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होली के उल्लास पर न हो हालात का तुषारापात

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Mar 3, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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चर्चा सत्र

दिंनाक: 03 Mar 2012 16:38:31

चर्चा सत्र

हृदयनारायण दीक्षित

भारत का मन होली के उल्लास में नाच उठने को मचल रहा है, लेकिन देश के मौजूदा हालात उस उल्लास पर तुषारापात की तरह टूटे पड़ रहे हैं। महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिक विद्रूपताएं, जिहादी आतंकवाद की दहशत और इन सब पर नियंत्रण करने में सरकार की विफलता ने देशवासियों का मन बेचैन कर रखा है। लेकिन होली तो भारत के मन का उल्लास है। होली वसंतोत्सवों का चरम है और वसन्त है प्रकृति का अपनी परिपूर्णता में खिलना। बसंत परिपूर्ण प्राकृतिक तरुणाई है। भारतीय संस्कृति के उत्सवों की अन्त:प्रेरणा यह भरी-पूरी प्रकृति है।

प्रकृति की अंग-अंग उमंग का नाम है बसंत। बसंत इसीलिए ऋतु राज है। प्रकृति के सभी रूप रसवन्त हो जाते हैं। नदियां नर्तन करती हैं, झीलें गीत गाती हैं, वनस्पतियां झूम उठती हैं। शरद् और ग्रीष्म गलमिलौव्वल करते हैं। पक्षी मस्त-मस्त गीत गाते हैं। वे ऋत बंधन में रहते हैं। लेकिन बसंत और होली में शास्त्रीयता का कोई बंधन नहीं। आनंद का अतिरेक है। मनुष्य की तरह समाज का भी मूल-उत्स होता है। समाज का मूल-उत्स संस्कृति है।

भारत का मधु रस

होली भारत का मधुरस है, मधुछन्द है, सामगान है, लोकनृत्य है और लोक संस्कृति का चरम है। होली का उल्लास प्रायोजित नहीं होता। बाजार से जुड़े उत्सव विषाद हैं और भारतीय उत्सव प्रकृति का प्रसाद। फिर होली तो महाप्रसाद है। होली पूरे बरस भर की मधु ऊर्जा है। परिपूर्ण भौतिक उत्सव है। नेह निमंत्रण है कि “आओ चढ़ा लें रंग देशी कि रंग परदेशी उतर जाये।” चहुंदिश, दिक्काल, लाल गुलाल, सबके गाल।

होली मधु विद्या का मधु प्रसाद है। यह भारत का मन समवेत् करती है। यह लोक-महोत्सव है। भारत की भू-सांस्कृतिक आस्था का नर्तन, दर्शन-दिग्दर्शन है। यहां लोक अभिव्यक्ति है, राष्ट्रीय एकत्व है और सांस्कृतिक समरसता है। लोक आनंद की अनुभूति है। तमाम असम्भवों का संगम है। होली सबकी प्रीति है, राष्ट्र की रीति है। भारत की उमंग और भारत के मन की रंग-तरंग है। देश के उत्तर, दक्षिण और पूरब, पश्चिम होली ही होली है। होली सबकी प्यारी है। भले राजनीति की सत्ता-पिपासा श्वेत वस्त्रों में छिपे मैले मन वालों को समाज बांटने के दुष्कर्मों की प्रेरणा दे, विदेशी लोभ में अपने हाट-बाजार तिरोहित करने को उकसाए, मजहब के नाम पर उन्हें जी-हुजूरी की मुद्रा में घुटनों बैठाए, त्राहि माम्- त्राहि माम् कर रही जनता को देख ठहाके लगवाए, पर होली तो होली है। मैले मन वालों को भी सद्बुद्धि आए, इसकी कोशिश भी होली है, क्योंकि मन उमंग से भरकर दूरियां पाटने को ललचाता है। होली नृत्य मगन उन्मुक्त अध्यात्म है। धरती, आकाश, वन और सम्पूर्ण उपवन का गीत-संगीत है। होली जाति, पंथ, उम्र से परे जीवन्त महामुक्ति और महाउल्लास है।

असत् पर सत् की विजय

होली की तमाम कथाएं भी हैं। भविष्य पुराण के अनुसार कृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि राजा रघु के पास ढोण्ढा राक्षसी की शिकायत हुई, वह बच्चों को तंग करती थी। रघु को ज्योतिषियों ने बताया कि शिव वरदान के अनुसार, उसे खेलते बच्चों से डरना चाहिए। फाल्गुन पूर्णिमा को लोग-बच्चे हंसें, ताली बजाएं, तीन बार अग्नि के चक्कर लगाएं, पूजा करें। ऐसा ही किया गया, वह मर गयी। प्रहलाद की कथा दूसरी है। हिन्दुस्थान के उत्तर पूर्व में दैत्यों-दानवों का क्षेत्र पूर्व ईरान, एशियाई, रूस का दक्षिणी पश्चिमी हिस्सा और गिलगित तब इलावर्त था। बेबीलोनिया की प्राचीन गुफाओं के भित्ति चित्रों में विष्णु हिरण्याक्ष से युद्धरत हैं। हिरण्याक्ष हिरण्याकश्यप का भाई था। प्रहलाद हिरण्याकश्यप का पुत्र था। वह पिता की दैत्य परम्परा का विरोधी था। तब उसे आग में झोंका गया, कथा के अनुसार वह बच गया। प्रहलाद भारतीय सत्याग्रही चेतना का प्रतिनिधि था। ढेर सारी कथाएं हैं। कथाएं समाज जोड़ती हैं। ऐसी कथाओं के सत्य सांस्कृतिक स्रोत होते हैं।

होली सम्पूर्ण भारतीय जन का उल्लास है। होली जैसा उत्सव बेशक मिस्र में था, यूनान में भी था। ऐसे क्षेत्रों से भारत के व्यापारिक सम्बंध थे। सत्यकेतु विद्यालंकार ने “वैदिक युग” (पृष्ठ 232) में बताया है कि वर्तमान इराक और तुर्की राज्य क्षेत्रों से प्राप्त भग्नावशेषों व प्राचीन सभ्यताओं से ज्ञात होता है कि उनका भारत के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बंध था। ऋग्वेद (1.25.4) में पक्षियों के उड़ने वाले आकाश मार्ग और समुद्री नौका मार्ग के उल्लेख हैं। जैमिनी ने होलाका पर्व का उल्लेख (400-200 ईसा पूर्व) किया और लिखा कि होलाका सभी आर्यों का उत्सव था। आचार्य हेमाद्रि (1260-70 ई0) ने पुराण उद्धरणों से होली की प्राचीनता दर्शाई है।

वैदिक पूर्वजों का चित्त उत्सवधर्मा था। यही होली में सतरंगी इन्द्रधनुष और सातों सुरों का संगीत बन कर उभरा है। होली हजारों बरस प्राचीन राष्ट्र के सांस्कृतिक विकास का परिणाम है। इसके बीज पूर्व वैदिक काल में हैं, उत्सव ऋग्वेद में हैंै।

वैदिक परम्परा में अग्नि बहुत बड़े देवता हैं। सो पूर्वजों ने होली उत्सव में अग्नि को प्रधान बनाया। कृषि प्रधान राष्ट्र ने जौ-गेहूं की बालियां अग्नि देव को सौंपीं, प्रसाद रूप में स्वयं भी ग्रहण कीं। सूर्य अग्नि का ही रूप हैं। उनके प्रकाश में सात रंग हैं। पूर्वजों ने होली उत्सव को सतरंगी बनाया। ध्वनि में सात सुर-आयाम हैं। पूर्वजों ने रंगों के साथ सात सुर भी जोड़े। यहां पूर्णिमा का चांद है, रंग सुर छंद हैं, ताल लयसंगीत है, नृत्य और थिरकन है। होली में मर्यादित वर्जनाहीनता है, लेकिन परिपूर्ण उन्मुक्तता है।द

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