सम्पादकीय
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सम्पादकीय
जीवित ही मृत के समान कौन है? जो पुरुषार्थहीन है।
-शंकराचार्य (प्रश्नोत्तरी, 5
उभरते संकेत
हाल में संपन्न 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों को 2014 के लोकसभा चुनावों की दृष्टि से “सेमी फाइनल” माना जा रहा था, क्योंकि इनसे उभरे संकेत आगामी लोकसभा चुनावों को प्रभावित करेंगे, विशेषकर उत्तर प्रदेश, जहां से होकर केन्द्र की सत्ता का रास्ता गुजरता है, का विधानसभा चुनाव बहुत अहम था। यहां तो कांग्रेस के “युवराज” और पार्टी जिन्हें भावी प्रधानमंत्री व नेहरू खानदान के तारणहार के रूप में देख रही है, ऐसे राहुल गांधी की कुव्वत और प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी थी। लंबे समय से राहुल गांधी “उ.प्र. मिशन 2012” की तैयारियों में जुटे थे, चुनाव के दौरान तो उन्होंने उ.प्र. में दिन-रात एक कर दिया। विरोधियों के प्रति उनकी आक्रोशभरी टिप्पणियां, बांहें चढ़ाते हुए उनका गुस्सा, यहां तक कि अपने प्रत्याशियों की सूची को एक पार्टी का घोषणा पत्र बताकर सरेआम फाड़ देना चर्चा के केन्द्र में रहा। चुनाव अभियान में लगे सभी दलों के नेताओं से ज्यादा 212 सभाएं और एक दर्जन से ज्यादा रोड शो उनके खाते में गए, लेकिन उ.प्र. के चुनाव परिणामों ने न केवल राहुल की “स्टार” छवि को ध्वस्त कर दिया, बल्कि कांग्रेस को गहरी निराशा में धकेल दिया। कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाले अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस की शर्मनाक हार, जहां कांग्रेस का “चमत्कारी” व्यक्तित्व कही जाने वाली प्रियंका गांधी ने भी पूरी ताकत झोंक दी थी, ने पार्टी को भारी सदमा पहुंचाया है। उ.प्र. में कांग्रेस की मजहबी राजनीति व चुनाव आयोग को उसके केन्द्रीय मंत्रियों की ओर से दी जाने वाली धमकियां भी किसी काम न आ सकीं। इतना ही नहीं, मुलायम सिंह का इतने बहुमत के साथ सत्ता में पहुंचना संप्रग सरकार के लिए भी बेहद मुश्किल भरा माना जा रहा है, क्योंकि ममता बनर्जी की धमकियों से परेशान संप्रग सरकार के लिए उ.प्र. में इतनी ताकतवर होकर उभरी समाजवादी पार्टी के 22 सांसद भी परेशानी का सबब बनकर खड़े हो सकते हैं, जबकि अब तक कई मौकों पर संप्रग सरकार की तारणहार रही सपा के साथ उ.प्र. विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस की तीखी कटुता पैदा हो जाना संप्रग सरकार के लिए तो चिंताजनक है ही, 2014 के लोकसभा चुनावों में भी इससे कांग्रेस की राह कठिन हो सकती है। मणिपुर में अवश्य सरकार गठित कर कांग्रेस राहत महसूस कर सकती है, लेकिन गोवा का उसके हाथों से निकल जाना और पंजाब में, जहां वह पूरी तरह सत्ता पाने के लिए आश्वस्त थी, औंधेमुंह गिरना कांग्रेस के लिए आगामी संकटों का संकेत है। उत्तराखण्ड में वह भाजपा से एक सीट ज्यादा पाकर सबसे बड़ी पार्टी होने का गुरूर पाल सकती है, लेकिन वहां अंतिम बाजी किसके हाथ रहेगी, अभी इसके लिए रस्साकसी जारी है।
उधर, भारतीय जनता पार्टी पंजाब की सत्ता में वापसी व गोवा में कांग्रेस से सत्ता छीनने के बाद संतोष व्यक्त कर सकती है। उत्तराखंड में भी कांग्रेस के साथ कांटे की लड़ाई में सत्ता के निकट पहुंचकर उसने अपनी ताकत दिखा दी है। लेकिन मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूरी, जिनके नाम पर वहां पार्टी ने विधानसभा चुनाव लड़ा, की दुर्भाग्यपूर्ण हार ने अवश्य पार्टी को एक टीस दे दी है। इस एक सीट की हार ने वहां समीकरण बड़े जटिल बना दिए हैं। हालांकि मुख्यमंत्री के रूप में खंडूरी की स्वच्छ छवि और प्रामाणिकता व भाजपा सरकार के सुशासन ने पार्टी की उम्मीदों को पूरे प्रदेश में परवान चढ़ाने में कोई कसर नहीं रखी। परंतु उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों ने पार्टी के सामने कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं, जिनका समाधान पार्टी नेतृत्व को समय रहते खोजना होगा, अन्यथा 2014 का लोकसभा चुनाव उसके लिए अग्निपथ बन सकता है, जिसे पार कर केन्द्रीय सत्ता तक पहुंचना भाजपा के लिए मुश्किल भरा होगा। उ.प्र. में जिस तरह मजहबी और जातिवादी समीकरणों में राजनीति उलझी है, भाजपा का व्यापक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण वहां उम्मीद जगाता है, लेकिन राज्य में भाजपा का कमजोर होना कट्टरवादी ताकतों को मजबूत बनाएगा जैसा कि इन चुनावों में सामने आया है। कांग्रेस की साढ़े चार से लेकर 9 प्रतिशत तक मुस्लिम आरक्षण की घोषणा को मुलायम सिंह 18 प्रतिशत तक ले गए, परिणामत: सबसे ज्यादा मुस्लिम वोट उनके पक्ष में गया, लेकिन यदि वे इस घोषणा को क्रियान्वित करेंगे तो राज्य में पूरी संवैधानिक व्यवस्था उलट-पलट हो जाएगी। उ.प्र. में मायावती के भ्रष्ट कुशासन से त्रस्त जनता जब विकल्प की तलाश में निकली तो उसे वही मुलायम सिंह नजर आए जिनके “गुण्डाराज” से आजिज आकर मायावती को 2007 में उसने सत्ता सौंपी थी। भारतीय जनता पार्टी एक सुदृढ़ सांगठनिक ढांचा और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की एक मजबूत श्रृंखला होने के बावजूद मतदाता की नजरों में क्यों नहीं चढ़ सकी? उ.प्र. में भाजपा को कार्यकर्ताओं से अधिक नेताओं की फौज के बारे में भी सोचना होगा।
कैसी विडम्बना है कि उ.प्र. में सपा के गुण्डाराज के खिलाफ “चढ़ गुण्डों की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर” का नारा देकर जनता में आश्वस्ति का भाव जगाकर बहुजन समाज पार्टी 2007 में सत्ता के केन्द्र में जा बैठी और कालांतर में वही बसपा भ्रष्ट व गुण्डाराज का पर्याय बन गई, “दलित” की बेटी के नाम पर मायावती स्वयं सामंतवाद का प्रतीक बन गईं, तब जनता मुलायम सिंह के गुण्डाराज को भूलकर सपा की ही ओर दौड़ पड़ी, जिसके बहुमत पाने की आहट ने ही पार्टी कार्यकर्ताओं की अराजकता को हवा दे दी और चुनाव परिणाम आते-आते संभल से लेकर आगरा-फिरोजाबाद होते हुए झांसी तक हुड़दंग और दहशत की लहर दौड़ गई, मानो सत्ता हाथों में आने से पहले ही सपा का राजनीतिक दंभ जाग गया हो। यह वही सपा है जिसने 2002 में सत्ता पाने से पहले जनता से उत्तर प्रदेश को “उत्तम प्रदेश” बनाने का वादा किया था, लेकिन 5 साल पूरे होते-होते पूरा प्रदेश गुंडई के गत्र्त में समा गया और विकास व सुशासन हाशिये पर धकेल दिया गया, जिसका परिणाम मुलायम सिंह को 2007 में सत्ता से बाहर होकर भुगतना पड़ा और अब अपनी वादाखिलाफी की सजा बसपा ने भुगती है। यदि मुलायम सिंह ने यह सबक याद रखा तो वह सत्ता को किसी जाति, मजहब या गुंडों की चेरी बनाने के बजाय पूरे राज्य में सुशासन व विकास को अपनी पहली प्राथमिकता में रखेंगे। 5 राज्यों के चुनाव परिणामों का एक संदेश यह भी है कि भारत का लोकतंत्र धीरे-धीरे परिपक्व हो रहा है और जनता अब सुशासन व विकास का महत्व समझने लगी है, वह वादाखिलाफी को माफ नहीं करती। परंतु यदि राजनीति मजहबी कट्टरवाद व जातिवाद की गिरफ्त में आती चली गई तो लोकतंत्र कहां टिकेगा?
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