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विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं के पुनर्वास का पाखंड

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Feb 25, 2012, 12:00 am IST
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विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं के पुनर्वास का पाखंड

दिंनाक: 25 Feb 2012 17:19:22

 प्रमोद भार्गव

नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने एक बार फिर कहा है कि पण्डितों के पुनर्वास के बिना कश्मीर अधूरा है। यदि वे सत्ता में होते तो पंडितों को कभी घाटी से पलायन नहीं करने देते। डा. अब्दुल्ला शायद इस भ्रम में हैं कि लोगों की याददाश्त कमजोर है। इसलिए उन्हें याद दिलाना जरूरी है कि जब 22 साल पहले उनके घर के सामने सितम्बर 1989 में भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टीकालाल टपलू की हत्या हुई थी और अलगाववादी हड़ताल तथा उग्र प्रदर्शन से बाज नहीं आ रहे थे, तब  घाटी से अल्पसंख्यक हिन्दुओं के सामूहिक पलायन का सिलसिला शुरू हुआ था। तब जम्मू-कश्मीर राज्य में कांग्रेस तथा नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन की सरकार थी और खुद डा. फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। इस बेकाबू हालत को नियंत्रित करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की बजाय 20 जनवरी 1990 को एकाएक डा. अब्दुल्ला कश्मीर को जलता छोड़ लंदन भाग खड़े हुए थे। अभी भी एक तरह से सत्ता उन्हीं के हाथ में है। राज्य में कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन की सरकार है और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री हैं। लेकिन हकीकत यह है कि कश्मीर के नेता पंडितों की बहाली का विलाप तो करते हैं, किंतु ऐसी कोई कारगर पहल नहीं करते जिससे पुनर्वास का सिलसिला शुरू हो।

1990 में शुरू हुए पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी हिन्दुओं को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरवादियों का मूल मकसद घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था। इस मंशापूर्ति में वे सफल भी रहे। देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। ऐसा हैरान कर देने वाला उदाहरण अन्य किसी देश में नहीं है। पूरे जम्मू-कश्मीर में करीब 45 लाख कश्मीरी अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से 7 लाख से भी ज्यादा विस्थापन का दंश झेल रहे हैं।

कश्मीर की महिला शासक कोटा रानी पर लिखे मदन मोहन शर्मा “शाही” के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास “कोटा रानी” पर गौर करें तो कश्मीर में शांति और सद्भाव का वातावरण था। प्राचीन काल में कश्मीर संस्कृत, सनातन धर्म और बौद्ध शिक्षा का उत्कृष्ट केंद्र था। “नीलमत पुराण” और कल्हण रचित “राजतरंगिणी” में कश्मीर के उद्भव के भी किस्से हैं। कश्यप ऋषि ने इस सुंदर वादी की खोज कर मानव बसाहटों का सिलसिला शुरू किया था। कश्यप पुत्र नील इस प्रांत के पहले राजा थे। कश्मीर में यहीं से अनुशासित शासन व्यवस्था की बुनियाद पड़ी। 14 वीं सदी तक यहां शैव और बौद्ध मतों ने प्रभाव बनाए रखा। इस समय तक कश्मीर को काशी, नालंदा और पाटलीपुत्र के बाद विद्या व ज्ञान का प्रमुख केंद्र माना जाता था।

सिंध पर सातवीं शताब्दी में अरबों ने हमला कर, उसे कब्जा लिया। सिंध के राजा दाहिर के पुत्र जयसिंह ने भागकर कश्मीर में शरण ली। तब यहां की शासक रानी कोटा थीं। कोटा रानी के आत्म-बलिदान के बाद पर्शिया से आए इस्लाम के प्रचारक शाह मीर ने कश्मीर का राजकाज संभाला। यहीं से जबरन मतांतरण करते हुए कश्मीर का इस्लामीकरण शुरू हुआ। जिस पर आज तक स्थायी विराम नहीं लगा है। विस्थापित पंडितों के घरों पर स्थानीय मुसलमानों का कब्जा है। इन्हें निष्कासित किए बिना हिन्दुओं की वापिसी मुश्किलहै।

हाल ही में नौकरी के बहाने तकरीबन 350 युवक व युवतियों की घाटी में वापिसी भी हुई है। यदि उमर अब्दुल्ला सरकार इनका पुश्तैनी घरों में पुनर्वास करने की मंशा जताती तो वाकई कश्मीर के अभिन्न अंग विस्थापित हिन्दुओं के लौटने की उम्मीद बढ़ जाती। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। दुर्भाग्य से उमर सरकार जब से कश्मीर में वजूद में आई है तब से वह ऐसी कोई राजनीतिक इच्छा-शक्ति जताती नहीं दिखी, जिससे विस्थापितों के पुनर्वास का मार्ग सरल होता। केंद्र सरकार द्वारा 25 अप्रैल 2008 को हिन्दुओं के पुनर्वास और रोजगार हेतु 1618.40 करोड़ रूपए मंजूर किए गये थे, किंतु राज्य सरकार ने इस राशि का कतई उपयोग नहीं किया। इस राशि को खर्च न किए जाने के सिलसिले में उमर अब्दुल्ला का बहाना है कि अमरनाथ यात्रा के लिए जो भूमि आंदोलन चला था, उस वजह से आवास और रोजगार के कार्यों को आगे नहीं बढ़ाया जा सका। खोखला वस्तुत: कश्मीर में कमोबेश शांति के बावजूद पुनर्वास के कोई ठोस उपाय सामने नहीं आए।

ऐसा भी नहीं है कि, डा. फारुक अब्दुल्ला को कश्मीर का मुख्यमंत्री बनने का अवसर न मिला हो, 1996 में डा. अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। इस समय भी दिसंबर 1996 में उन्होंने इस बयान को दोहराया था कि पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है और आने वाले दो वर्षों में सभी का पुनर्वास कर दिया जाएगा। इसके बाद डा. अब्दुल्ला छह साल मुख्यमंत्री रहे लेकिन एक भी परिवार का पुनर्वास नहीं करा पाए। उलटे इस दौरान विस्थापन का सिलसिला जारी रहा। विस्थापित परिवारों की संख्या 27 हजार से बढ़कर 32 हजार हो गई। अब जब कश्मीर में उनके पुत्र मुख्यमंत्री हैं और वे कश्मीरी अल्पसंख्यकों के पुनर्वास की बयानबाजी कर रहे हैं, तब उमर अब्दुल्ला के तीन सालों के कार्यकाल में विस्थापित परिवारों की संख्या 32 हजार से बढ़कर 38 हजार से भी ज्यादा हो गई है। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि केन्द्र सरकार से विस्थापित परिवारों को जो राहत राशि मिलती है वह भी 65 करोड़ से बढ़ाकर 90 करोड़ कर दी गई है। जाहिर है कि डा. फारूक अब्दुल्ला का कश्मीरी हिन्दुओं का घाटी में वापसी का विलाप एक नाटकीय पाखण्ड के अलावा कुछ नहीं है। जबकि उमर सरकार पाकिस्तान चले गए, वहां प्रशिक्षण ले रहे आतंकवादियों के पुनर्वास के लिए बार-बार अपनी प्रतिबद्धता दिखा रही है, और उसके क्रियान्वयन में भी लगी है। द

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