सभ्यता और संस्कृति का सनातन द्वंद्व
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सभ्यता और संस्कृति का सनातन द्वंद्व
देवेन्द्र स्वरूप
सचमुच, गौरैया अब नहीं दिखायी देती। बाईस साल पहले जब मैं इस फ्लैट में आया था तो गौरैया, तोते, कबूतर और कौवों के झुंड के झुंड आकाश में उड़ते, सामने वाले फ्लैटों की मुंडेरों पर बैठते, सीढ़ियों में घोंसले बनाकर गुटरगूं करते सुनायी-दिखायी देते थे। पर, मुझे पता ही नहीं चला कि कब वे गायब हो गए। यह सब इतना धीरे-धीरे, इतना चुपचाप हो गया कि कभी मेरा ध्यान इस ओर गया ही नहीं। नहीं गया, क्योंकि मेरी रोजमर्रा की जिंदगी में उनके रहने न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ा। अगर पिछले सप्ताह विश्व गौरैया दिवस न आता, दैनिक पत्रों में इस विषय पर समाचार और सम्पादकीय लेख न छपते तो शायद प्रकृति की गोद में हो रहा इतना बड़ा परिवर्तन मेरा ध्यान न खींच पाता। पर बात केवल गौरैया की नहीं है। पशु-पक्षियों की अनेक प्रजातियों के लुप्त होने का सत्य उभर रहा है। पर, अभी भी इतना संतोष किया जा सकता है कि, एक सर्वेक्षण के अनुसार, पक्षी सम्पदा में भारत विश्व में नौंवां स्थान रखता है। कई वर्षों से यह चर्चा चलती थी कि अमरीकी शहरों में गगन में पक्षियों का कलरव सुनाई नहीं पड़ता।
शहरीकरण का दुष्प्रभाव
समाचार पत्रों और टेलीविजन चैनलों पर बीच-बीच में मुम्बई जैसे शहरों में जंगली चीतों के घुस आने, हाथियों के उपद्रव के समाचारों को देख-सुनकर कौतुहल होता है। उससे इतना ही पता लगता है कि फैलते शहरीकरण ने पशुओं को बेघर कर दिया है जिससे पशु मानव संघर्ष की यह दु:स्थिति पैदा हुई है। आज विश्व जल दिवस मनाया जा रहा है। सभी समाचार पत्रों ने विश्वव्यापी जल संकट पर पाठकों की दृष्टि केन्द्रित करने के लिए विशेष सामग्री संयोजित की है। एक दैनिक पत्र “मेल टुडे” का ध्यान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की 16-18 मार्च को नागपुर में आयोजित बैठक में गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों के सूखने और उनकी गंदे नाले जैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पर चिंता प्रगट करने और इसके लिए केन्द्र व राज्य सरकारों की जलनीति में परिवर्तन की मांग उठाए जाने पर गया है। गंगा की धारा को अप्रतिहत बनाये रखने के लिए हरिद्वार में एक युवा संन्यासी स्वा.निगमानंद ने आमरण अनशन करके देहत्याग कर दिया, उन्होंने अवैध खनन को इसके लिए दोषी ठहराया था और अब आई.आई.टी. कानपुर के एक पूर्व प्रोफेसर स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद हिमालय की नदियों से बिजली उत्पादन के सब बांधों और उद्योगों को हटाने की मांग लेकर आमरण अनशन पर बैठे हैं। “पानीबाबा” के नाम से प्रसिद्ध राजेन्द्र सिंह ने भारत सरकार द्वारा गठित गंगा सफाई प्राधिकरण से त्यागपत्र देकर गंगा की वर्तमान दुर्दशा के लिए केन्द्र सरकार को दोषी ठहराया है। अभी इक्कीस मार्च को विश्व वानिकी दिवस पर वनसंपदा की रक्षा व वृक्षारोपण की आवश्यकता का स्मरण दिलाया गया।
ये सभी दिवस प्रकृति के क्षरण और पर्यावरण के नाश के वैश्विक संकट की ओर हमारा ध्यान खींचने की कोशिश करते हैं। यह क्रम अभी शुरू नहीं हुआ, अनेक वर्षों से चलता आ रहा है। पाञ्चजन्य के पिछले अंक में इस विशेषांक के विज्ञापन में बताया कि प्रकृति का विनाश इतना आगे बढ़ गया है कि उससे मानवजाति और सभ्यता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है। इस सत्य को बहुत कम शब्दों में किंतु समग्रता में चित्रित कर दिया गया है। यह विज्ञापन इस संकट के लिए विकास के वर्तमान पाश्चात्य माडल को उत्तरदायी मानता है और उससे बाहर निकलने का एकमात्र उपाय प्राचीन भारतीय जीवन दर्शन पर वापस लौटने को रेखांकित करता है।
सभ्यता क्या है?
विकास क्या है? सब ओर विकास की ही मांग क्यों उठ रही है? जीवन की अन्य सब प्रेरणाओं पर विकास को ही प्राथमिकता क्यों दी जा रही है? विकास के प्रतीक क्या हैं? घर-घर में बिजली पहुंचाने, प्रत्येक गांव-टोले को पक्की सड़क से जोड़ने का अर्थ क्या है? हर चुनाव में सड़क, बिजली, पानी का नारा ही क्यों उछलता है? हवा, पानी, रोटी तो मनुष्य शरीर की मूलभूत आवश्यकताएं हैं, जिसके बिना जीवन यात्रा चल ही नहीं सकती। पर, बिजली और सड़क का मानव जीवन और सभ्यता की यात्रा में क्या स्थान है? यहां यह समझना आवश्यक हो जाता है कि सभ्यता क्या है, संस्कृति क्या है… और दोनों का परस्पर रिश्ता क्या है? भारतीय जीवनदर्शन के अनुसार देहधारी मनुष्य में सुख और अमरता की कामना ही उसकी जीवन यात्रा की मुख्य प्रेरणाएं हैं। यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न पूछा कि, संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर का उत्तर था कि प्रतिक्षण प्राणियों को मरते देखकर भी मनुष्य में अमरता की कामना होना। यह कामना ही मनुष्य में शरीर सुख के लिए देश और काल पर विजय पाने की लालसा जगाती है और इस लालसा में से ही मनुष्य की सृजनात्मक प्रतिभा सुख के अनेकानेक नये-नये कृत्रिम साधनों का आविष्कार करती है और ये कृत्रिम साधन ही सभ्यता का ताना-बाना बुनते हैं। इन कृत्रिम साधनों को ही आधुनिक युग में टेक्नालॉजी कहा जाता है।
भारतीय परंपरा के अनुसार अंगिरा ऋषि के द्वारा अग्नि की खोज और किसी अज्ञात ऋषि के द्वारा पहिये की खोज टेक्नालॉजी के पहले वरदान कहे जा सकते हैं। उन्हीं में से आगे चलकर मानव शरीर की न्यूनतम आवश्यकताओं के रूप में रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्ति की दिशा में सभ्यता का रथ आगे बढ़ा। शरीर धारणा और देशकाल पर विजय प्राप्ति की कामना में से मनुष्य ने अपनी अर्थ और काम की जन्मजात सहज ऐषणाओं की पूर्ति के लिए नये नये साधनों की खोज की। यह खोज यात्रा मानव सभ्यता के आरंभ से चली आ रही है। इसी में अनेक शिल्पों और कलाओं का जन्म हुआ, ऊर्जा के नये नये स्रोत खोजे गये। प्राचीन काल में अट्ठारह शिल्पों और चौंसठ कलाओं की प्राचीन खोज का श्रेय भारत को दिया जाता था। अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य तक भारत से ही स्वाद, मनोरंजन और फैशन की वस्तुओं का निर्यात होता था, यूरोप का सोना-चांदी खिंचकर भारत चला आता था। भारत सोने की चिड़िया कहलाने लगा था। अट्ठारहवीं शती के अंत तक यूरोप ने भापशक्ति की खोज कर ली, बड़े कारखानों में भाप चालित यंत्रों की सहायता से वस्तुओं की उत्पादन प्रक्रिया आरंभ की। तब से मशीनी सभ्यता कुलांचें भरकर दौड़ रही है, उसकी गति उत्तरोत्तर तेज होती जा रही है; उपभोग, गति, संचार, मनोरंजन की नयी नयी नियामतें बाजार में फेंकती जा रही है। बिजली, पेट्रोल, डीजल, गैस, आणविक शक्ति जैसे ऊर्जा के साधनों पर ही आधुनिक टेक्नालॉजी और उपभोग प्रधान जीवनशैली का ताना-बाना टिका हुआ है। इसीलिए घर-घर में बिजली पहुंचाने की मांग उठ रही है। ऊर्जा के बिना कोई मशीन नहीं चल सकती, कोई वाहन नहीं चल सकता, कोई आधुनिक दीप नहीं जल सकता। बिजली के उत्पादन के लिए जल और कोयला चाहिए। उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन के लिए खनिज पदार्थ या लकड़ी जैसा कोई न कोई प्राकृतिक संसाधन चाहिए।
सुख की लालसा
एक ओर विश्व की जनसंख्या निरंतर बढ़ रही है। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में खंडित भारत, पाकिस्तान, और बंगलादेश को मिलाकर कुल जनसंख्या तीस करोड़ के लगभग थी तो अब अकेले खंडित भारत की जनसंख्या 121 करोड़ पार कर रही है। टेक्नालॉजी सुख के नये नये साधनों का आविष्कार कर रही है तो उसी के द्वारा आविष्कृत टेलीविजन और कम्प्यूटर इन साधनों का व्यापक प्रचार कर रहे हैं। उन साधनों को पाने की लालसा प्रत्येक अंत:करण में जागृत हो गयी है। आर्थिक और सामाजिक समता की सहज आकांक्षा के कारण सुख के सब साधन पाने का प्रत्येक व्यक्ति का समान अधिकार है, यह विचारधारा बलवती हो गयी है। इस विचारधारा के कारण गरीबी की व्याख्या देश और काल के अनुसार बदल रही है। अब वह रोटी, कपड़ा और मकान की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित नहीं रह गयी है। टेलीविजन, फ्रिज, स्वचालित तेजवाहन, मोबाइल, कम्प्यूटर और फ्लश वाले शौचालय तक फैलती जा रही है।
“मोबाइल या शौचालय?” को लेकर चल रही वर्तमान बहस को वर्तमान सभ्यता के अन्तद्र्वंद्व का प्रतीक कहा जा सकता है। एक ओर घर-घर में व्यक्ति-व्यक्ति तक मोबाइल पहुंचाने को विकास का मापदंड कहा जा रहा है। प्रतिमाह मोबाइलों की संख्या में वृद्धि के आंकड़ों को विकास का लक्षण माना जा रहा है। मोबाइल निर्माता कंपनियां गांवों तक मोबाइल पहुंचाने का कार्यक्रम घोषित कर रही हैं। दूसरी ओर सर्वेक्षण हो रहे हैं कि भारत में मोबाइलों की संख्या शौचालयों की संख्या से कहीं ज्यादा है, जबकि शौचालय मोबाइल की अपेक्षा ज्यादा जरूरी हैं। जरा, विकास के इन दो प्रतीकों का तुलनात्मक अध्ययन करें। मोबाइल सम्पर्क और संचार का साधन है। वह हमें एक-दूसरे से बात करने का अवसर देता है। वह संदेशवाहक है। दस बारह वर्ष पहले जब मोबाइल नहीं था तब भी जीवन का पहिया घूम रहा था। अब हरेक की जेब में मोबाइल, हरेक के कान पर मोबाइल लगा देखा जा सकता है। क्या इससे संसार में प्रेमभाव और सौहार्द बढ़ा है? क्या जीवन की गुणवत्ता बढ़ी है? निश्चय ही मोबाइल जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं- रोटी, कपड़ा और मकान- की पूर्ति नहीं करता, मोबाइल गेहूं नहीं उगा सकता। और मोबाइल की उत्पादन प्रक्रिया पर्यावरण को क्षति पहुंचाती है। हमारी प्राथमिकता क्या है- पर्यावरण की रक्षा या मोबाइल का अधिकाधिक उत्पादन व प्रसार? बताया जा रहा है कि मोबाइल के टावरों से होने वाला विकिरण ही बेचारी गौरैया के लिए प्राणघाती बन गया है, उसी के कारण गोरैया गायब हो गयी है।
भौतिकता का प्रदूषण
अब शौचालय की बात लें। मैं अपने बचपन की याद करता हूं। एक छोटे से कस्बे में रहता था। तब कस्बे के काफी लोग प्रात:काल उजाला फैलने से पहले कस्बे के बाहर दो-एक मील टहलकर खेतों या बागों में शौच के लिए जाते थे, घरों में शौचालय होने के बाद भी। घरों में शौचालयों की सफाई एक समस्या थी। उसके लिए मैला साफ करने वाले का व्यवसाय अनिवार्य आवश्यकता थी। उसके सामने अनेक घरों से एकत्र मल को फेंकने की समस्या थी। किंतु यह समस्या केवल कस्बों और शहरों तक सीमित थी। उनकी संख्या बहुत कम थी, ग्रामों का प्राधान्य था। देश गांवों में बसा था, कस्बों और शहरों में नहीं। इसीलिए गांधी जी ने ग्राम स्वराज्य का आग्रह किया था। अक्तूबर 1945 में नेहरू जी के समक्ष स्वाधीन भारत का चित्र प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा था कि “भारत शहरों में नहीं, गांवों में बसेगा, महलों में नहीं, झोपड़ियों में रहेगा।” नेहरू जी के नेतृत्व में भारत ने विकास का “गांधी मार्ग” नहीं अपनाया। वह औद्योगीकरण और शहरीकरण के रास्ते पर ही चला। स्वतंत्रता के 65 वर्षों में भारत इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ा है। अब प्रत्येक घर में शौचालय का निर्माण आवश्यक माना जा रहा है। किंतु साथ ही सिर पर मैला ढोने की पुरानी शहरी प्रथा को और “मेहतर कर्म” को समाप्त करने की मांग भी उतनी ही प्रबल होती जा रही है, जो उचित भी है। इसीलिए गांधी जी का कहना था कि यदि “मेहतर कर्म” के बिना हमारा जीवन नहीं चल सकता तो हम अपना मैला स्वयं क्यों न उठायें, और उन्होंने अपने आश्रमों में यह प्रयोग स्वयं पर लागू करने का उदाहरण भी प्रस्तुत किया। किंतु अब तो यह कल्पना भी कोई नहीं कर सकता। घर-घर में शौचालय हो और “मेहतर कर्म” न हम स्वयं करें, न कोई अलग वर्ग करे तो उसका विकल्प क्या रह जाता है सिवाय इसके कि हम पानी फेंकने की आधुनिक फ्लश प्रणाली को अपनायें? किंतु भारत की विशाल जनसंख्या और सुरसा की तरह मुंह फैलाते शहरीकरण में प्रत्येक घर में फ्लश प्रणाली वाले शौचालयों का क्या हमने कभी ठंडे दिमाग से आकलन किया है? क्या हमने कभी सोचा है कि नदियों के वर्तमान संकट का एक प्रमुख कारण फ्लश प्रणाली के शौचालय और औद्योगिक कचरा है। फ्लश के कारण दिन भर में कितना पानी बहाना पड़ता है और वह गंदा पानी नदियों में गिरता है। अभी मेरे एक समाजसेवी मित्र ने बताया कि उन्होंने हरिद्वार के एक आश्रम में अपने कार्यकत्र्ताओं का दस दिन का शिविर लगाया। उस आश्रम में 100 कमरे हैं। प्रत्येक कमरा फ्लश शौचालय की सुविधा से सम्पन्न है और वह आश्रम गंगा नदी के महज एक टापू पर बना है। मैंने पूछा कि उन शौचालयों का गंदा पानी कहां जाता है? उन्होंने बताया कि स्वाभाविक ही वह गंगा नदी में जाता होगा। मुझे धक्का लगा कि एक ओर तो वे स्वामी जी पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता की अपने प्रवचनों में भत्र्सना करते होंगे, दूसरी ओर वे उस सभ्यता द्वारा प्रदत्त फ्लश प्रणाली को अपनाकर गंगा की निर्मलता और पवित्रता को नष्ट करते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण गिनाये जा सकते हैं।
काल यात्रा के चरण
वस्तुत: यहां सभ्यता और संस्कृति का अन्तर्विरोध सामने आ जाता है। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय संस्कृति ने प्रकृति को माता के रूप में देखा और पूजा। गृहस्थ जीवन के दैनिक पंच महायज्ञों में भूत यज्ञ के अन्तर्गत वृक्षों को जलदान और देव यज्ञ के अन्तर्गत प्राकृतिक शक्तियों का सवद्र्धन पवित्र धर्म बताया गया। धर्म के दस लक्षणों में अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, शौच आदि नियमों को गिनाया गया। अर्थ और काम के संयमन को आंतरिक विकास का मार्ग बताया गया। पर हम यह भूल जाते हैं कि उस समय जनसंख्या बहुत थोड़ी थी, शरीर सुख के साधन बहुत सीमित थे। अत: प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने और पर्यावरण का विनाश करने की क्षमता बहुत सीमित थी। किंतु फिर भी अर्थ और काम की प्रवृत्तिजन्य ऐषणाओं के संयमन का द्वंद्व जीवन में निरंतर चलता रहा। पुराणों में प्रतिपादित युग सिद्धांत के अनुसार यह माना गया कि काल यात्रा ज्यों ज्यों आगे बढ़ेगी, सभ्यता के धरातल पर विकास होगा और संस्कृति के धरातल पर हृास। सतयुग से कलियुग की ओर कालयात्रा का यही मर्म है। इसीलिए पुराणों में कहा गया है कि सतयुग में धर्म (यानी संस्कृति) चार पैरों पर खड़ा रहता है, त्रेतायुग में तीन पैरों पर, द्वापर युग में दो पैरों पर और कलियुग में केवल एक पैर पर खड़ा रह जाता है। इसीलिए द्वापर के अंत में व्यास मुनि को कहना था कि “मैं हाथ उठा-उठा कर कहता हूं कि धर्म का पालन करने से “अर्थ” और “काम” की प्राप्ति भी होगी, पर मेरी बात कोई सुनता ही नहीं।” पुराणों ने इस सत्य का प्रतिपादन भी किया कि सभ्यता की यात्रा चक्रीय है। प्रत्येक चक्र पूरा होने पर आत्मनाश या प्रलय को आमंत्रित करता है। पुराण के पांच लक्षणों में “सर्ग अर्थात सृष्टि प्राकट्य” और “प्रतिसर्ग अर्थात प्रलय” को गिनाया गया है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी यह मानना शुरू कर दिया है कि सृष्टि की रचना कोई बाहर बैठा “गॉड” या ईश्वर नहीं करता, बल्कि सृष्टि रचना और संकुचन सृष्टि के भीतर विद्यमान एक स्वचालित प्रक्रिया है जो चक्रीय गति से चलती रहती है। प्राचीन भारतीय वाङमय का इस दृष्टि से अध्ययन बहुत आवश्यक है।
सवाल खड़ा है
क्या वर्तमान द्वंद्व विकास की पाश्चात्य अवधारणा और प्राचीन भारतीय जीवनदर्शन के बीच है? यदि ऐसा है तो क्यों अपने प्रवचनों में भारतीय जीवन दर्शन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करने वाले सब साधु-संतों के आश्रम में पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता द्वारा प्रदत्त सभी पर्यावरणघातक उपकरणों का बाहुल्य होता जा रहा है? क्यों संस्कृति को उड़ने के लिए मोबाइल, कम्प्यूटर, वीडियो, एयरकंडीशनर, फ्रिज और कार-विमान आवश्यक हो गये हैं? क्या इनके बिना जीवन की कल्पना की जा सकती है? टेक्नालॉजी हमें सुख के जो साधन देती है उनके उत्पादन की प्रक्रिया में ही पर्यावरण का विनाश निहित है। पर्यावरण का विनाश प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ देता है जिसके लक्षण हमें आये दिन भूकंप, बाढ़, तूफान, ओजोन गैस के अभाव और बढ़ते तापमान के रूप में दिखाई दे रहे हैं। इन लक्षणों के आधार पर वैज्ञानिक लोग जल्दी ही सृष्टि के विनाश की भविष्यवाणी कर रहे हैं। किसी भविष्यवाणी के गलत निकलने पर हम राहत की सांस लेते हैं और अपने अमरत्व की तैयारी शुरू कर देते हैं। विकास के पाश्चात्य माडल की निंदा करते समय हममें से प्रत्येक को अपने अंदर झांकना आवश्यक है, अपने से यह पूछना चाहिए कि क्या मैं इस विकास प्रक्रिया का त्याग कर ग्राम्य जीवन अपनाने को तैयार हूं? क्या ग्रामवासी शहरी सुविधाओं के लिए ललक रहे हैं? “ग्रामों की ओर लौट चलें” का गांधी जी का नारा क्यों ग्रामों के शहरीकरण का रूप धारण करता जा रहा है? आज क्यों उपभोक्ता वस्तुओं का बाजार गांवों को ही अपना निशाना बना रहा है? थ् (22.03.12)
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