सम्पादकीय
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जीवन प्रेम है और जब मनुष्य दूसरों के प्रति भलाई करना बंद कर देता है, तो उसकी आध्यात्मिक मृत्यु हो जाती है।
-विवेकानन्द (विवेकानन्द साहित्य, भाग 10, पृ. 290)
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी के “मिशन यूपी 2012” की मिट्टी पलीद होती देख कांग्रेस के हाथ-पांव फूल रहे हैं और उसके केन्द्रीय मंत्री तक वोट के लिए बार-बार चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन कर चुनाव आयोग को आंखें दिखाते रहे हैं, जब चुनाव आयोग उनकी धमकियों से नहीं घबराया तो केन्द्र सरकार आदर्श आचार संहिता को ही चुनाव आयोग के प्रभाव से निकालकर कानूनी रूप देने की जुगत में भिड़ गई, लेकिन हद तो तब हो गई जब एक और केन्द्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने चेतावनी किंवा धमकी दी कि यदि उ.प्र. में कांग्रेस सत्ता में नहीं आई तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगेगा। उनकी नजर में यदि कांग्रेस को बहुमत नहीं मिलता है तो राष्ट्रपति शासन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। इससे दो संकेत साफ हैं कि कांग्रेस को उ.प्र.में सरकार बनाना तो दूर, बुरी तरह हार का डर सता रहा है, इससे उसके नेता बौखलाकर मतदाताओं को धमकी देने पर उतर आए हैं। दूसरे, कांग्रेस सभी लोकतांत्रिक व संवैधानिक मर्यादाओं को ध्वस्त करने पर उतारू है। उसके नेता एक ओर तो चुनाव आयोग की स्वायत्तता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं और दूसरी ओर लोकतांत्रिक प्रक्रिया व संवैधानिक प्रावधानों को भी धता बता रहे हैं। केन्द्रीय मंत्री द्वय सलमान खुर्शीद व बेनी प्रसाद वर्मा द्वारा मुस्लिम आरक्षण के मुद्दे को भड़काने और राहुल गांधी के “रोड शो” मामले में जब चुनाव आयोग ने सख्ती दिखाई तो आदर्श आचार संहिता को आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर निकालकर उसे वैधानिक दर्जा दिए जाने की कोशिशें शुरू कर दी गईं, जिससे कांग्रेसियों की मनमानी पर अंकुश लगाने वाले चुनाव आयोग के पर कतरे जा सकें, क्योंकि उ.प्र. में कांग्रेस ने आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की सारी सीमाएं पार कर दी हैं। हालांकि संप्रग सरकार इस मामले में अपने को पाक-साफ दिखाने के लिए तर्क गढ़ रही है कि आदर्श आचार संहिता के चलते विकास कार्यों पर विपरीत असर पड़ता है, लेकिन यह तर्क अभी क्यों दिया जा रहा है? पहले कभी कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली इस सरकार को यह ध्यान क्यों नहीं आया?
यह संवैधानिक संस्थाओं पर हमला करने की कांग्रेसी प्रवृत्ति का एक और ताजा उदाहरण है। अपनी सत्ता महत्वाकांक्षाओं के लिए एक समय कांग्रेस की सर्वेसर्वा और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तो अचानक देश में आपातकाल घोषित कर लोकतंत्र को ही बंधक बना लिया था और पूरे देश को यातनागृह में बदल दिया था। अब आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में सजा का अधिकार आयोग से लेकर अदालतों को दिए जाने की कोशिश और संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग कर उ.प्र. में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की धमकी उसी निरंकुश व अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति की परिचायक है। इसी प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित संप्रग सरकार पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए अपनी अध्यक्षता में एक समानांतर सत्ता केन्द्र “राष्ट्रीय सलाहकार परिषद” के नाम से खड़ा कर दिया और यही परिषद “साम्प्रदायिक व लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक” जैसे काले कानून का प्रारूप तैयार करवाकर विधायी प्रक्रिया में असंवैधानिक हस्तक्षेप करने जैसी हिमाकत कर रही है। क्या देश कांग्रेस की जागीर है जो उसके राजनीतिक हितों, सत्ता स्वार्थों व मंसूबों के हिसाब से चलाया जाएगा? कांग्रेस की इस अराजक मनोवृत्ति के खिलाफ उत्तर प्रदेश की जनता साफ खड़ी दिख रही है। इसलिए कांग्रेस का डर सिर्फ उ.प्र. में ही पराजय का नहीं है, उसे “मिशन यूपी 2012” की विफलता में 2014 के लोकसभा चुनावों में अपनी शर्मनाक हार की आशंका ज्यादा सता रही है, क्योंकि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उ.प्र. से होकर गुजरता है। इसलिए वह येन केन प्रकारेण उ.प्र. में अपनी स्थिति मजबूत करने पर आमादा है, लेकिन जनता सब देख रही है।
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