उजाड़ पहाड़ बना हरा भरा जंगल
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उड़ीसा में यूं तो अनेक विद्यालय हैं लेकिन देवगढ़ जिले के गोड़भंगा गांव में स्थित विद्यालय कुछ खास है। इस विद्यालय में पढ़ने वाले छात्र न केवल अपने पाठ्यक्रम की पढ़ाई करते हैं बल्कि वे वृक्षों के बारे में भी जागरूक हैं। उनके प्रेरणास्रोत हैं शिक्षक रमाकांत प्रधान। रमाकांत प्रधान व उनके छात्रों ने जो कर दिखाया उस उदाहरण से सभी को प्रेरणा लेनी चाहिए। क्योंकि यह कार्य सरकार का वन विभाग भी नहीं कर पा रहा था। रमाकान्त व उनके छात्रों ने अपने स्कूल के सामने स्थित एक पहाड़, जिस पर पेड़ नहीं थे, को कुछ वर्षों में एक जंगल में परिवर्तित कर दिया। इस जंगल का नाम मां रंभादेवी जंगल है। रमाकांत प्रधान व उनके छात्रों द्वारा विकसित यह जंगल लगभग 100 एकड़ जमीन पर फैला हुआ है। इस जंगल की रखवाली भी रमाकांत इन छात्रों के सहयोग से करते हैं और आस-पास के गांवों के लोग भी सहयोग देते हैं।
देवगढ़ जिले के बारकोट प्रखण्ड से 32 किमी. दूर गोड़भंगा गांव में स्थित स्वास्तिक विद्यालय में दो कक्षाएं हैं। यहां छठी व सातवीं कक्षा की पढाई होती है। इस विद्यालय में लगभग 150 बच्चे अध्ययन करते हैं, जिसमें से 80 छात्रावास में रहते हैं। यहां कार्यरत शिक्षक रमाकांत प्रधान, उनके छात्रों व स्थानीय ग्रामवासियों ने 22 वर्षों के अथक परिश्रम से यह जंगल खड़ा किया है।
श्री प्रधान का मानना है कि जंगल के खत्म हो जाने से मनुष्य सहित सभी जीव-जंतु खत्म हो जाएंगे। इस कारण जंगल को बचाना जरूरी है। अपने गुजारे के लिए व्यक्ति कोई भी काम करे, लेकिन पौधारोपण व जंगल सुरक्षा न करने पर उसकी जिंदगी निरर्थक हो जाएगी।
अपनी योजना के बारे में श्री प्रधान बताते हैं कि 1993 के मार्च माह में उन्होंने तय किया कि इस उजड़ चुके जंगल को फिर से बसाएंगे तथा उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे। 15 मार्च को उन्होंने इस संबंध में छात्रों व पास के गांव गोड़भंगा, बारकोट व बाहाड़ापशी के लोगों के साथ बैठक की। सभी इस बात से एक मत थे कि यह कार्य होना चाहिए, और श्री प्रधान इस दिशा में कार्य करने लगे। कुछ दिनों में देखा गया कि गांव वाले इसे लेकर उदासीन हैं । इसके बाद उन्होंने तय किया कि वह स्वयं व अपने छात्रों के साथ इस जंगल की सुरक्षा का जिम्मा लेंगे। वे बताते हैं कि जंगल को क्षति पहुंचाने वाले व्यक्तियों के बारे में यदि कोई सूचना मिलती थी तो उनके विद्यालय के बच्चे अनुमति लेकर वहां दौड़े चले जाते थे तथा उन्हें हाथ जोड़कर पेड़ न काटने का अनुरोध करते थे। वे बताते हैं कि कई बार ऐसा होता था कि इन बच्चों की गुहार सुनकर पेड़ काटने वाले व्यक्ति मान जाते थे। अगर कोई व्यक्ति इससे भी नहीं मानता था तो फिर ये बच्चे विद्यालय में आकर उन्हें इसकी जानकारी देते थे। इसके बाद वे स्वयं जाकर उन्हें समझाते थे। श्री प्रधान बताते हैं कि शुरू-शुरू में आस-पास के गांवों के लोगों का इसके प्रति उदासीनता का भाव था, लेकिन अब स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है तथा जंगल की रखवाली करने वालों में गांववालों की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। थ् समन्वयनंद
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