के लिए प्रेरित हुआ।
थ् गंगा के प्राकृतिक स्वरूप अविरल गंगा-निर्मल गंगा की प्राप्ति कैसे होगी?
द्र अविरलता और निर्मलता में पूरा सामंजस्य है, लेकिन हमें सबसे पहले अविरल गंगा के लिए टिहरी बांध को खत्म करना होगा, क्योंकि आज हरिद्वार के आगे गंगा का मूल जल तो जाता ही नहीं है।
थ् आप तो कृषि वैज्ञानिक हैं, जानते होंगे बांध या बैराज की उपयोगिता कृषि की सिंचाई या विद्युत उत्पादन के लिए है?
द्र हरित क्रांति के लिए पानी की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन हमारे पास विकल्प हैं। बरसात के पानी को गंगा की सहयोगी नदियों पर बांध बनाकर रोका जा सकता है, उसे ही सारे कार्यों के लिए उपयोग किया जा सकता है। गर्मियों में इस जल का शोधन करके गंगा में जल की मात्रा बढ़ाने के लिए उपयोग किया जा सकता है। विद्युत उत्पादन के स्थान पर हमें सौर ऊर्जा के विकल्प पर विचार करना चाहिए। इसी के साथ हमें “रेन वाटर हार्वेÏस्टग” पर भी गंभीरता से विचार करना होगा, ताकि दिन-प्रतिदिन घटते भूजल स्तर को रोका जा सके।
थ् और क्या कुछ किया जा सकता है?
द्र सरकार को इस दिशा में कुछ ठोस कार्रवाई करनी होगी। जैसे कल-कारखानों या गंदे नालों के जल को शोधन के बाद गंगा या अन्य नदियों में गिराया जाए, गंगा में जल-जीवों के शिकार को अपराध घोषित किया जाए। जल संग्रहण की ऐसी व्यवस्था हो कि गर्मी या जाड़े के अंत में जब गंगा में जल की कमी हो तो उसे समुचित मात्रा में जल मिल जाए।
थ् सरकार इस कार्य पर अच्छा पैसा व्यय कर रही है, लेकिन स्थिति लगातार बदतर क्यों हो रही है?
द्र साफ है कि सरकार का प्रयास ईमानदारी से नहीं हो रहा है। पांच सितारा होटलों में बैठकर गंगा में प्रदूषण नियंत्रण की योजना नहीं बनायी जा सकती है। आज कोई पूछने वाला नहीं है कि गंगा की रक्षा कैसे होगी?
थ् आखिर क्या विकल्प बचता है?
द्र अब समय आ गया है कि गंगा में आस्था रखने वाले सारे लोग आगे आएं, विशेष कर युवा वर्ग, तभी कुछ संभव है। आज आवश्यकता है कि देश का हर बच्चा भगीरथ बने, तभी गंगा को प्रदूषण से मुक्ति दिलाकर उसे पूर्व स्वरूप में लाया जा सकता है।
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