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Mar 25, 2012, 12:00 am IST
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मुस्लिम बर्बरता के आघात सेसांस्कृतिक प्रदूषण का शिकार कश्मीर

दिंनाक: 25 Mar 2012 16:41:28

मुस्लिम बर्बरता के आघात से

सांस्कृतिक प्रदूषण  का शिकार कश्मीर

द्र  नरेन्द्र सहगल

भारत में पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर खतरा है, लेकिन सांस्कृतिक प्रदूषण का संकट उससे भी बड़ा है, जिसके द्वारा भारत के मन को कलुषित करने का दुष्प्रयास लगातार होता रहा है। कश्मीर उसका सबसे बड़ा केन्द्र बना, जहां मुस्लिम बर्बरता के माध्यम से हिन्दू संस्कृति की पहचान को रौंदने का खतरनाक खेल खेला गया। खुले हाथ से बांटने की भारतीय संस्कृति के वैशिष्ट्य में कश्मीर का महत्वपूर्ण सहभाग रहा है। बौद्ध दर्शन, शैव दर्शन, वैष्णव दर्शन इत्यादि भारतीय आध्यात्मिक सम्पदा को कश्मीर की भूमि ने पाला, पोसा और फिर इस पुष्पित- पल्लवित, अमर-अजर संस्कृति को समस्त मानवता के कल्याण हेतु विश्व में बिना किसी भेदभाव के बिखेर दिया। श्रीवर कृत राजतरंगिणी के भाष्य में डा.रघुनाथ सिंह कश्मीरियत के इस अद्भुत गुण के संबंध में लिखते हैं, “कश्मीर में विदेशियों एवं कश्मीरियों में भेद एवं प्रतिभेद नहीं था। यहां के राजाओं ने विदेशियों को आश्रय दिया है, सहयोग दिया है, आदर दिया है। वे अपने धर्म-कर्म के साथ फलते रहे। किसी सम्प्रदाय के प्रति द्वेष-वैर नहीं था। उनके व्यवहार के कारण उनसे घृणा नहीं थी। विधर्मी होने के कारण रहन-सहन भिन्न होने के कारण उनसे विरोध नहीं था, उनका अनादर नहीं था।”

कश्मीर में बौद्धमत एवं शैवमत चौदहवीं शताब्दी तक एक साथ थे, मान्यता प्राप्त करते चले आ रहे थे। उनमें परस्पर विरोध कभी नहीं हुआ, संघर्ष नहीं हुआ। बौद्ध संघ ने कश्मीर की राज व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं किया, उसके विरुद्ध षड्यंत्र नहीं किया। यहां एक जघन्य और अमानवीय इतिहास की शुरूआत इस्लाम द्वारा फैलाए गए सांस्कृतिक प्रदूषण से हुई। कश्मीर घाटी में अनेक मत-पंथ जन्मे और विकसित हुए। अनेक बार क्रांतियां भी हुईं। परंतु यह क्रांतियां पश्चिम की रक्तिम क्रांतियों से कोसों दूर थीं। पश्चिमी क्रांति का अर्थ हिंसा-बल प्रयोग द्वारा वर्तमान व्यवस्था को उखाड़कर नई व्यवस्था को जबरदस्ती थोप देने से है। परंतु भारत में क्रांति का अर्थ उस परिवर्तन से है जिससे किसी का अस्तित्व समाप्त न हो। उसमें वृद्धि हो, उसका विकास हो। नए एवं पुराने के समन्वय के साथ किया गया परिवर्तन किसी संघर्ष को जन्म नहीं देता। सब मतों का आदर, यही वह भारतीय जीवन मूल्य है जिसे कश्मीर की सीमाओं में कश्मीरियत कहा गया है।

बौद्ध मत का प्रभाव

कश्मीर घाटी में इस प्रकार के परिवर्तन अनेक बार हुए परंतु कभी भी अपना मत थोपने की प्रवृत्ति नहीं पनप सकी। इन मतों में परस्पर संघर्ष कभी नहीं हुआ। सर्वप्रथम कश्मीर में नील मुनि द्वारा नागपूजा पर आधारित दर्शन का विकास हुआ। पूजा का यह मार्ग निर्बाध गति से चला। सम्राट अशोक के समय ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के मध्य कश्मीर में बौद्ध मत का प्रवेश हुआ। त्याग में सुख है, सुख लिप्सा का अंत नहीं है और अहिंसा सर्वश्रेष्ठ मार्ग है इत्यादि बौद्ध सिद्धांतों का प्रचार हुआ। अशोक के समय में अनेक बौद्ध बिहार, मठ-मंदिरों का निर्माण हुआ। विश्व के अनेक देशों में कश्मीरी बौद्ध भिक्षु मानवता की प्यास बुझाने गए। कश्मीर में बौद्ध धर्म फैला, परंतु ब्राह्मण उससे अप्रभावित रहे और उन्होंने अपने कर्मकांड की पवित्रता बनाए रखी। ब्राह्मणों का समर्थन प्राप्त करने के लिए अशोक भी प्राचीन शिवालयों में पूजा करने जाते थे। (देखिए, राजतरंगिणी 1,102-107) बौद्ध धर्म कश्मीर में 638 ई.तक लुप्त हो गया। नौ शताब्दियों तक फैलने के बाद यह अनेक कबीलों में घुल मिल गया, लेकिन इसने सनातन धर्म में कोई परिवर्तन नहीं किया।

नागार्जुन की गणना प्राचीन भारत के महान दार्शनिकों में की जाती है। वह कश्मीर में सम्राट कनिष्क के शासनकाल में रहते थे। कनिष्क ने अश्वघोष और वसुमित्र नामक दो विद्वानों की अध्यक्षता में बौद्ध परिषद आयोजित की। परिषद हारवन (कश्मीर) में हुई, इसमें सम्पूर्ण भारत से 500 भिक्षुओं ने भाग लिया। अभिमन्यु के शासनकाल में (जो कनिष्क के बाद सिंहासन पर बैठा) नागार्जुन ने बौद्ध धर्म अपना लिया और उन्होंने ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में हरा दिया। ब्राह्मणों की ओर से कश्मीर के सुविख्यात वैयाकरण चन्द्राचार्य ने भाग लिया था। इस काल में कश्मीर ने अनेक विद्वान पैदा किए, जिन्होंने बौद्ध धर्म को दूर दूर तक फैला दिया। चिन साम्राज्य (384-417 ई.) के दौरान विख्यात कश्मीरी विद्वान कुमारजीव बुद्ध का संदेश लेकर चीन गए और चीनी सम्राटों द्वारा सम्मानित हुए। उन्हें चीन में बुद्ध के चार पुत्रों में से एक माना जाता है। अन्य कश्मीरी बौद्ध प्रचारकों में शाक्यश्री भद्र (405 ई.) रत्नावरा, श्याम भट्ट आदि शामिल हैं, जिन्होंने चीन और तिब्बत में अपनी श्रेष्ठता का सिक्का जमाया।

कश्मीरियत का आधार शैव दर्शन

अशोक के बाद उनके पुत्र जलौक के समय शैव मत का प्रवेश हुआ, परंतु इस परिवर्तन का साधन शास्त्रार्थ ही रहा। किसी बौद्ध विहार को तोड़ा नहीं गया। उनकी पूजा-पद्धति में व्यवधान नहीं डाला गया। जलौक स्वयं अहिंसक था। उसने राजकीय आदेश से पशु वध पर प्रतिबंध भी लगाया। कश्मीर शैव दर्शन का उद्गम स्थान है। कश्मीर का हिन्दू समाज 80 प्रतिशत शिव का ही उपासक है। शैव दर्शन कश्मीरी जीवन की आत्मा है। कर्मफल पर आधारित शैव दर्शन योग और त्याग को मानव जीवन के आधार स्तंभ मानता है, आत्मा को शाश्वत मानता है। शरीर मायाप्रेरित कर्म करता है और माया के नाश से मुक्ति मिलती है, संक्षेप में यही शैव दर्शन है।

प्राचीन समय में कश्मीरी विद्वान इसी दर्शन का अधिक अध्ययन करते थे। उनकी शिक्षा ने पूरे भारतवर्ष को प्रभावित किया। कहते हैं कि वैष्णव भक्त रामानुज भी शास्त्रार्थ के लिए मद्रास से कश्मीर तक की लम्बी यात्रा करने पर बाध्य हो गए। कश्मीर में शैव साहित्य के विशाल भंडार आज भी मिलते हैं। भगवान विष्णु और अन्य देवी देवताओं को भी यहां पूजा जाता था। अनेक लोग तांत्रिक या शक्ति मत के अनुयायी थे। प्रत्येक परिवार शारिका, राज्ञा, ज्वाला और बाला नामक चार देवियों में से एक या दो देवियों का अनन्य भक्त होता था। वे आज की ही भांति सनातन धर्म को मानते थे।

कश्मीर की धरती पर जन्मे और विकसित हुए इस शैव दर्शन में क्या नहीं है! मानव के सम्पूर्ण जीवन की कल्पना है, उसकी उन्नति का मार्ग है। इसमें शिव के स्वरूप में घर-गृहस्थी, कृषि, धर्मयुद्ध, गणतंत्र, योग, आत्मिक विकास, असंग्रह (त्याग), शस्त्र विद्या और समन्वय जैसे विषय और क्षेत्र समा गए हैं। विश्व में अन्यत्र कहां है ऐसा वैज्ञानिक दर्शन? इसी दर्शन के दर्शनार्थ संसार के प्रत्येक कोने से लोग कश्मीर आते रहे।

शिक्षा की वैश्विक पाठशाला

आनंद कौल अपनी पुस्तक, “द कश्मीरी पंडित” में लिखते हैं- “पुरातनकाल से ही काशी और कश्मीर शिक्षा के लिए विख्यात थे, परंतु कश्मीर काशी से आगे निकल गया। काशी के विद्वानों को अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए कश्मीर आना पड़ता था। आज भी काशी के लोग बच्चों को अक्षर ज्ञान समारोह के समय पवित्र जनेऊ सहित कश्मीर दिशा की ओर सात पग चलने को कहते हैं। यह पवित्र धागा कश्मीर जाने और वहां से लौटने का प्रतीक माना जाता है। कश्मीर की भूमि भारतीय संस्कृति की उद्गमस्थली रही है। पूरे विश्व में फैली भारतीय जीवन पद्धति के प्रचार- प्रसार में कश्मीर का एक विशेष योगदान है।”

कश्मीर संस्कृत का एक सशक्त केन्द्र रहा है। अनेक विदेशी इतिहासकार एवं विद्वान कश्मीर में शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक समझते थे, यहां आकर रहते थे। जैसा कि 631 तथा 759 ई. में कश्मीर आकर संस्कृत पढ़ने वाले चीनी यात्र ह्वेनसांग तथा ओऊकांग की कृतियों में लिखा है। कश्मीर शुरू से ही शिक्षा-दीक्षा का केन्द्र रहा है। कश्मीर के जाने-माने विद्वानों के साथ वर्षों तक पठन-पाठन के बिना किसी विद्वान को परिपक्व नहीं माना जाता था। ह्वेनसांग लिखते हैं, “कश्मीर के लोग शिक्षा प्रेमी और सुसंस्कृत हैं। कश्मीर में शिक्षा के लिए शताब्दियों से आदर और प्रतिष्ठा रही है।” अलबरूनी, जिन्होंने 1102 ई.में महमूद गजनवी के साथ पंजाब का भ्रमण किया था, लिखते हैं, “कश्मीर हिन्दू विद्वानों की सबसे बड़ी पाठशाला है। दूरस्थ और निकटस्थ देशों के लोग यहां संस्कृत सीखने आते हैं, और उनमें से अनेक लोग कश्मीर घाटी की प्रफुल्ल जलवायु व प्राकृतिक छटा से चमत्कृत होकर यहीं के होकर रह जाते हैं।”

कश्मीर घाटी में श्रीनगर से कुछ ही दूरी पर एक विशाल संस्कृत महाविद्यालय पंडित पुरुषोत्तम कौल के मार्गदर्शन में अनेक वर्षों तक चला। इस विद्यालय में भारत एवं विश्व के अनेक देशों से छात्र संस्कृत पढ़ने आते थे। यह विद्यालय पूर्णतया नि:शुल्क था। भारतीय संस्कृति के विद्या दान के पक्ष को उजागर करने वाला यह उदाहरण अतुलनीय है। श्री गुरुनानक देव जी के पुत्र और उदासीन पंथ के संस्थापक बाबा श्रीचंद जी ने भी इस महाविद्यालय में प्रशिक्षण प्राप्त किया था। मुगल राजकुमार मुहम्मद दाराशिकोह भी कश्मीर में संस्कृत पढ़ने आया था।

समन्वय का सशक्त धरातल

गगनचुंबी पर्वतों के पीछे, पड़ोसी देशों से कटा, दुर्गम एवं प्राकृतिक छटा से मनोहर कश्मीर को विदेशी आक्रमणकारियों का खतरा न था। इसीलिए दूसरे देश के लोग टिड्डी दल की तरह यहां दौड़े आए। अलबरूनी कहता है, “महमूद गजनवी ने जैसे ही पंजाब फतह किया, लोग कश्मीर, बनारस और ऐसे ही स्थानों की ओर भाग गए, जहां अभी तक हमारे हाथ नहीं पहुंचे थे।” पुराने वक्त में कश्मीर के चीन और मध्य एशिया के साथ संबंधों के प्राकृतिक प्रभाववश इन देशों से लोग कश्मीर आने लगे। कश्मीर एक उपजाऊ प्रदेश था और खाद्यान्न से मालामाल था, इसलिए आस-पास के अभावग्रस्त देशों के लोग इस ओर आकर्षित हुए। इन थके-हारे लोगों को कश्मीर की मनोरम वादियों ने अपनी ममतामयी गोद में समेट लिया। भूख से व्याकुल लोगों को धन-धान्य से भरपूर घाटी ने अपने अंक में आश्रय दिया और प्यासे लोगों को यहां की कल-कल बहती जलधाराओं ने शीतलता प्रदान की। अत: कश्मीर में सब जातियों, वर्गों, वर्णों और मतों से संबंधित लोग समन्वय के अद्भुत धरातल पर सुखपूर्वक अनेक शताब्दियों तक रहे। कहीं कोई वैमनस्य नहीं, दुर्भावना नहीं, झगड़ा नहीं। अपने-अपने मार्ग, पद्धतियों, मठ, मंदिर, गुरुद्वारे, पूजास्थल और यज्ञशालाएं, परंतु टकराव कहीं नहीं। परस्पर पूरक और सहयोगी के रूप में सभी ने कश्मीरियत (भारतीयता) के विकास और संवद्र्धन में अपना योगदान दिया।

पंडित अर्थात विद्वान

यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है कि यदि कश्मीर में सभी क्षेत्रों और वर्गों के लोग आकर बसे तो फिर सभी कश्मीरी पंडित ही क्यों? इस गहरे प्रश्न का साधारण-सा उत्तर कश्मीर की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत और यहां की जातीय पहचान के साथ जुड़ा हुआ है। प्रारंभ से ही कश्मीर “विद्वानों की भूमि” के नाम से प्रसिद्ध है। ऋषियों, मुनियों, मठ-मंदिरों, विद्यापीठों और आध्यात्मिक केन्द्रों की इस भूमि ने दिग्विजयी विद्वान उत्पन्न किए हैं। ये सब विद्वान पंडित कहलाए। ज्ञान रखने वाला और बांटने वाला “पंडित” होता है। अत: ज्ञान की भूमि कश्मीर की जातीय पहचान ही “पंडित” नाम से प्रसिद्ध हो गई। गंगा की पवित्र धारा में जो भी छोटे-बड़े नदी-नाले मिले, वे गंगा ही हो गए। “कश्मीरी” और “पंडित”-दोनों एकाकार होकर समानार्थी हो गए।

कश्मीरियत का यह भी एक अति उज्ज्वल और प्रेरणास्पद पक्ष है कि इस धरती ने जाति, बिरादरी इत्यादि बातों को गौण मानकर सभी को एकरस कर दिया। छोटे-बड़े, वनवासी- नगरवासी, पिछड़े और अनुसूचित-सबको विद्वान पंडित का अधिकार दिया है कश्मीर की धरती ने, इसीलिए तो यह भूमि स्वर्ग है। प्राचीनकाल से कश्मीर मेंे क्षत्रिय वंश यहां का प्रभावशाली वर्ग रहा है, शासक वर्ग रहा है। जिस तरह से शेष भारत में क्षत्रिय अपने नाम के साथ सिंह शब्द जोड़ते हैं, कश्मीर के क्षत्रिय अपने नाम के साथ आदित्य शब्द जोड़ते थे। प्रतापादित्य, ललितादित्य, वज्रादित्य, बालादित्य, रणादित्य, वेदादित्य और विक्रमादित्य इत्यादि। आदित्य सूर्य का संबोधन है, अत: यह वंश सूर्यवंशी क्षत्रिय था।

क्षत्रियों के अलावा भी अनेक वंश आज भी कश्मीर में हैं। भय और स्वार्थवश पंथांतरित हुए वे समाज आज भी वंश और गोत्र लिखना नहीं भूले हैं इसीलिए इनमें लोहर, डामर, राठौर, नायक, ठाकुर इत्यादि वंश प्रचलित हैं। कश्मीर घाटी के उत्तरी क्षेत्र में लोहर और दक्षिणी भाग में डामर क्षत्रिय वंशों का बाहुल्य है। कश्मीर में व्यापारी वर्ग (वैश्य) भी है। सोपुर क्षेत्र के त्रयंुबू और वोरा इसी वंश के हैं। विद्वता और क्षत्रियत्व का समय

कश्मीर के जातीय चरित्र में विद्वता और क्षत्रियत्व दोनों हैं। इस भूमि का अति प्रसिद्ध गोत्र भट्ट है। इसमें दोनों भावों का मिश्रण है। भट्ट का अर्थ है ब्राह्मण, शिक्षक, ज्ञान बांटने वाला, और प्राचीनकाल “भट्ट” जिसमें एक “ट” आता है का अर्थ है सैनिक, लड़ने वाला, रक्षक। अत: यह शब्द ब्राह्मण व क्षत्रिय दोनों के लिए प्रयोग में आने लगा। “पंडित” शब्द उस कश्मीरियत (भारतीयता) का सम्बोधन मात्र है जिसने लगातार चार हजार वर्षों तक संसार के विद्वानों को आकर्षित, प्रभावित और संस्कारित किया है। “पंडित” शब्द कश्मीर की विरासत है। यह शब्द कश्मीर के प्राचीन इतिहास, संस्कृत वांड्मय, पर्वतों, नदियों, हरी वादियों, शीतल घाटियों-इन सबका स्मृति मंदिर है, कश्मीर के प्राचीन वैभव का प्रतीक है,       प्रमाण है।

आज भले ही कश्मीर और कश्मीरियत पर विदेशी और विधर्मी रंग चढ़ाकर उसके प्राचीन और वास्तविक दैदीप्यमान स्वरूप को क्षत-विक्षत करने का जघन्य प्रयास किया जा रहा है, परंतु यह बात भगवान भास्कर के प्रकाश की तरह साफ है कि कश्मीर कभी हिन्दू ही था। कश्मीरियत कभी हिन्दू संस्कृति ही थी। आज जो लोग इस सांस्कृतिक धरोहर को समाप्त करने हेतु विदेशी और विधर्मी षड्यंत्रों के शिकंजे में आ चुके हैं, वे भी हिन्दू पूर्वजों की ही संतानें हैं।

हिन्दू संस्कृति के प्रतीक

सुदूर उत्तर में कश्मीर घाटी का सिरमौर है हिन्दूकुश पर्वत। नाम से ही पता चलता है इसकी धरोहर का। क्रांतिकारी देशभक्त अश्फाक उल्ला खां ने भावुक होकर कहा था, “मेरा हिन्दूकुश हुआ हिन्दूकश। (हिन्दूकश अर्थात हिन्दू की हत्या करने वाला) फिर इस हिन्दुकुश से प्रारंभ होती है कश्मीर की पर्वत श्रृंखला। ब्रह्मा शिखर, हरमुकुट पर्वत, महादेव पर्वत, गोपाड़ि पर्वत, चंदनवन, नौबंधन, नागपर्वत- सभी संस्कृत नाम हैं। कश्मीर को सतीसार का नाम देवताओं ने ही दिया था। सतीसार पर राज करने वाले नील नाग कश्मीर को बसाने वाले कश्यप ऋषि का पुत्र ही था। कल्हण अपनी राजतरंगिणी में सिंधु नदी को उत्तर गंगा का नाम देते हैं तो नीलमत पुराण में इसी को उत्तरमानस अर्थात गंगबल बताया गया है। इसी के नजदीक पड़ता है प्राचीन तीर्थस्थल नंदी क्षेत्र, आज यही नंदकोट कहलाता है। पास में ही कनकवाहिनी नदी का प्रवाह है जो अब विकृत नाम कनकई नदी धारण कर चुका है। झेलम ही वैदिक वितस्ता है। कृष्ण गंगा के किनारे स्थित है शारदा तीर्थ।

अन्य तीर्थों के नाम हैं अमरेश्वर (प्रसिद्ध अमरनाथ) सुरेश्वर, त्रिपुरेश्वर, हर्षेश्वर, ज्येष्ठेश्वर, शिवभूतेश्वर, शारदा तीर्थ, सरित्शिला- ये नाम किस धर्म दर्शन से जुड़े हुए हैं? कश्मीर के ये दर्रे देखिए, जिनके नाम हैं सिद्ध पथ (आज का बुडिल या सीडन दर्रा), पंचाल घर (पीर पंजाल), दुग्धधर (दुदुकंत), जोजीला दर्रा, चिंतापानी आदि। ये नाम किस इतिहास की ओर इशारा करते हैं? इसीलिए अंग्रेज इतिहासकार वर्नियर ने माना कि कश्मीर का नाम कश्यप ऋषि से जुड़ा है। मुस्लिम लेखक मलिक हैदर ने भी स्पष्ट लिखा है कि कश्मीर को बसाने वाले कश्यप ऋषि ही थे।

दिग्विजयी सांस्कृतिक धरोहर

इस ऐतिहासिक प्रयोगशाला में यह तथ्य सिद्ध हो गया है कि प्राचीन कश्मीर के हिन्दू राजाओं ने प्रत्येक प्राणी को ईश्वरकृत माना। इसलिए यहां राजसत्ता राजाओं की स्वार्थ सिद्धि का माध्यम नहीं बनी। मानवीय मूल्यों एवं सभ्यता का स्तर नहीं गिरा। कश्मीर में आज जितने भी भवनों के खंडहर मिलते हैं वे सब देवस्थानों, पाठशालाओं, मठों, विहारों के ही ध्वंसावशेष हैं। परंतु राजाओं के आमोद-प्रमोद और व्यक्तिगत विलास हेतु राजप्रसाद, राजभवन और स्त्रियों के हरम कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते। हिन्दू राजाओं ने अपने सुख के लिए जनता के सुख का कभी अपहरण नहीं किया। कश्मीर के राजाओं, संतों, महात्माओं ने चूंकि इस भूमि को सती देश माना, इसलिए कश्मीरी प्रजा को कष्ट देने का अर्थ भगवती सती को अपमानित करना माना गया। इसी धार्मिक अंकुश ने राजा को मर्यादित रहने के लिए प्रेरित किया। राजा निरंकुश नहीं बन सका। इस दर्शन शास्त्र ने प्रजाहित और राष्ट्रहित को सर्वोपरि बना दिया। राजा की शक्तियां मर्यादित रहीं।

कश्मीर के राजाओं ने भारत की दिग्विजयी परम्परा को सुरक्षित रखा और आगे बढ़ाया। जिस भी प्रदेश को जीता उसकी सत्ता वहीं के स्थानीय लोगों को सौंप दी। अपने उपनिवेश स्थापित नहीं किए। वहां की जीवन प्रणाली को नष्ट नहीं किया, देवस्थान नहीं तोड़े, मत परिवर्तित नहीं कराया। अपना तंत्र किसी पर जबरदस्ती नहीं थोपा। सम्राट ललितादित्य ने  अपने  शासनकाल में मध्य एशिया तक का प्रदेश जीता परंतु अपने जीवन को विलासमयी नहीं बनने दिया। कश्मीर ने सम्राट मेघवाहन जैसे दिग्विजयी सम्राट उत्पन्न किए, जिसकी सैन्य वाहिनियों ने आधे विश्व पर विजय प्राप्त की। विजित प्रदेशों को एक शर्त पर वापस किया कि वहां प्राणी हिंसा नहीं होगी। जीवधारियों को जीवन का अभयदान देकर वापस लौटा। प्राणी रक्षा हेतु स्वयं बलि को प्रस्तुत होने वाला मेघवाहन अपने आदर्श से कश्मीर को ऊंचा उठा गया। यही तो भारतीयता है।

सूफी षड्यंत्र का आगमन

चौदहवीं शताब्दी के आगमन के साथ कश्मीर की धरती पर सूफी मत का आगमन भी हुआ। हमदान (फारस) के एक सूफी संत सैय्यद अली हमदानी सन् 1372 में अपने 700 शिष्यों के साथ कश्मीर आए। बाद में अनेक सूफी कश्मीर आए। यद्यपि यह सूफी उपदेशक कश्मीर के लोगों को इस्लाम में मतांतरित करने के एकमात्र उद्देश्य से आए थे और अपने उद्देश्य में सफल भी रहे, तथापि इनके मजहबी उपदेशों को कश्मीर की जनता ने विशाल फुलवारी में एक और पुष्प के रूप में स्वीकार किया। कश्मीर की जनता ने इन सूफी उपदेशकों को अपने महापुरुषों की श्रेणी में स्थान दिया और इनके उपदेशों को कश्मीरियत का हिस्सा बना लिया। यह अलग बात है कि इन्हीं सूफी उपदेशकों ने हिन्दू समाज का जो मतांतरण इस्लाम में किया, वही आज कश्मीरियत पर उभरे कैंसर के फोड़े के रूप में रिस रहा है।

चौदहवीं शताब्दी के मध्य काल में कश्मीर में ऋषि परम्परा या कहें व्यवस्था का जन्म हुआ। संन्यासिनी लालदे और शेख नूरूद्दीन के उपदेशों और प्रयासों से यह आध्यात्मिक संगठन बना। इसमें ऋषियों की संख्या दो हजार के लगभग थी और ये गांव-गांव में फैले हुए थे। अबुल फजल नामक एक मुस्लिम लेखक, जो बाद में ऋषि व्यवस्था के अंग बन गए, ने कहा है, “कश्मीर में सर्वाधिक आदरणीय वर्ग ऋषियों का है। हालांकि उन्होंने पूजा के परम्परागत रीति-रिवाजों को नहीं त्यागा है, फिर भी वे सच्चे भक्त हैं। वे दुनिया की वस्तुओं की इच्छा नहीं रखते। लोगों के फायदे के लिए वे फलवाले वृक्ष लगाते हैं। वे मांस नहीं खाते हैं और विवाह नहीं करते हैं। इन ऋषियों ने कश्मीर की भूमि को वास्तव में स्वर्ग बना दिया है। इनके उपदेशों में स्वार्थ को स्थान नहीं है, व्यवहार में आडम्बर नहीं है और उद्देश्यों में कालिमा नहीं है।

कश्मीरियत अर्थात भारतीयता

अत: यह एक ठोस वास्तविकता है कि जिसे आज कश्मीरियत कहा जा रहा है वह भारतीयता से भिन्न कोई तत्व नहीं है। कश्मीरियत का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। भारतीय संस्कृति को कश्मीरियत, पंजाबीयत, असमीयत, बंगला, तमिल इत्यादि टुकड़ों में बांटकर क्षेत्रीय राष्ट्रवाद की कल्पना करने वालों के कारण ही हमारा एक समय का अति विशाल भारत आज भौगोलिक दृष्टि से अत्यंत लघु आकार का हो गया है। दुर्भाग्य से यह सांस्कृतिक प्रदूषण आज भी चल रहा है।

एक उपवन में अनेक पुष्प खिलते हैं। उनके सामूहिक अस्तित्व से ही उपवन का सौंदर्य निखरता है। यदि कोई पुष्प अपना स्वतंत्र अस्तित्व घोषित करके डाली से टूटकर उपवन से बाहर चला जाए तो उसका न केवल अपना अस्तित्व समाप्त होगा, अपितु वह उस उपवन को बर्बाद करने का पाप भी करेगा।

इसलिए कश्मीरियत किसी एक मजहब से नहीं बनी। यह कश्मीरियत वह भी नहीं जिसका आविर्भाव कश्मीर में केवल 600 वर्ष पूर्व हुआ। हाथ में शस्त्र उठाकर कश्मीरियत का स्वरूप बिगाड़ने वाले लोग जरा अपने कलेजे पर हाथ रखकर तो देखें कि वहां कौन- सा खून दौड़ रहा है। वह खून है हिन्दू पूर्वजों का। वही पूर्वज, जिन्होंने कश्मीरियत को अपने खून से सींचा है। नागपूजा मत, शैव मत, बौद्ध मत, वैष्णव मत, सूफी-मत और ऋषि मत-कश्मीर की धरती पर खिले, इन फूलों ने ही कश्मीरियत में सुगंध भरी है। सबका हिस्सा है इस कश्मीरियत में। और यह कश्मीरियत उस भारतीय संस्कृति का हिस्सा है जिसके अद्भुत स्वरूप को विश्व के कल्याणार्थ विधाता ने स्वयं अपने हाथों से गढ़ा है। विधर्मी षड्यंत्रों से इसकी रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए।थ्

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