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Feb 18, 2012, 12:00 am IST
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भ्रष्टाचार कीभेंट चढ़ी मनरेगा

दिंनाक: 18 Feb 2012 17:44:47

भ्रष्टाचार की

भेंट चढ़ी मनरेगा

सोनिया गांधी की नाराजगी से उठे कई सवाल

*अरुण कुमार सिंह

संप्रग सरकार की महत्वाकांक्षी मनरेगा योजना अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के लिए लगातार विवादों में रही है, लेकिन अब स्वयं इसकी योजनाकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ही इस पर अपनी नाराजगी जाहिर कर प्रश्न खड़ा कर दिया है, जबकि कांग्रेसी 2009 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की जीत के लिए इसी योजना को श्रेय देते नहीं थकते थे। पिछले दिनों नई दिल्ली में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के पांच साल पूरे होने पर एक सम्मेलन आयोजित हुआ। सम्मेलन में सोनिया गांधी ने मनरेगा में जारी भ्रष्टाचार का उल्लेख करते हुए कहा कि “यह विकास की अकेली ऐसी योजना है जिस पर केन्द्र सरकार 40 हजार करोड़ रुपए हर वर्ष खर्च कर रही है। लेकिन इसका अभी तक पूरी तरह लाभ नहीं उठाया जा सका है। मनरेगा में जारी भ्रष्टाचार की अनदेखी नहीं की जा सकती है।”

केन्द्र सरकार विफल

फरवरी 2006 में शुरू हुई राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा), जिसे अक्तूबर 2009 से मनरेगा कहा जा रहा है, संप्रग सरकार की सबसे बड़ी योजना मानी जाती है। इसलिए हर कांग्रेसी इस योजना का खूब ढोल पीटता है। गैर-कांग्रेस शासित किसी राज्य में कांग्रेसी नेता कहते हैं, “हमने (संप्रग सरकार) मनरेगा के लिए फलाने राज्य को इतना पैसा दिया, किंतु सब भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया।” नि:सन्देह सोनिया गांधी ने भी गैर-कांग्रेस शासित राज्यों के भ्रष्टाचार पर ही निशाना साधा, लेकिन इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि केन्द्र इस योजना को सुचारू रूप से संचालित करने में विफल रहा है।

किंतु सच्चाई तो यह है कि इस योजना को पलीता लगाने में सबसे आगे वही लोग हैं, जो कांग्रेसी आशीर्वाद से भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे हुए हैं। यह योजना पूरे देश में चल रही है। योजना चलाने वाले फर्जी भुगतान के सहारे पैसा कूट रहे हैं। कहा जा रहा है कि मनरेगा में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार के मामले उत्तर प्रदेश में उजागर हुए हैं। इसके बाद कांग्रेस शासित आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और असम में। हालांकि भ्रष्टाचार के मामले तो प्राय: हर प्रांत में उजागर हुए हैं। किंतु आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में मनरेगा के पैसे का मनमाना इस्तेमाल हो रहा है। पर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय को मनरेगा में गड़बड़ी सिर्फ गैर-कांग्रेस शासित राज्यों में ही दिखाई देती है।

मनरेगा का उद्देश्य है ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराकर विकास की गाड़ी को आगे बढ़ाना। इसके तहत हर परिवार के एक वयस्क सदस्य को एक साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार देने की गारंटी है। किंतु न तो बेरोजगारों को 100 दिन का काम मिल पाता है, और न ही निर्धारित मजदूरी मिलती है। योजना के तहत शुरू किए गए कार्य भी पूरे नहीं हो रहे हैं। भाजपा नेता यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति की रपट मनरेगा की असलियत खोलती है। रपट के अनुसार वित्तीय वर्ष 2006-07 के दौरान मनरेगा के तहत ग्रामीणों को औसतन 43 दिन का रोजगार और 65 रु.मजदूरी मिली। 2007-08 में यह औसत 42 दिन व 75 रु, 2008-09 में 48 दिन और 84 रु. और 2009-10 में 54 दिन और 90 रु. रहा। वित्तीय वर्ष 2010-11 में नवम्बर माह तक के आकलन के अनुसार औसतन 35 दिन का रोजगार और 98 रु.की मजदूरी मिली। समिति ने मनरेगा के लिए आवंटित पैसे के उपयोग में कमी, अनिवार्य स्तर तक रोजगार व मजदूरी देने में मनमानी और शुरू किए गए कार्यों के पूरे न होने पर खेद प्रकट किया है। प्रश्न उठता है कि केन्द्र सरकार और सोनिया गांधी ने इस समिति की रपट पर ध्यान क्यों नहीं दिया?

गैर योजनामद में इस्तेमाल

मनरेगा के तहत शुरू हुए कार्य पूरे क्यों नहीं हो रहे हैं? इसकी सबसे बड़ी वजह है आवंटित पैसे का गैर- योजना मद में इस्तेमाल। मनरेगा का पहला कार्य है जल संचयन की व्यवस्था करना। इसके लिए तालाब और कुंओं की खुदाई की जाती है और लघु सिंचाई के लिए छोटे-छोटे नाले बनाए जाते हैं। किंतु नेता और अधिकारियों की मिलीभगत से बड़ी-बड़ी नहरें बनाई जा रही हैं। नहरों की खुदाई में मजदूर कम और मशीनें ज्यादा इस्तेमाल हो रही हैं। जबकि मनरेगा के कार्यों में मशीनों का इस्तेमाल वर्जित है।

मनरेगा का दूसरा कार्य है वृक्षारोपण। बीपीएल परिवारों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की जमीन पर फलदार वृक्ष लगाने का प्रावधान है, ताकि जब कभी उन्हें रोजगार न मिल सके तो फल बेचकर अपना गुजारा करें। पर वृक्षारोपण का कार्य उन लोगों की जमीन पर हो रहा है, जो दबंग हैं, पहुंच वाले हैं। मनरेगा के तहत असिंचित भूमि को सिंचित बनाने का भी प्रावधान है। किंतु यहां भी काम कम और कागजी खानापूर्ति ज्यादा होती है। बाढ़ से बचाव के लिए तटबंध और ग्रामीण इलाकों में सम्पर्क सड़क बनाना भी मनरेगा का एक कार्य है। पर सड़क बनाने के लिए आवंटित पैसे का उपयोग बड़े पुलों के निर्माण में किया जा रहा है। इसलिए मनरेगा का लाभ उस जगह या उन लोगों को नहीं मिल रहा है जो असल में हकदार हैं।

वास्तव में देखा जाए तो मनरेगा में भ्रष्टाचार केन्द्र सरकार की वजह से ही बढ़ रहा है, क्योंकि इस पर निगरानी रखने का कोई कारगर तरीका नहीं अपनाया गया है। पंचायत स्तर पर फर्जी जॉब कार्ड और नकली बिल धड़ल्ले से बनाए गए हैं। पंचायत प्रतिनिधि और दबंग किस्म के लोग गरीबों के नाम पर पैसा कमा रहे हैं। मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों को पहले नगद मजदूरी दी जाती थी। इसमें जमकर घपला होता था। थोड़े मजदूरों से काम लिया जाता था और अधिक मजदूरों की मजदूरी वसूली जाती थी। कुछ महीने से मजदूरों को बैंक या डाकघर के माध्यम से मजदूरी दी जाती है। किंतु जो लोग मनरेगा को दुधारू गाय मान चुके हैं वे यहां भी हेराफेरी कर रहे हैं। मजदूरों से “कमीशन” वसूला जाता है। पंचायत स्तर पर सरेआम ऐसा हो रहा है। कहीं-कहीं मनरेगा की राशि के गबन होने की शिकायत भी मिली है। मजे की बात तो यह है कि कांग्रेस शासित राज्य मनरेगा में भ्रष्टाचार के मामले में आगे हैं।

कांग्रेस शासित राज्यों में हाल

कांग्रेस शासित हरियाणा भी इन राज्यों में शामिल है। यहां के अंबाला जिले में 2006 से 09 तक मनरेगा के तहत 44 करोड़ रु. खर्च किए गए। नारायणगढ़ प्रखंड के लालपुर और हमीदपुर, साहा प्रखंड में संभालखा तथा शहजादपुर प्रखंड के रतौर, मानकपुर, बब्याल आदि गांवों में हुए कार्यों की जांच हुई तो पता चला कि कार्य अधूरे हैं, जबकि कागजों में पूरा दिखाया गया था। कांग्रेस शासित राजस्थान के डूंगरपुर जिले की झरनी पंचायत में तो निर्माण सामग्री की आपूर्ति के बिना ही 58 लाख रुपए का भुगतान किया गया। पता चला है कि पंचायत पदाधिकारियों ने यह राशि अपने और अपने रिश्तेदारों के बीच ही बांट ली। झारखंड में कई जिलों में गड़बड़ी की आशंका को देखते हुए निगरानी विभाग से जांच कराने की सिफारिश की गई है। उत्तर प्रदेश में तो ऐसे-ऐसे मामले उजागर हुए हैं, जिनमें स्थानीय नेताओं की संलिप्तता पाई गई है। कुशीनगर की जिला पंचायत अध्यक्ष सावित्री ने नियम-कानून को ताक पर रखकर 30 मीटर लम्बे पुल का निर्माण करा लिया, जो छह महीने बाद ही ढह गया। विभागीय कार्रवाई से बचने के लिए उन्होंने 30 लाख रु. जमा कर अपना पिण्ड छुड़ाया।

वित्तीय वर्ष 2006-07 में मनरेगा के तहत 200 जिलों को शामिल किया गया था और 11,300 करोड़ रु.आवंटित किए गए थे। मनरेगा के तहत सरकारी खजाने से 2007-08 में 13,000 करोड़ रु., 2008-09 में 30,000 करोड़ रु., 2009-10 में 39,000 करोड़ रु. खर्च किए जा चुके हैं। 2011-12 के लिए 40,100 करोड़ रु. का आवंटन किया गया है। अनुमान है कि यह राशि वित्तीय वर्ष 2012-13 के लिए दुगुनी हो जाएगी। केन्द्र सरकार 2014 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए मनरेगा पर पानी की तरह पैसा बहाना चाहती है। किंतु सरकार को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मनरेगा को नाकाम करने में कांग्रेसी संस्कृति में पले- बढ़े लोग ही लगे हैं।द

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