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फागुन के रंग में सराबोर

by
Mar 3, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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सरोकार

दिंनाक: 03 Mar 2012 16:19:57

होली एक महत्वपूर्ण त्योहार है। हम लोग इसे सामाजिक एकता, सौहार्द और प्रेम  का पर्वमानते हैं। जात-पांत के भेद मिटाकर सब एक-दूसरे से गले मिल जाते हैं। “बुरा न मानो होली है” कहकर चाहे किसी को भी रंग लगा दो, कोई फर्क नहीं पड़ता।

पहले होली को मनाने में दरवाजे और आंगन, पुरुष और स्त्री का भी अंतर मिट जाता था। यूं तो होली के हुड़दंग में अपनी तरह से महिलाएं भी भाग लेती थीं, पर उनको होली के एक दिन पहले से ढेर सारे पकवान भी बनाने पड़ते थे, इसलिए उनकी तरफ से हुड़दंग कम हो जाते थे। उनके हाथ बंधे रहते थे। उनका मन मचलता था होली खेलने के लिए। इसलिए एक रात पूर्व ही पकवान बना लेने की कोशिश करती थीं।

यूं तो महिलाओं से छेड़छाड़ के लिए पुरुष ही बदनाम होते रहे हैं। लेकिन लोकजीवन में ऐसे ढेर सारे अवसर आते हैं जब महिलाएं भी पुरुषों से छेड़छाड़ करती हैं। उन अवसरों में होली का अवसर विशेष होता है। इसलिए महिलाएं भी बिन भंग पिए बौराई दिखती थीं। उनका बौराना भी समाज-स्वीकृत होता था। हमारी चाची तो फागुन चढ़ते ही भंगिया जाती थीं। हमारे घर के पीछे से जो गली निकलती थी, वह कभी खाली नहीं रहती। एक बड़े मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले को जोड़ती थी। फिर क्या था, लोग मुख्य सड़क छोड़ उसी से निकलते थे। हमारे रसोई घर की खिड़की उसी गली में खुलती थी। अक्सर वह खिड़की बंद ही रहती थी, पर फागुन चढ़ते ही खिड़की खुलती और बंद होती थी।

गली से गुजरते हुए व्यक्ति पर चावल धोने का पानी, दाल का पानी, माड़, मट्ठा, और भी न जाने कौन-कौन से तरल पदार्थ डाल दिए जाते। वह व्यक्ति चिल्लाने लगता, इधर खिड़की का पट बंद। भीगा व्यक्ति दरवाजे पर पहुंच कर चिल्लाता – “देखिए क्या कर दिया आपके घर की औरतों ने।” पिताजी उसके प्रति सहानुभूति दिखाते। पानी से उसके ऊपर पड़े तरल पदार्थ को धोने की कोशिश करते। समझा-बुझा कर उसे भेज देते। फिर बोलते- “अरे तुम लोग पगला गई हो क्या? अभी से भांग पी ली?”

तभी फिर कोई दरवाजे पर चिल्ला रहा होता। जैसे ही पिताजी दरवाजे की ओर मुड़ते, उनके पीछे से उन पर उनकी भाभी कुछ-न-कुछ तरल पदार्थ डालकर छुप जातीं। पिताजी झल्लाते। खटिया पर बैठी दादी कहतीं- “क्या हुआ तो, फागुन है, अभी तो रंग-रभस चलेगा ही।”

खिड़की से कुछ फेंकना तो लुका-छिपी होली हुई। महिलाएं खुल्लम-खुल्ला होली खेलने में भी माहिर थीं। देवरों की तो खैर नहीं। जिस आंगन में कोई भौजाई हो, देवर लोग एक माह पहले से ही जाना छोड़ देते। उन्हें पता होता था कि देवर होली के दिन ही बौराएगा, पर भाभियां तो पूरे फागुन बौराई रहती हैं। उनके हाथ में होली खेलने की बहुत-सी सामग्रियां रहती थीं- आटे का घोल, सब्जी का पानी, माड़, बची हुई कढ़ी या दाल। बस पूछिए मत, देवरों की तो खैर नहीं। भूल से ही सही, कभी-कभी तो जेठ भी पकड़ा जाते थे।

फागुन के महीने में ससुराल आए जमाई की तो पूछो ही नहीं। उनकी बुरी दशा करती थीं महिलाएं। इसमें पुरुषों की भी शह होती थी। वे महिलाओं को उकसाते भी थे। जैसे-जैसे होली के दिन नजदीक आते जाते, महिलाओं की तत्परता बढ़ती जाती। क्योंकि होली के दूसरे दिन से ही सारी सामाजिक वर्जनाएं फिर प्रारंभ हो जाएंगी। होली के दिन तक उनकी बौराहट का थककर फीका पड़ना उनके देवर-नन्दोई को कहां बर्दाश्त होता। वे उन्हें भांग भी पिला देते हैं। फिर तो पूछिए मत।

मेरी भाभी को एक बार मेरे भाइयों ने मिलकर भांग पिला दी। उनकी हंसी पर उनका नियंत्रण नहीं रहा। फिर तो होली की शाम भाभी की हंसी की फुहार के साथ हमने जो होली खेली, वह दिन के रंग और गुलाल वाली होली से बढ़कर रसदार थी। घूंघट में लिपटी भाभी प्राय: दरवाजे की चौखट भी पार नहीं करती थीं, पर उस शाम तो बेधड़क दरवाजे पर चली गईं, घूंघट न पर्दा। एक लोटा रंग का आधा-आधा दादा जी और पिताजी पर डाल वहीं हंसती खड़ी रहीं। दादाजी चिल्लाए-“ये कौन है? किसकी बहू है?” दादाजी को जब पता चला कि वह उनके घर की ही बहू है, तो शांत हो गए। कुछ नहीं बोले, होली जो थी। दूसरे किसी दिन ऐसा करने की अनुमति किसी महिला को नहीं मिल सकती थी। अपने संयुक्त परिवार की होलियों को याद करती हूं तो लगता है कि महिलाएं होली खेलने में पुरुषों को पीछे छोड़ जाती थीं। होली की तैयारी में महिलाओं के हाथों में ही सब कुछ रहा है। जिसके घर में महिला नहीं, उसके घर में होली नहीं।

अक्सर नई-नवेली दुल्हन पुरुषों से छेड़छाड़ कर होली खेलने से कतराती और शर्माती थी। आंगन-ओसारे में खटिया पर बैठी दादी सास या सास उन्हें पुरुषों से छेड़छाड़ का तरीका बताती थीं और अपनी जवानी के अनेक ऐसे प्रसंग बताकर नई बहुओं को पुरुषों पर भारी पड़ने का प्रशिक्षण भी देती रहती थीं। वस्तुत: फागुन के महीने में सारी अश्लीलता शीलता की श्रेणी में आ जाती थी। द

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