स्वच्छ पर्यावरण, स्वस्थ जीवन
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स्वच्छ पर्यावरण, स्वस्थ जीवन

by
Mar 25, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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संवाद

दिंनाक: 25 Mar 2012 16:53:25

संवाद

बल्देव भाई शर्मा

श्री गुरुवाणी का संदेश “पवन गुरु पानी पिता, माता धरत महत”, विश्व में निरंतर गहराते पर्यावरण संकट का तोड़ है। इसका तात्पर्य है- प्रकृति के प्रति पूजन-अर्चन का भाव। लेकिन इसके विपरीत विकास और सुख की पाश्चात्य अवधारणा ने जिस तरह असीमित उपभोग की इच्छाओं को बढ़ाया, उसी का दुष्परिणाम है कि आज पूरा वायुमंडल प्रदूषण का दंश झेल रहा है। भारत में भी स्थिति बेहद चिंताजनक है। यहां वनक्षेत्र नष्ट हो रहे हैं, नदियां सूख गईं या जहरीली हो गईं, हवा में सांस लेने पर विषाक्तता पूरे शरीर में फैल रही है, खाद्यान्न व फलों का सेवन करने पर देह परिपुष्ट होने की बजाय अनेक तरह के रोगाणुओं का खतरा पनप रहा है। चिड़ियों की चहचहाहट, प्रकृति की हरीतिमा, स्वच्छ जल की अविरल धाराएं तो तेजी से बढ़ता शहरीकरण और औद्योगीकरण लील गया। पर्यावरण की कीमत पर होने वाले आर्थिक विकास को निरर्थक बताने वाली देश के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह की ट्विटर पर हाल ही में की गई टिप्पणी इन्हीं चिंताओं की ओर ध्यान खींचती है। “सेंटर फार साइंस एंड एंवायरनमेंट” की ताजा रपट बताती है कि देश की राजधानी दिल्ली में हवा इतनी जहरीली हो चुकी है कि इस कारण हर साल यहां तीन हजार लोगों की मौत हो जाती है। हवा में पांव पसारता जहरीला प्रदूषण कई गंभीर बीमारियों को जन्म दे रहा है और दिल्ली के करीब 55 प्रतिशत लोग इस प्रदूषण से ग्रस्त हैं। दिल्ली में यमुना का जल इतना प्रदूषित किंवा जहरीला हो चुका है कि उसके कारण तटीय क्षेत्र में उगाई जाने वाली सब्जियों तक में उसका असर देखने में आ रहा है। “द एनर्जी रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट” के नवीन अध्ययन में यह चिंताजनक बात सामने आई है कि नदी में बड़े पैमाने पर आ रहे औद्योगिक कचरे के कारण पानी में भारी तत्वों-निकल, मैगनीज व लेड-की मात्रा मानकों से कई गुना ज्यादा पाई गई। इसके असर से दिल्ली में लगभग 22 किमी. लम्बाई में यमुना किनारों से लगी भूमि इस कदर प्रदूषित हो गई है कि वहां उगाई जाने वाली सब्जियां जीवन के लिए खतरनाक रूप ले चुकी हैं। एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी सामने आया है कि इन सब्जियों के जरिए खून में विषैले तत्व चिंताजनक स्तर तक बढ़ रहे हैं। नमूनों की जांच बताती है कि 23 प्रतिशत बच्चों के लिए तो खतरा बेहद गंभीर है। इनके रक्त में खतरनाक तत्वों की मात्रा सामान्य से 8 गुना ज्यादा पाई गई है। आश्चर्य तो यह है कि 1993 से अब तक यमुना को स्वच्छ बनाने की मुहिम के अन्तर्गत 276 योजनाएं लागू की जा चुकी हैं और गत 18 वर्षों में करीब 1700 करोड़ रुपए यमुना की सफाई पर खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन धन तो खर्च हुआ परंतु यमुना में मानो अब भी कालिया नाग फन फैलाए है जिसके मर्दन के लिए न जाने कृष्ण कब आएंगे और यमुना प्रदूषण मुक्त होगी! अभी हाल ही में “यमुना एक्शन प्लान-3” के रूप में 1656 करोड़ की परियोजना केन्द्र सरकार ने मंजूर की है, पर परिणाम क्या निकलेगा, यह अभी भविष्य के गत्र्त में है। यही हाल कमोबेश गंगा का है। गंगा को प्रदूषण मुक्त किए जाने के नाम पर केन्द्र और राज्य सरकारों ने लूट मचाई हुई है, गंगा कार्ययोजना के दो चरण पूरे हो चुके हैं, लेकिन अरबों रुपये खर्च होने के बाद भी गंगा अविरलता और स्वच्छता के लिए तरस रही है। यहां तक कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में गठित राष्ट्रीय गंगा बेसिन प्राधिकरण भी कागजी साबित हो रहा है। गंगा और यमुना की यह दुर्दशा तो तब है जब इन्हें भारत में जीवनदायिनी माता के रूप में पूजा जाता है और ये दोनों करोड़ों भारतवासियों की आराध्य हैं। जब यही घोर उपेक्षा की शिकार हैं तो अन्य नदियों व जल स्रोतों की तो चिंता ही कौन करे!

देश में शुद्ध पेयजल की समस्या इतनी गंभीर होती जा रही है कि अब भूजल स्तर लगातार इतना नीचे गिर गया है कि भावी पीड़ियों को पेयजल की उपलब्धता कैसे होगी, वैज्ञानिकों के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है। प्रदूषित पेयजल की समस्या अधिकांश महानगर व नगरवासियों के लिए चिंता का गंभीर विषय बन गई है। सीवर लाइनों का रिसाव अलग पेयजल को प्रदूषित करता है। परिणामत: गैस, आंत्रशोध व पीलिया जैसी बीमारियों से लोग ग्रस्त हो रहे हैं। उधर, केन्द्र सरकार इस संबंध में अपनी जिम्मेदारियों से भागते हुए विश्व बैंक व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इशारे पर “राष्ट्रीय जलनीति-2012” के प्रारूप के जरिए प्रकृति की इस अनमोल विरासत का निजीकरण करने का षड्यंत्र रच रही है जो आम देशवासी के लिए जल की सहज उपलब्धता को ही दुष्कर बना देगा। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में तो किसान का अस्तित्व ही पानी पर टिका है, लेकिन यदि कृषि को भी पानी की सहज उपलब्धता नहीं हो पाई तो देश के भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। वैसे भी, अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका “नेचर” की एक अध्ययन रपट के अनुसार सामान्य से दो डिग्री अधिक तापमान ने पैदावार को 50 प्रतिशत तक कम कर दिया है। हरित क्रांति के नाम पर खेती में तेजी से बढ़ी रासायनिक खादों व कीटनाशकों की मात्रा ने पहले ही काफी कृषि भूमि को प्रदूषित कर बंजर बना दिया है। ऐसी फसलों को पानी की भी ज्यादा जरूरत रहती है और अनाप-शनाप लागत के बोझ से किसान के लिए खेती घाटे का सौदा होती जा रही है, उसके बोझ से लाखों किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए सो अलग। तेजी से हो रहे औद्योगीकरण व शहरीकरण ने जिस तरह कृषि व ग्राम जीवन व्यवस्था को चौपट किया है, इससे पर्यावरण के लिए खतरा ज्यादा बढ़ा है। यह भी पर्यावरण प्रदूषण का एक अलग रूप है कि रासायनिक खादों व कीटनाशकों का असर पशुओं के पेट से होता हुआ गिद्ध जैसे पर्यावरण संतुलन बनाए रखने वाले पक्षियों की प्रजाति के विनाश तक पहुंच गया है। बहरहाल वैश्विक स्तर पर तो जल संकट इतना गहरा गया है कि कहा जाने लगा है कि यदि तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो वह पानी के लिए होगा। पानी ही क्या, ऊर्जा संकट भी विकराल रूप में सामने खड़ा है। बिजली व पेट्रोलियम पदार्थों की उपलब्धता कम होना व उनकी कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी आमजन के दैनंदिन जीवन को निरंतर दुरूह बना रही है। इस तरह आज पर्यावरण संकट के दुष्चक्र में न केवल पूरी मानवता छटपटा रही है, बल्कि इस कारण जीव-जंतु, वनस्पतियों की कई प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं, नदी, वन और पहाड़ों के रूप में प्रकृति की अनमोल विरासत भी खतरे में है। यदि कहा जाए कि पूरी प्रकृति के अस्तित्व पर ही संकट मंडरा रहा है तो अतिशयोक्ति न होगी। मौसम में अनपेक्षित और अचानक बदलाव, असमय तेज बर्फबारी और बाढ़, लगातार बढ़ रहे भूकंपों और समुद्री प्रकोपों की प्रक्रिया और इन सबके कारण हो रहा महाविनाश प्रकृति की इसी बेचैनी का परिणाम है। यह विविध रूप में एक वैश्विक चिंता का विषय बन गया है, लेकिन इससे निपटने के लिए जहां सरकारों की रीति-नीति और जिम्मेदारीपूर्ण क्रियान्वयन की जरूरत है, वहीं जीवनशैली के संयमन की भी

आवश्यकता है।

पाश्चात्य चिंतन के भोगवाद ने व्यक्ति की लालसाओं को इस कदर बड़ा दिया कि वह धरती पर उपलब्ध सब कुछ, यहां तक कि पूरी प्रकृति को भी अपने असीमित उपभोग की वस्तु मानने लगा है और उसके बेहिसाब दोहन में लग गया। अपने सुखोपभोग के लिए वह कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार है। यह नशा उसे इस ओर सोचने ही नहीं देता कि अंतत: इसका दुष्परिणाम उसे ही भुगतना है। यह दुष्प्रवृत्ति “तेन त्यक्तेन् भुंजीथा” के जीवन दर्शन वाले भारतवर्ष में भी इस कदर घुसपैठ कर गई है कि लोग अपने मौज-मजे, व धनोपार्जन के लिए सड़कों से लेकर तीर्थस्थलों, नदी, पर्वतों तक को अपशिष्ट कचरे से पाट रहे हैं। गंगोत्री के पास तक ढाबों और पॉलीथिनों का जमघट तथा छोटे-छोटे नगरों तक में निजी वाहनों की बढ़ रही भीड़ के फलस्वरूप हवा में तैर रही कार्बन डाईआक्साइड व्यक्ति की बेलगाम लालसाओं को दर्शा रही है। जबकि भारतीय जीवन दर्शन में तो “जड़, चेतन, जल, जीव, नभ सकल राममय जान” कहकर संपूर्ण सृष्टि के सहअस्तित्व व उसकी पवित्रता को बनाए रखने की दूरगामी दृष्टि से पर्यावरण संरक्षण का मंत्र दिया गया। हमें यह याद रखना चाहिए कि प्रकृति हमारी आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकती है, लालसाओं को नहीं। यह संदेश गुंजाते हुए देश में अनेक लोग व संस्थाएं आज प्राणपण से प्रकृति व उसकी अनमोल देनों को बचाए रखने में जुटी हैं। लुप्त होती गौरैया की चिंता उ.प्र.के बिजनौर में कुछ विद्यार्थियों को बेचैन किए हुए है और वे गौरैया की चहचहाहट फिर से घर के आंगनों में गुंजाने के प्रयासों में जुटे हैं। निराशा के इस वातावरण में जगह-जगह ऐसी ही अनेक रोचक, प्रेरक व रोमांचक घटनाएं घट रही हैं जो न केवल विश्वास दिलाती हैं कि हम इस गहराते पर्यावरण संकट के बाहर निकलेंगे, बल्कि आह्वान भी करती हैं कि हम क्यों अभी तक दूसरों को कोसते हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। प्रदूषण केवल पर्यावरण तक ही नहीं है, पाश्चात्य मानस का प्रदूषण भारतीय मन को भी जकड़ने में लगा है और हमारे जीवनमूल्य, महापुरुष, शास्त्रोक्त विचार उस सांस्कृतिक प्रदूषण की चपेट में हैं। किसी भी राष्ट्र के लिए यह एक गंभीर खतरा है कि वहां की संस्कृति और जीवनदर्शन को षड्यंत्रपूर्वक चलन से बाहर कर दिया जाए। इसका दुष्परिणाम कश्मीर में हम भोग रहे हैं और सारे देश में इस सांस्कृतिक प्रदूषण का नासूर जगह-जगह रिस रहा है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राष्ट्रभक्त सामाजिक संगठन के द्वारा भारत के सांस्कृतिक अधिष्ठान की प्रतिष्ठापना का संकल्प देश के समाज जीवन में निरंतर प्रस्फुटित हो रहा है। इसे और बल मिले, इसके लिए देश की ऐसी सभी सामाजिक-धार्मिक सज्जन शक्तियों की एकजुटता आवश्यक है क्योंकि भारत की संस्कृति तो समूची मानवता किंवा संपूर्ण सृष्टि के लिए जीवनदायिनी है, उसे हर प्रकार के प्रदूषण से बचाना और उसका संरक्षण करना पूरे विश्व के कल्याण के लिए अभिप्रेत है। संघ निर्माता डा. केशव बलिराम हेडगेवार के जन्म दिवस वर्ष प्रतिपदा (नव सम्वत्सर) के उपलक्ष्य में इसी शुभ संकल्प को लेकर पाञ्चजन्य ने अपने सुधी पाठकों के लिए यह आयोजन किया है, जिसमें पर्यावरण समस्याओं का चिंतन तो है ही, उसके समाधान में जुटे अनेक लोगों की जीवंत कथाएं भी हैं। पर्यावरण व सांस्कृतिक संरक्षण के मूल मंत्र और भारतीय ऋषियों की इस शुभ संकल्पना के साथ यह अंक आप सबको समर्पित है-

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्।

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