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भारत की लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार की इस्लामाबाद यात्रा

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Mar 10, 2012, 12:00 am IST
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भारत की लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार की इस्लामाबाद यात्रा

दिंनाक: 10 Mar 2012 13:20:22

पाकिस्तान के समाचार पत्रों में बहुचर्चित रही

  मुजफ्फर हुसैन

भारत और पाकिस्तान के बीच यात्रा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। प्रत्येक सप्ताह नहीं तो हर महीने कोई न कोई नेता, पत्रकार, व्यापारी और दोनों देशों में रहने वाले सगे संबंधी एक देश से दूसरे देश में आया जाया करते हैं। जहां तक नेताओं, पत्रकारों और राजनयिकों का संबंध है उनकी संख्या पाकिस्तानियों की तुलना में हम भारतीयों से अधिक रहती है। इस परंपरा को निभाते हुए पिछले दिनों भारतीय लोकसभा की अध्यक्ष मीरा कुमार इस्लामाबाद पहुंचीं। जैसा होता आया है उसी अनुसार श्रीमती मीरा कुमार का भी वहां भावभीना स्वागत हुआ। मीरा कुमार के लिए स्वागत समारोह आयोजित किये गए। संयोग से पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली में स्पीकर के पद पर पाकिस्तान में भी एक महिला डाक्टर फेहमीदा मिर्जा बिराजमान हैं। इसलिए दोनों के साथ-साथ चित्र प्रकाशित हुए और दोनों ने एक दूसरे की जी भर कर प्रशंसा की। इन समाचारों का पाकिस्तान के अखबारों में छपना एक सामान्य बात थी। पाकिस्तान के विभिन्न अखबारों ने भारत की इस महिला स्पीकर पर अपने सम्पादकीय भी प्रकाशित किये। लाहौर से प्रकाशित दैनिक नवाए वक्त ने इस पर सम्पादकीय के साथ साथ अन्य सामग्री भी प्रकाशित की। इसी दैनिक ने बुशरा रहमान नामक एक महिला का आलेख भी प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक था मीरा तुम्हारी…उर्दू हमारी।

उर्दू की चर्चा

पत्र लिखता है कि पिछले सप्ताह श्रीमती मीरा कुमार द्वारा दिये गए उर्दू के भाषणों की पाकिस्तान में बड़ी चर्चा रही। कोई भी विदेशी मेहमान जब पाकिस्तान में आता है तो इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वे अपने सकारात्मक विचार प्रस्तुत करें ताकि दोनों देशों के बीच किसी प्रकार की कड़ुवाहट न फैले। लेखिका कहती है कि जब हम कभी भारत जाते हैं तो वहां इस प्रकार की चर्चा रहती है कि पाकिस्तान में बहुत अच्छी उर्दू बोली जाती है। यह भी कहा जाता है कि भारत में उर्दू की लोकप्रियता को कम करने के लिए उसमें अनेक हिन्दी और संस्कृत के शब्द मिला दिये जाते हैं। उसमें इतने कठिन शब्दों की भरमार कर दी जाती है कि वह न तो हिन्दी रहती है और न ही उर्दू। लेखिका का कहना है कि इसके बावजूद हमें भारत की फिल्म 'इंडिस्ट्री' वालों का आभारी रहना चाहिए कि भले ही वे उर्दू को हिन्दी बतलाते रहें लेकिन भारत में वे ही फिल्में सफल होती हैं जिनमें उर्दू फर्राटे से बोली जाती है। भारतीय संगीत उर्दू के बिना जीवित नहीं रह सकता। इसके कारण वे फिल्मों के गीत हों या फिर उसके संवाद वे उर्दू के बिना प्रभावी नहीं बन सकते हैं। लेखिका कहती है कि एक और बात के लिए भी हमें भारतीय फिल्मों का आभारी रहना चाहिए कि जब कभी भी वे अपनी फिल्मों में मुस्लिम समाज पर आधारित कोई फिल्म बनाते हैं या मुस्लिम घराने की कोई लड़की बतलाते हैं तो मुस्लिम महिला वाला ही वस्त्र होता है। मुस्लिम लड़की को उसकी वेशभूषा से पहचाना जा सकता है। यानी पूरी आस्तीन का कुर्त्ता और सर पर दुपट्टा होता है। यदि उसे बुर्का न पहनाया जाए तो आप फिल्म में हिन्दू लड़की और मुसलमान लड़की को उसकी वेशभूषा से पहचान सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि मुस्लिम संस्कृति में वेशभूषा धारण किये हुए कोई भी लड़की प्रिय लगती है। अनेक उदाहरण मैं दे सकूंगी। आप वीरजारा को ही लें जिसमें रानी मुखर्जी ने एक मुस्लिम वकील महिला की भूमिका अदा की है। उसके एकदम सादा और गरिमापूर्वक वस्त्रों को याद करें। लेखिका कहती है कि यह सारी बातें करते हुए मैं एक दर्द में डूब जाती हूं। जब मैं पाकिस्तान समाज के भीतर भले परिवार की लड़कियों को विवाह समारोह में अत्यंत भद्दे एवं असंस्कारी कपड़ों में देखती हूं। लेखिका ने प्रश्न किया है कि पाकिस्तान के 'प्राइवेट चैनल' और 'मोर्निंग शो' में लड़कियां दिखलाई पड़ती हैं। क्या उनका लालन-पालन पाकिस्तान की माताओं ने किया है? आश्चर्य की बात है कि भारतीय फिल्मों में दुपट्टा मात्र मुस्लिम महिलाओं के प्रतीक के रूप में दिखलाया जाता है। अब तो पाकिस्तान की महिलाएं भी दुपट्टे की चिंता नहीं करती हैं। लेखिका कहती है कि उसे एक बार अमरीका से फोन आया जिस पर उन्होंने कहा कि हम अमरीका में लाखों रुपया खर्च करके पाकिस्तानी चैनल खरीदते हैं ताकि अपने देश के साथ जुड़े रहें। लेकिन जब पाकिस्तान के लड़के-लड़कियों को भद्दे और वाहियात कपड़ों में देखते हैं तो माथा शर्म से झुक जाता है। लेखिका कहती है मेरा आज का विषय तो मीरा कुमार है जो उर्दू भाषा के लिए अपना अहसास दिलाकर चली गईं।

मानसिकता का फर्क

भारतीयों को मालूम है कि पाकिस्तानियों की भाषा उर्दू है और वे अपने भाषणों में उर्दू के अश्आरों का भारी भरकम उपयोग करते रहते हैं। मीरा कुमार भी अपने सम्बोधन में जान पैदा करने के लिए अनेक उर्दू कवियों के अश्आरों का उपयोग करती रहीं। उनका स्वर अत्यंत मधुर और दिलेराना था। उनकी मुस्कुराहट ऐसी लग रही थी मानो किसी ने उस पर चांदी का वरक लगा दिया हो। पुरानी कहावत है कि जब 'रूस' में जाओ तो वही करो जो 'रूसी' करते हैं। लाहौर में आकर श्रीमती मीरा कुमार दाता दरबार भी गई। दाता की इस नगरी में उन्हें कमान भेंट की गई। उन्हें यह भी पता है कि संतों की कब्रों पर सिर को ढककर सिर झुकाना चाहिए। लेखिका ने व्यंग करते हुए कहा कि उनके देश में कोई उन पर फतवा जारी नहीं करेगा। धर्म का सम्मान धर्म परिवर्तन नहीं हो जाता है। कुछ वर्ष पूर्व राष्ट्रीय असेम्बली की एक सदस्या इन्हीं भावना के साथ अल्पसंख्यकों के एक त्योहार के अवसर पर लाहौर के एक मंदिर में मुख्य अतिथि बनकर चली गई। उन पर साम्प्रदायिक लोगों ने पथराव किया। किसी तरह से उनकी जान बची।

लेखिका कहती है कि हमने तो सोनिया गांधी को भी चादर ओढ़कर निजामुद्दीन ओलिया की दरबार में नंगे पांव बड़ी आस्था के साथ जाते हुए देखा है। यदि कोई यह कहे कि यह तो सब अल्पसंख्यक मुस्लिमों को खुश करने के लिए है तो भी अच्छा है और 'डिप्लोमेसी' का हिस्सा है। फिर पाकिस्तान में इसे क्यों बुरा माना है?

लेखिका आगे लिखती है कि बहुत सारे लोगों ने यह सवाल उठाया कि पाकिस्तान की स्पीकर ने उर्दू में भाषण क्यों नहीं दिया? बेचारे बहुत से लोगों को यह भी मालूम नहीं कि राष्ट्रीय असेम्बली की कार्यवाही भी अंग्रेजी में ही होती है। सरकारी दफ्तरों में पत्रों का आवागमन भी अंग्रेजी में ही होता है। बहुत सारे पाकिस्तान के मंत्री अंग्रेजी में ही बोलने की कोशिश करते हैं। यद्यपि पाकिस्तान में उर्दू प्राथमिक शाला से ही पढ़ाई जाती है। जो नेता उर्दू में धुआंधार भाषण नहीं करता है उसे जनता स्वीकार ही नहीं करती और न ही वोट देती है। इसलिए पाकिस्तान के हर नेता को उर्दू सीखनी ही पड़ती है। लेखिका अपने पाठकों से कहती है कि आप थोड़ा बाहर निकल कर देखिए कि बाहर दुकानों पर लगे बोर्ड अंग्रेजी में ही हैं। उनकी बिल बुक भी अंग्रेजी में है। बेचारे जो अनपढ़ दुकानदार हैं वे भी अपने बोर्ड अंग्रेजी में ही लिखवाते हैं। सड़कें और चौराहे देखें, हर जगह आप को गुलामी के चिन्ह ही दिखलाई पड़ेंगे। लेखिका का कहना है कि मैंने बहुत सारे देश देखें हैं जिनमें प्रवेश करते ही आपको लगेगा कि आप किसी नए देश में हैं। अरबस्तान में अरबी में लिखे होते हैं। पर्यटकों के लिए भले ही कुछ संकेत अंग्रेजी में दिये हुए हों। जापान, चीन, इंडोनेशिया, कोरिया फ्रांस, जर्मनी कहीं भी चले जाइये वहां की भाषा में ही बोर्ड लिखे हुए होंगे। मजबूरी में अंग्रेजी शब्दों का बोला या लिखा जाना कोई पाप नहीं है। लेकिन अपनी राष्ट्रीयता को उजागर करने के लिए वे केवल और केवल अपनी ही भाषा बोलते और लिखते हैं। लेकिन पाकिस्तान में तो शादी का कार्ड भी अंग्रेजी में ही छापा जाता है। मानो यह उनके लिए राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक है। जब कोई पाकिस्तानी नेता भारत जाता है तो वहां भी अंग्रेजी में ही अपना भाषण झाड़ता है। प्रतिदिन किसी न किसी चैनल पर अमरीका की गुलामी अथवा आर्थिक बंधनों का आक्रोश अंग्रेजी में ही व्यक्त किया जाता है। यदि आपका मानस गुलाम है, भाषा गुलाम है और संस्कृति गुलाम है तो फिर आप अपनी आर्थिक गुलामी किस प्रकार दूर कर सकते हैं? सम्पूर्ण भारत उर्दू समझता है लेकिन पाकिस्तानी नेता उन्हें अंग्रेजी में ही समझाने में अपनी शानो शौकत समझते हैं। लेखिका कहती है मैं अंग्रेजी की विरोधी नहीं हूं लेकिन अपनी भाषा के साथ दासी जैसा व्यवहार क्यों हो?

मीरा जी ने दिलायी याद

बुशरा रहमान लिखती है कि मैं मीरा कुमार से नहीं मिल सकी, वरना मैं उनका आभार व्यक्त करती। यदि वे मिलतीं तो मैं उनसे कहती कि आप निश्चित ही सफल राजनयिक हैं। मीरा जी हम को याद दिलाकर जा रही है कि उर्दू हमारी राष्ट्रभाषा है और उसकी मधुरता ने दुनिया को जीत लिया है। जो समाज अपनी भाषा में अपनी बात नहीं कह सकता है वह बहुत जल्द पागलपन की सांस लेने लगता है। लेखिका ने अपनी चार पंक्तियों से अपने आलेख की समाप्ति की है।

रोती रहेगी हर दम कौमी जबां हमारी

लाचारों बे अमां है कौमी जबां हमारी

अफरंग की जबां से ये दिल जलाएं तेरा

हक अपना मांगती है ये बूढ़ी मां हमारी।

बुशरा रहमान ने अपनी राष्ट्रभाषा के लिए जो कुछ लिखा है उसके संबंध में तो उनका देश ही जाने लेकिन भारतीय फिल्मों की सफलता केवल उर्दू शब्दों के कारण ही है यह कहना ठीक नहीं लगता। यदि है तो वे बतलाएं कि पिया, प्रेम, परदेस, संदेशा, चुनरी, बसंत, मोहे, तोहे, लगन, सैयां, बय्यां, दर्पण, लाज, आदि ढेरों शब्द क्या ब्रज, अवधि, मालवी, भोजपुरी, हरियाणनवी और असंख्या बोलियां जो भारत के दूर दराज क्षेत्रों में बोली जाती है उनके नहीं हैं। वास्तविकता तो यह है कि हिन्दी को अरबी लिपि में अमीर खुसरो ने लिखकर ही उर्दू को जन्म दिया। उर्दू शब्द तुर्की के ओरडो से बना है जिसका अर्थ होता है सेना। जिस तरह से सेना की टुकड़ी में असंख्य प्रकार की जाति और धर्म के लोग होते हैं उसी प्रकार उर्दू में भी अलग-अलग भाषाओं के असंख्य शब्द हैं। तुर्की में ओरडो नगर आज भी मानचित्र में देखा जा सकता है। अपनी भाषा के लिए बुशरा रहमान ने जो कुछ लिखा है वैसा ही दुख करोड़ों भारतीयों का हिन्दी के लिए भी है।

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