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इतिहास दृष्टि

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Feb 25, 2012, 12:00 am IST
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दिंनाक: 25 Feb 2012 17:05:31

इतिहास दृष्टि

द डा.सतीश चन्द्र मित्तल

भारत विभाजन का

षड्यंत्र और कांग्रेस

यद्यपि भारत के विभाजन को 64 वर्ष हो गए हैं, तथापि तत्कालीन नेताओं के क्रियाकलापों तथा विभिन्न राजनीतिक दलों की भूमिका आज भी  भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार के गुप्त दस्तावेजों में कैद है, जो अब भी शोधकर्ताओं की पहुंच से बाहर हैं। इसके साथ कांग्रेस ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए भारत के वामपंथियों के सहयोग तथा मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति तो अपनाई ही, हिन्दू समाज तथा हिन्दू संगठनों की भूमिका को योजनाबद्ध ढंग से सिर्फ अनदेखा ही नहीं किया बल्कि उन पर “अंग्रेजों के पिट्ठू” “विभाजन के पोषक” “फासिस्ट” “साम्प्रदायिक” आदि झूठे आरोप भी लगाए। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या उस लम्बे राजनीतिक आन्दोलन में भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज मूकदर्शक रहकर भारत का विभाजन देखता रहा? इस दृष्टि से हम यहां केवल एक संस्था-हिन्दू महासभा के कार्यों का अवलोकन कर रहे हैं।

हिन्दू महासभा का उदय

बीसवीं शताब्दी के पहले दो दशकों तक हिन्दुओं का अलग से कोई राजनीतिक दल नहीं था। ब्रिटिश सरकार तथा तत्कालीन मुस्लिम नेता भी कांग्रेस को “हिन्दुओं का संगठन” कहते थे। एक-दो अपवाद को छोड़कर प्राय: सभी क्रांतिकारी भी हिन्दू थे। धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में हिन्दुओं की अनेक संस्थाएं थीं। 1908-09 में पंजाब में हिन्दू सभा की स्थापना हुई थी। 1915 में महामना पं. मदन मोहन मालवीय ने इसे अखिल भारतीय महासभा का स्वरूप देने में बड़ी सहायता की। वे 1923 से 1926 तक इसके अध्यक्ष भी रहे थे। 1920 के दशक में खलीफा आन्दोलन में कांग्रेस की भूमिका, मोपाला और पेशावर के मुस्लिम दंगों में कांग्रेस की निकृष्ट वकालत तथा हिन्दुओं की असहाय अवस्था तथा कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति ने अनेक हिन्दुओं को कांग्रेस से अलग होकर राजनीतिक दल के रूप में प्रवेश के लिए बाध्य किया था। कांग्रेस, ब्रिटिश सरकार के इस कथन से सहमत थी कि मुस्लिमों के सहयोग के बिना भारत एक राष्ट्र के रूप में कभी स्वाधीनता प्राप्त नहीं कर सकता। अब कांग्रेस की पूरी ऊर्जा स्वराज्य की बजाय हिन्दू मुस्लिम एकता पर केन्द्रित हो गई थी। सही बात तो यह है कि देश के 85 प्रतिशत हिन्दू समाज का प्रतिनिधित्व कहीं नहीं था। 1933 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भाई परमानन्द ने मांग की कि हिन्दुओं को भारत का प्रमुख समुदाय माना जाए।

वीर सावरकर की भूमिका

हिन्दू महासभा को एक सुदृढ़ तथा जीवंत संगठन बनाने में वीर सावरकर का महत्वपूर्ण स्थान है। ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई काला पानी की कठोर यातना सहने के पश्चात उन्हें 21 जनवरी 1921 से 10 मई 1937 तक रत्नागिरी में नजरबंद रखा गया तथा उन पर अनेक प्रतिबंध लगाये गए। इसी कालावधि में उन्होंने हिन्दुत्व, हिन्दू पद पादशाही, अंडमान की गूंज तथा अनेक उपन्यास, नाटक तथा सैकड़ों लेख लिखे। रत्नागिरी में उन्होंने हिन्दू महासभा की स्थापनी की। रत्नागिरी की नजरबन्दी से मुक्त होकर वे देश की राजनीति में खुलकर आए। 30 सितम्बर, 1937 के अमदाबाद अधिवेशन में उन्हें पहली बार हिन्दू महासभा का अध्यक्ष बनाया गया। इसके पश्चात अगले पांच वर्षों तक वे इसके अध्यक्ष रहे। उन्होंने अपने पहले ही अध्यक्षीय भाषण में कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की कटु आलोचना की।

हैदरावाद के निजाम के विरुद्ध अपने अस्तित्व के लिए जब आर्य समाज संघर्ष तथा सत्याग्रह कर रहा था तथा कांग्रेस मुसलमानों की सहानुभूति बटोरने के लिए उसे साम्प्रदायिक कह रही थी। तब हिन्दू महासभा ने आर्य समाज को पूर्ण सहयोग दिया। इसी काल में बंगाल के प्रसिद्ध नेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिन्दू महासभा के सहयोगी बने।

भारत विभाजन का विरोध

हिन्दू महासभा ने कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण तथा भारत के किसी भी भाग के विभाजन की कटु आलोचना की। 1941 में सभा ने पं. जवाहरलाल नेहरू को असम को मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांत बनाने पर चेताया। हिन्दू महासभा की एकमात्र ऐसी राजनीतिक संस्था थी जिसने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग का बिना किसी “अगर” या “मगर” के खुलकर विरोध किया। 1941 में हिन्दू महासभा के कानपुर अधिवेशन में भारतीय राजनीति का हिन्दूकरण तथा हिन्दुओं का सैनिकीकरण का उद्घोष किया। सावरकर की प्रेरणा से सुभाषचन्द्र बोस ने फारवर्ड ब्लाक के अन्तर्गत ब्रिटिश मूर्तियों को खण्डित करने की बजाए, दक्षिण-पूर्वी एशिया में जाकर सशस्त्र क्रांति की योजना बढ़ाने को कहा। 1942 में कांग्रेस के भारत छोड़ो आन्दोलन (क्विट इंडिया मूवमेंट) को चेतावनी देते हुए कहा कि कहीं यह भारत विभाजन का आन्दोलन  (स्पिलट इंडिया मूवमेंट) न बन जाए।

 

इस सन्दर्भ में 8 अगस्त, 1944 को दिल्ली में आयोजित अखण्ड भारत महा सम्मेलन एक ऐतिहासिक अवसर था। इस विशाल सम्मेलन की अध्यक्षता भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार डा. राधाकुमद मुखर्जी ने की थी।

भारत विभाजन के अंतिम दो वर्ष

भारत विभाजन से पूर्व के दो वर्ष (1946-1947) भारतीय राजनीति का परिवर्तनकारी मोड़ थे। इस समय कांग्रेसी नेता चुनाव में वोट मांग रहे थे। इसके जवाब में हिन्दू महासभा के नेता कह रहे थे कि “सावधान! आज कांग्रेसी अखण्ड भारत का नारा लगाकर तुम्हारे वोट मांग रहे हैं, कल चुनाव के पश्चात, पाकिस्तान का समर्थन कर, विश्वासघात करेंगे। वे केवल भारत विभाजन के लिए कार्य करेंगे।” डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वतंत्रता से पूर्व साम्प्रदायिकता के आधार पर राज्यों का गठन, हिन्दुओं और मुसलमानों की बराबरी तथा पाकिस्तान के निर्माण का जबरदस्त विरोध किया। उन्होंने लार्ड वेवल की योजना को अस्वीकार किया। प्रो. क्प्लैण्ड ने स्पष्ट लिखा है कि इसी विरोध के कारण लार्ड वेवल ने शिमला कांफ्रेस में हिन्दू महासभा को आमंत्रित नहीं किया। हिन्दू महासभा ने अपने विलासपुर अधिवेशन में “एक व्यक्ति एक वोट” तथा समान नागरिकता की बात कही, 16 जून, 1946 को हिन्दू महासभा ने अपने प्रस्ताव में एक मजबूत केन्द्रीय शासन तथा जनसंख्या के आधार पर अंतरिम सरकार की स्थापना के लिए कहा। कैबिनेट मिशन के भारत आगमन पर जहां भारत की कम्युनिस्ट पार्टी न केवल पाकिस्तान की मांग का, जिन्ना से भी अधिक समर्थन कर रही थी तथा अपने सुझावों में भारत को 16-17 टुकड़ों में बांटने की बात कर रही थी, तब कांग्रेस पूरी तरह से निष्क्रिय थी। केवल हिन्दू महासभा ही विरोध कर रही थी।

लार्ड माउन्टबेटन की धूत्र्ततापूर्ण वार्ता

भारत विभाजन की योजना तो मार्च 1947 में ही सर्वत्र दिखने लगी थी। लार्ड माउन्टबेटन ने भारत पहुंचते ही मई के प्रथम सप्ताह से अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया था। उसने प्रथम सप्ताह में पं. जवाहरलाल नेहरू से बात की तथा अब वह निश्चिंत हो गया था। उसने पं. नेहरू से पंजाब की जिलानुसार जानकारी भी प्राप्त की थी। अत: भारत का विभाजन तो मई 1947 में ही निश्चित हो गया, बस अब केवल 3 जून को उस पर मोहर लगनी थी। महात्मा गांधी ने मई 1947 में ही इसका विरोध करते कहा था: कांग्रेस ने इसे सिद्धांतत: मान लिया है पर मैं इसका विरोध करता हूं।” (देखें सिविल एण्ड मिलेरटी गजट, 11 मई 1947) डा. राजेन्द्र प्रसाद ने भी कहा “कांग्रेस ने पाकिस्तान को सिद्धांतत: स्वीकार कर लिया है पर मेरा विश्वास है कि कोई भी इसका विभाजन नहीं कर सकता, जबकि परमात्मा ने हमें एक बनाया है।” विभाजन की योजना सुनते ही अमृतसर तथा लाहौर में बैचेनी हो गई। इतना ही नहीं, लाहौर के तांगेवाले, रिक्शावाले तथा गरीब भी बैचेन हो गए। अमृतसर, लाहौर, रावलपिण्डी, गुडगांव, मेवात में भी हिंसा तथा दंगे भड़क उठे। विवादित जिलों के बारे में हिन्दू महासभा ने सिखों को पूर्ण समर्थन किया। (हिन्दू आउटलुक, 20 मई 1947) प्राय: यह निश्चित है कि यदि हिन्दू महासभा कड़ा प्रतिरोध न करती तो कई और जिले पाकिस्तान का भाग होते। 21 मई, 1947 को हिन्दू महासभा के नेता वी.जी. देशपाण्डे ने चेतावनी दी कि प्रस्तावित विभाजन विनाशकारी होगा। उन्होंने कहा, “मैं नेताओं से ईमानदारी से प्रार्थना करता हूं कि भारत के भविष्य का निर्णय बहुसंख्यक समाज के जनमत संग्रह के बिना न करें।” (सिविल एण्ड मिलेटरी गजट, 21 मई 1947)

3 जून की घोषणा का विरोध

यह उल्लेखनीय है कि भारत विभाजन के निर्णय के विरुद्ध एक भी कांग्रेसी नेता न जेल गया और न ही कोई प्रस्ताव तक पास किया। परन्तु हिन्दू महासभा ने इसका देशव्यापी विरोध किया। इसकी तीव्र भत्र्सना की। भारत के विभाजन को एल.वी. भोपटकर ने राष्ट्र के साथ धोखा बतलाया। हिन्दू महासभा के नेता एन.सी.चटर्जी ने एक प्रस्ताव द्वारा 3 जून की घोषणा को मूर्खतापूर्ण बताया और कहा कि भारत में तब तक शांति न होगी जब तक तथाकथित पाकिस्तान का क्षेत्र भारत में वापस न हो (देखें हिन्दू आउटलुक, 10 जून 1947) डा. गोकुल चंद्र नारंग ने प्रस्ताव का समर्थन किया। तथा उन्होंने 3 जून की योजना को मूर्खतापूर्ण कहा। एल.वी. भोपटकर ने कहा, “जो कांग्रेस 1946 में देश की एकता के प्रचार में सर्वाधिक आगे थी उसने भारत के विभाजन को आसानी से स्वीकार कर लिया। कम से कम उन्होंने जनता से सलाह तो ले ली होती।” दयाल सिंह बेदी ने कहा, “विचित्र संयोग है कि मोतीलाल ने बम्बई से सिंध को अलग करवाया, उसके लड़के ने सिंध को भारत से अलग करवाया…. अगर कांग्रेस को यही मानना ही था तो इसका सर्वनाश तो न होता। इसे कांग्रेस का आत्मसमर्पण तथा मूर्खता का परिणाम” कहा गया। “हिन्दू आउटलुक” के एक लेख में दिया कि पंडित नेहरू ने देश को एक गड्डे में डाल दिया है। वीर सावरकर ने इस पर “काला दिवस” मनाने का संदेश दिया। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्पष्ट रूप से इसकी कटु आलोचना की।

23 जून, 1947 को बंगाल हिन्दू सभा के अध्यक्ष, सोमनाथ चटर्जी के पिता निर्मल चन्द चटर्जी ने दिल्ली के चांदनी चौक में बोलते हुए कहा कि “आज की अवस्था, ब्रिटिश का जिन्ना के साथ षड्यंत्र तथा कांग्रेस की कायरता का परिणाम है।” 15 अगस्त को उन्होंने “शोक दिवस” मनाया। वीर सावरकर ने कहा, कांग्रेस कहती है कि विभाजन स्वीकार कर देश को रक्तपात से बचाया। लेकिन सही तो यह है कि जब तक पाकिस्तान रहेगा, पुन: रक्तपात का खतरा बना रहेगा।

उपरोक्त संक्षिप्त तथ्यपरक वर्णन से किसी भी निष्पक्ष विद्वान के सही विश्लेषण करने पर, हिन्दू महासभा की पूर्ण स्वाधीनता तथा अखण्ड भारत की मांग, उसकी विशिष्ट भूमिका तथा सतत प्रयत्नों को नकार नहीं सकता। यह बात दूसरी है कि अब तक कांग्रेस-कम्युनिस्ट अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं तथा मुस्लिम तुष्टीकरण की चुनावी राजनीति के कारण, भारतीय जनमानस को भ्रमित करने में आंशिक रूप से सफल रहे हों, परन्तु अब ज्यादा देर तक देश की जनता को विशेषकर युवा शक्ति को अंधेरे में न रखा जा सकेगा। द

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