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Mar 17, 2012, 12:00 am IST
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मध्य पृष्ठ

दिंनाक: 17 Mar 2012 18:12:47

करौली का लक्खी मेला

समरसता का संदेशवाहक

 बाल मुकुंद त्रिवेदी

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से एकादशी तक करौली के निकट कैला देवी का भव्य लक्खी मेला आयोजित किया जाता है। त्रिकूट पर्वत की घाटी, जहां कैला देवी का भव्य मंदिर है, हजारों लाखों भक्तों के कंठ स्वरों से गूंज उठती है। नर-नारी, बालक, युवा और वृद्ध आत्म-विभोर होकर मां कैला मैया का गुणगान करते नाच उठते हैं।

दिल्ली-मुम्बई रेल मार्ग पर गंगापुर सिटी नामक एक छोटा सा कस्बा है। यहीं से करौली के लिए बसें जाती हैं। अब तो करौली सड़क द्वारा राजस्थान के कई भागों से जुड़ गया है। करौली कस्बे से थोड़ी दूरी पर त्रिकूट पर्वत है। इसी पर्वत की चोटी पर कैलादेवी का लाल पत्थरों का भव्य मंदिर बना हुआ है। जैसा कि प्रत्येक लोकतीर्थ का अपना अलग इतिहास होता है, अपनी गौरव गाथा होती है, अपनी अलग किवंदतियां होती हैं। उसी प्रकार एक किवदंती यह भी है कि देवी की प्रतिमा का निर्माण राघवदास नामक राजा ने करवाया था। एक समय में त्रिकूट पर्वत क्षेत्र भयानक जंगलों से घिरा हुआ था। इस जंगल में नरकासुर नामक एक राक्षस रहता था। उसके आतंक से आसपास के सारे लोग परेशान थे। कैला देवी ने काली का रूप धारण कर नरकासुर का संहार इसी जंगल में किया था। तभी से आसपास के लोग कैला देवी के अनन्य उपासक बनकर उनका पूजन-अर्चन करने लगे। मीणा और गुर्जरों की इष्ट देवी कैला मैया बन गईं।

रहस्यमय इतिहास

कैला देवी की प्रतिमा कब बनी और किसने बनवाई, इस पर कोई एकमत नहीं है। यदुवंशी होने के कारण करौली राजवंश का संबंध भगवान श्रीकृष्ण से जोड़ा जाता है। कंस ने बासुदेव और देवकी को कारागृह में डाल दिया था। वहीं देवकी ने एक कन्या को जन्म दिया था। कंस ने जब उस नवजात कन्या को मारना चाहा तो वह आकाश की ओर उड़ गई। यह योगमाया जब भूमंडल पर अवतरित हुई तो विभिन्न नामों से पूजी जाने लगी। यही योगमाया करौली त्रिकूट पर्वत पर कैला देवी के नाम से प्रसिद्ध हुई। शायद यही कारण है कि करौली के यदुवंशी शासक इस देवी को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते चले आए हैं।

कैला मैया का दरबार

कैला मैया के भवन में आज भी हमारे देश की पावन संस्कृति के साक्षात् दर्शन होते हैं। प्राचीन काल में समाज द्वारा श्रद्धाभक्ति जागरण के लिए भजन, गायन, वादन और नृत्य द्वारा इष्ट देव को प्रसन्न किया जाता था, उसी परंपरा को यहां आज तक निभाया जा रहा है। कैला देवी जाने के लिए मीलों दूर घर से निकलते ही कैला देवी के लांगुरिया भक्ति गायन की शुरुआत हो जाती है, जिसमें ब्रजभूमि और ब्रज संस्कृति का सम्पूर्ण वैभव पूरे रसिक गौरव के साथ जीवंत हो उठता है।

भक्तों द्वारा विवाह, पुत्र-पुत्री, नाती होने की मनौती पूर्ति के लिए मैया के दरबार में 16 चूड़ियां, 2 दर्पण, 2 कंघी, 2 चुटीले, 2 काजल बिन्दी की डिबिया, नाखून पालिश, मेहंदी, रोली, चावल, कलावा, चमेली का तेल, फूलमाला आदि नारी श्रृंगार से सजे थाल के साथ ध्वजा एवं छड़ी मैया को अर्पित की जाती है। साधारण परिवेश में पली ग्रामीण महिलाएं और बड़े शहरों के संभ्रांत परिवारों की महिलाएं कैला मैया के आंगन में नक्कारों की धुन पर भाव-विभोर होकर नृत्य करने लग जाती हैं। लोकोत्सवी परंपरा में सदियों से जन जीवन के कंठ में रचा बसा यह लोकगीत बरबस यशोदा के नंद भवन में श्रीकृष्ण की छवि का स्मरण करा देता है।

जब मंदिर के द्वार पर स्त्रियों और पुरुषों के समूहों का मिलन होता है तो सारे भक्तजन भाव-विभोर होकर नाच उठते हैं, हजारों हाथ एक साथ हवा में उठ जाते हैं।

देवी के चमत्कार

उन दिनों चम्बल नदी के तट पर उरगिर पहाड़ पर यदुवंशी राजा चन्द्रसेन राज्य करता था। चन्द्रसेन भगवत भक्त एवं धर्मपरायण शासक था। एक बार उन्होंने अपने पुत्र को दौलताबाद पर विजय प्राप्त करने के लिए भेजा। युवराज गोपालदास चल पड़ा चलते-चलते रात हो गयी। रास्ता सूझ नहीं रहा था। अत: उस रात वहीं पड़ाव डाल दिया। भोजन के बाद युवराज विश्राम कर रहा था कि उसके कानों में कहीं दूर से  भजन, शंख और नगाड़े की ध्वनि सुनाई दी। युवराज उस ओर खिंचता चला गया। उसने देखा कि भक्त देवी की पूजा में तल्लीन हैं। मुख्य पुजारी थे केदारगिरि गोस्वामी। युवराज ने उनसे दक्षिण विजय की मनौती मांगी। देवी ने युवराज की मनौती पूरी की। यदुवंशी सेना जब दौलताबाद से लौटी तो उसके हाथ में विजय पताका फहरा रही थी।

लोगों को विश्वास हो गया कि देवी चमत्कारिक शक्ति है। युवराज ने घोषणा कर दी कि उनका वंश अब इसी देवी की उपासना करेगा। तभी से करौली नरेश परंपरागत रूप से कैला देवी को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते चले आ रहे हैं। लगभग दो सौ वर्ष बाद सम्वत् 1785 में देवी ने करौली नरेश को पुन: चमत्कार दिखाया। उस समय महाराजा गोपाल सिंह राज्य करते थे। चम्बल के पार उनके विरुद्ध विद्रोह खड़ा हो गया था। उसे दबाने के लिए महाराजा को स्वयं जाना पड़ा। वे देवी के सामने जा खड़े हुए और बोले “मां तू हमारे कुल की विजयश्री है, रण क्षेत्र में हमारे साथ रहना।” करौली नरेश गोपाल सिंह लौटे तो विजयश्री उन्हीं के हाथों में थी। तब सम्पूर्ण प्रजा और सेना खुशी से झूम उठी। तभी करौली नरेश ने कैला देवी के नये मंदिर भवन की नींव डाली। यात्रियों की सुविधाओं के लिए धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। तभी से करौली का प्रत्येक नरेश मंदिर और आसपास के क्षेत्र को सजाता- संवारता रहा है।

प्रत्येक वर्ष चैत्र मास का मेला लगभग 15 दिन तक चलता है। मेला कितना लोकप्रिय है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भक्त आज भी पन्द्रह दिन में दस लाख रुपये से ज्यादा के नारियल, सोने, चांदी के सिक्के एवं पोशाक देवी मां पर चढ़ा जाते हैं। कैला देवी के मेले में राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, गुजरात एवं अन्य प्रांतों से लाखों भक्त आते हैं और माता के दर्शन कर अपना जीवन धन्य मानते हैं। राजस्थान के लक्खी मेलों में कैला देवी का मेला अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह मेला न केवल धार्मिक श्रद्धा जागरण का प्रतीक है, वरन सामाजिक समरसता के जीवन दर्शन का संदेशवाहक भी है। द

सूचना

आप भी किसी प्रसिद्ध मन्दिर, धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थानों का विस्तृत विवरण हमें भेज सकते हैं। लेख तथ्यात्मक हो और उसके साथ अच्छे रंगीन चित्र हों। लेख के अन्त में अपना पूरा नाम, पता और दूरभाष क्रमांक भी अवश्य लिखें।

हमारा पता : सम्पादक, पाञ्चजन्य, संस्कृति भवन, देशबंधु गुप्ता मार्ग, झण्डेवालां, नई दिल्ली-110055

नए दौर की स्त्री को समझें

डा. प्रवेश सक्सेना

21 वीं सदी का सबसे बड़ा अभिशाप है संवेदनशीलता का लोप होते जाना। यूं तो मनुष्यमात्र संवेदनशील और भावुक होता है। उसकी “मानवीयता”, उसकी “इंसानियत” इसी संवेदनशीलता के कारण ही विकसित होती है। तभी वह दूसरों के सुख-दुख में सहानुभूति और सहभागिता रख पाता है।

स्त्री-पुरुष के संदर्भों में देखें तो स्त्री हमेशा से अधिक संवेदनशील व भावुक रही है। इसी कारण शायद उसे “अबला” भी माना जाने लगा। आज के समाज में तो भावुक होना, बड़ा दोष माना जाने लगा है। इसीलिए स्त्री की संवदेनशीलता का तिरस्कार कर उसके प्रति अपराध बढ़ रहे हैं। देखा जाए तो यह संवेदनशीलता ही है जिसके कारण एक स्त्री संतान का स्नेहपूर्वक लालन-पालन, घर-परिवार की देखभाल व सेवा कर पाती है। अत: उसकी भावुकता, उसकी संवेदनशीलता उपहास के योग्य बिल्कुल नहीं। और न ही वह “अबला” है। जीव विज्ञान की दृष्टि से तो स्त्री कई स्थितियों में पुरुष से अधिक शक्तिशाली है। प्रसव पीड़ा सहना, अपनी भूख, नींद, प्यास आदि की उपेक्षा कर संतान पालन करना और प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी घर-परिवार की गाड़ी को खींचते चलना- उसी के वश की बात है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में उसे आदि शक्ति, परा-प्रकृति का प्रतीक माना गया है। उसकी प्रकृति में ही “पाना” कम “देना” अधिक है। श्रम-सेवा, पालन-पोषण में स्वयं को खपा देने का क्रम लगातार चलता रहता है। उसके स्वभाव में करुणा, दया, ममता, सद्भावना, उदारता, आत्मीयता जैसी देववृत्तियां ही अधिक हैं। पाप, अपराध, स्वार्थ एवं क्रूर कर्मों में उसकी लिप्तता, कम से कम ही रहती है। कवीन्द्र रवीन्द्र की दृष्टि में नारी स्रष्टा की सर्वोत्तम कृति है। उसकी उच्चस्तरीय भावनाएं तथा आदर्शवादिता हमेशा सम्मान की पात्र रही है। केवल घर-परिवार के कार्य ही नहीं, समाज-सेवा या अध्यात्म के क्षेत्रों में भी वह अग्रणी रही है।

आधुनिक युग की स्त्री घर-बाहर दोनों के दायित्व कुशलता से निबाह रही है। यूं उसका योगदान तन, मन, धन तीनों प्रकार से है। यही नहीं बहुत से पूर्व में उसके लिए बंद द्वारों को उसकी सामथ्र्य ने खोल दिया है। आज वह व्यवसाय, राजनीति, सेना में सर्वत्र सक्रिय है। अत: स्वभावत: वह अधिक “मान” की अधिकारिणी है। हां, अपनी प्रमुख विशेषता को अर्थात् संवदेनशीलता को उसे बचाए रखना होगा, क्योंकि यही है जो उसे “मानवीय दिव्य गुणों” से परिपूर्ण रखती है। स्त्री के भावुक एवं संवदेनशील मन के विषय में ऋग्वेद का एक मंत्र है-

इन्द्रश्चिद् घा तदब्रवीत्

स्त्रिया आशस्यं मन:

उतो अह क्रतुं रघुम्।। 8.33.17

इन्द्र ने घोषणा की कि स्त्री का मन अशास्य है। उसकी कर्म-सामथ्र्य कोमल है। इन्द्र यहां शासन का प्रतीक है। शासन व्यवस्था को चाहिए कि वह घोषणा करे “स्त्री का मन स्वभाव से स्नेहपूर्ण एवं सुकोमल है। अत: उसको जोर-जबरदस्ती से शासित न किया जाए। शासकजन प्राय: कठोरता से शासनात्मक और अनुशासनात्मक कार्रवाइयां करते हैं। यह सब स्त्री के साथ नहीं होना चाहिए। उसके साथ सम्मानपूर्ण ढंग से व्यवहार होना चाहिए। कठोरता, रौबदाब, डांट-फटकार, गाली-गलौज, मारपीट, असत्कार-तिरस्कार से स्त्री के कोमल मस्तिष्क तथा हृदय को आघात पहुंचता है। हां, आधुनिकता के फेर में स्त्री को भी अपने सहज स्वाभाविक गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।

कुछ लोग मंत्र के अर्थ का अनर्थ करते हुए कहते हैं कि स्त्री को स्वयं शासन नहीं करना चाहिए। उसमें कर्मसामथ्र्य कठोर कार्यों के लिए नहीं होती, अत: उसका क्षेत्र घर-परिवार रहे। अधिक से अधिक अध्यापन या नर्सिंग के काम उसकी प्रकृति के अनुकूल हैं। परन्तु आज की स्त्री ने हर क्षेत्र में अपनी विजय पताका फहराई है। कुछ लोगों का मत है कि यदि व्यवसाय तथा राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ेगी तो हिंसा, आतंक तथा भ्रष्टाचार कम होंगे। 21वीं सदी की चुनौती यही है कि स्त्री-पुरुष दोनों संवदेनशील हों। आज भले ही अपवादस्वरूप हो पर स्त्रियां भी अपने सहज गुणों का त्याग कर अपराधजगत में सक्रिय हो रही हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।

जीवन का कोई भी क्षेत्र हो स्त्री अपनी संवेदनशीलता, भावुकता को बरकरार रखते हुए प्रेम प्रेरणा व आत्मीयता से परिवार, समाज व राष्ट्र के कार्य करे। हां, समाज, शासन एवं पुरुष से भी अपेक्षा है कि वह उसके प्रति “अशालीन व्यवहार” न करे। एक ओर चिरपुरातन वेद में स्त्री को “इन्द्राणी” का पद मिला जो सेना संचालन करती थी- कन्या को तेजस्विनी मानती थी, विजयिनी थी, तो दूसरी ओर घर-परिवार में नववधू “साम्राज्ञी” पद पर संस्थापित होती थी। परम्परा के इस उदात्तस्वरूप को स्वीकार कर ही हम आज स्त्री की संवेदनशीलता का सम्मान करें। यही श्रेयष्कर है।द

 

खान-पान

गाजर, गोभी, शलजम का खट्टा मीठा अचार

विधि: एक बड़े पतीले में पानी उबालें। गैस बन्द करके उसमें कटी हुई गाजर, गोभी, शलजम डाल दें। पांच मिनट के बाद उन्हें किसी (सूती) साफ कपड़े पर फैलाकर सूखा लें। सिरके और गुड़ को भी मिलाकर किसी कांच के बर्तन में रखें। अब एक कढ़ाई में तेल डालकर गैस पर रखें जब उसमें से धुआं निकलने लगे तो गैस बन्द करके उसमें अदरक व लहसुन (पीसा हुआ) डालकर भून लें, फिर उसमें राई, नमक, मिर्च, हल्दी तथा काली मिर्च मिलाकर अच्छी तरह मिलाएं। सभी सब्जियां भी मिला लें। ठंडा होने पर इस मिश्रण को कांच के मर्तबान में भरें और ऊ पर से सिरका और गुड़ का घोल डाल दें। दो दिन धूप लगने दें। स्वादिष्ट अचार तैयार है।

द प्रोमिला पोपली

सामग्री

फूलगोभी     आधा किलो

गाजर  आधा किलो

शलजम      आधा किलो

अदरक 50 ग्राम

लहसुन 50 ग्राम

सरसों का तेल 250 ग्राम

गुड़    250 ग्राम

राई पिसी     20 ग्राम

सिरका       (एक कप या 200 ग्राम)

काली मिर्च   1 चम्मच

नमक  2.5 चम्मच

हल्दी  2.5 चम्मच

कश्मीरी मिर्च 1 बड़ा चम्मच

जीवनशाला

जीवन अमूल्य है। दुर्गुण और कुसंस्कार या गलत आदतें जीवन में ऐसी दुर्गंध  उत्पन्न कर देते हैं कि हर कोई उस व्यक्ति से बचना चाहता है। जीवन को लगातार गुणों और संस्कारों से संवारना पड़ता है, तभी वह सबका प्रिय और प्रेरक बनता है। यहां हम इस स्तंभ में शिष्टाचार की कुछ छोटी-छोटी बातें बताएंगे जो आपके दैनिक जीवन में सुगंध बिखेर सकती हैं-

थ्     अगर आप किसी वरिष्ठ के कमरे में जाएं और उन्होंने आपको बैठने के लिए नहीं कहा है तो बैठने से पहले उनकी अनुमति अवश्य लें।

थ्     अगर आपके वरिष्ठ दूसरों से बात कर रहे हों तो उस दौरान आप एक अच्छे श्रोता की तरह उनकी बातें सुनें। इस सारी बातचीत में तभी बोलें, जब आपको बोलने के लिए कहा जाए या फिर आपके पास इससे जुड़ा कोई बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा या सूचना हो।

थ्     अपना इस्तेमाल किया चाय या कॉफी का कप वरिष्ठ की मेज पर कभी न छोड़ें। जाने से पहले उसे उठाकर किनारे टेबल पर रख दें।

थ्     जब भी आप वरिष्ठ के कमरे से बाहर निकलें तो जिस कुर्सी पर बैठे थे, उसे उसकी नियत जगह पर वापस रख दें।

थ्     जब भी आप वरिष्ठ के कमरे से बाहर निकलें तो वहां का दरवाजा वैसे ही खुला या बंद रहने दें, जिस स्थिति में वह आपको आते समय मिला था।

थ्     वरिष्ठ के साथ चलते समय अगर आप उनके प्रति अपना सम्मान दिखाना चाहते हैं तो हमेशा उनकी बांयी तरफ चलें। अगर तीन व्यक्ति एक साथ चल रहे हैं तो बीच वाली जगह वरिष्ठतम व्यक्ति के लिए छोड़ दें। साथ ही, अपने वरिष्ठ के साथ कदम मिला कर चलने की कोशिश करें।

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