चर्चा सत्र
|
चर्चा सत्र
चुनावों में उल्टा पड़ा
द हृदयनारायण दीक्षित
कांग्रेस, सपा व बसपा- तीनों का चाल-चरित्र, सोच-विचार और लक्ष्य एक। तीनों अल्पसंख्यकवादी। तीनों व्यक्तिवादी। तीनों सत्तावादी। तीनों केन्द्र सरकार में एक साथ। मजहबी आरक्षण के सवाल पर भी तीनों “हम साथ-साथ हैं” के नारे के साथ चुनाव मैदान में हैं। केन्द्र ने पिछड़ी जातियों के कोटे में 4.5 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण की घोषणा की। कानून मंत्री ने यह कोटा 9 प्रतिशत तक ले जाने का ऐलान किया। सपा ने इसे कम बताया, बसपा भी इसी के साथ खड़ी है। पिछड़ी जातियों का आरक्षण अधिकार छीनकर मुस्लिम वोट को देने का चुनावी खेल महंगा साबित हुआ। पहली गाज गिराई चुनाव आयोग ने। आयोग ने इसका क्रियान्वयन रोक दिया। भाजपा मजहबी आरक्षण के विरोध में सीना तानकर मैदान में आ गयी। मजहब आधारित आरक्षण संविधान सभा ने 1949 में ही खारिज कर दिया था। संविधान में अल्पसंख्यक आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं, सो भाजपा ने इसे ठीक ही संविधान विरोधी बताया है।
कांग्रेस की लीगी राह
कांग्रेस जिन्ना की मुस्लिम लीग हो गई है। पहले अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। फिर सच्चर कमेटी से कहलवाया कि मुसलमानों की हालत अनुसूचित जातियों से भी बदतर है। सिद्धांत यह बनाया कि जहां जहां इस्लाम, वहां वहां गरीबी और जहां जहां हिन्दू वहां अमीरी। फिर मजहब को ही गरीबी आदि का आधार बनाकर रंगनाथ मिश्र आयोग से एक रपट बनवाई गई। रपट में अल्पसंख्यकों के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की गई। आयोग ने कांग्रेसी इच्छा के अनुरूप पिछड़ों के आरक्षण कोटे से ही मुसलमानों को 10 प्रतिशत व शेष 5 प्रतिशत दीगर अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की संस्तुति की थी। आयोग ने हिन्दू धर्म छोड़ गए वंचित से मुसलमान या ईसाई बने नवईसाइयों/मुस्लिमों को अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण कोटे के भीतर शामिल करने का सुझाव दिया था। फोड़ा पुराना है, घाव अब फूटा है। पिछड़े वर्ग खफा हैं कि उनका हिस्सा मजहबी आरक्षण मार ले जाएगा। अनुसूचित जातियां गुस्साई हैं। उनके कोटे में भी ईसाई-मुसलमान शामिल किए जाने की वोट बैंकवादी राजनीति जारी है।
कांग्रेस की ही तरह अंग्रेजों ने 1871 में “विलियम विल्सन हंटर कमेटी” से ऐसे ही निष्कर्ष निकलवाये थे। तब मुस्लिम नेताओं ने हंटर कमेटी की रपट का धुआंधार प्रचार करवाया था। फिर अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक आधार पर सीटों का कानून बनवाया था। लेकिन अलगाववादी मांगों का अंत नहीं था। डा. अम्बेडकर ने मुस्लिम मांगों की तुलना चेकोस्लोवाकिया से हिटलर की मांगों से की थी। उन्होंने जिन्ना के मांग पत्र (1938) की 14 मांगों पर टिप्पणी की, “नई सूची देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि मांगों का अन्त कहां होगा।” मांगें बढ़ती गईं। संविधान सभा ने सरदार पटेल की अध्यक्षता में “अल्पसंख्यकों, मूलाधिकारों आदि सम्बंधी परामर्शदात्री समिति” बनाई थी। लेकिन स्थितियां बदल गयीं। लीग ने अलग मुल्क मांगा, सीधी कार्रवाई हुई, लाखों मारे गये। देश बंट गया। पटेल समिति ने 11 मई 1949 को अंतिम रपट में कहा, “स्थितियां बदल चुकी हैं, अब यह उचित नहीं है कि मुस्लिमों, ईसाइयों या किसी भी मजहबी अल्पसंख्यक के लिए कोई स्थान रक्षण रहे।”
नेहरू और पटेल की कांग्रेस ने ही अल्पसंख्यक आरक्षण की समाप्ति का निर्णय लिया था। लेकिन सोनिया की कांग्रेस लीग के रास्ते पर है। नेहरू कांग्रेस के वक्त संविधान सभा द्वारा गठित अल्पसंख्यक समिति में तजम्मुल हुसैन, बेगम एजाज रसूल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, हफीजुर्रहमान और जफर इमाम थे। पटेल समिति में अल्पसंख्यक आरक्षण की समाप्ति का प्रस्ताव तजम्मुल हुसैन ही ने किया था। उन्होंने संविधान सभा में (26 मई 1949) कहा, “सरदार पटेल के सभापतित्व में विचार हुआ। मैंने भाषण दिया। बेगम ने समर्थन किया। मौलाना आजाद और हफीजुर्रहमान ने विरोध नहीं किया।” अल्पसंख्यक समिति की आखिरी बैठक (11 मई 1949) में संविधान सभा के उपाध्यक्ष डा. एच.सी. मुखर्जी ने वही प्रस्ताव रखा, जो पारित हो गया। पटेल ने संविधान सभा में (25 मई 1949) समिति की रपट रखी और कहा कि मुस्लिम प्रतिनिधि ऐसे आरक्षणों के खिलाफ हैं। मुस्लिम आरक्षण राष्ट्र की एकता में बाधक था। आश्चर्य है कि सोनिया गांधी ने संविधान सभा की अल्पसंख्यक परामर्शदात्री समिति और संविधान सभा की कार्यवाही से कोई प्रेरणा नहीं ली।
सरदार पटेल का विरोध
संविधान सभा में दो दिन (25 व 26 मई 1949) बहस हुई। मजहबी आरक्षण के विचार को सिरे से खारिज कर दिया गया। उपाध्यक्ष डा. एच.सी. मुखर्जी ने कहा, “क्या हम एक ही राष्ट्र और एक असाम्प्रदायिक राज्य चाहते हैं? तो अनिवार्य निष्कर्ष है कि मजहब के आधार पर अल्पसंख्यक मान्यता नहीं दे सकते।” तजम्मुल हुसैन, मो. सादुल्ला, नजीरुद्दीन अहमद और बेगम एजाज रसूल ने भी इस आरक्षण का विरोध किया। सरदार पटेल ने संविधान सभा में कहा था, “जिन लोगों के दिमाग में लीग का ख्याल बाकी है उनसे मैं निवेदन करूंगा कि आप नव देश जाइए।” लेकिन कांग्रेस सरदार पटेल को नहीं मानती। पं. नेहरू ने संविधान सभा में अल्पसंख्यक आरक्षण पर लम्बा भाषण दिया था। सोनिया को यह भाषण (संविधान सभा, कार्यवाही 26 मई 1949) पढ़ना चाहिए। नेहरू ने कहा था, “मैं इस दृष्टि से विचार नहीं करता कि अमुक सम्प्रदाय मजहबी दृष्टि से अल्पसंख्यक है, इसलिए उसे आरक्षण मिलना चाहिए।” उन्होंने कहा, “सभी वर्ग अपना अपना विचारधारा-आधारित गुट बना सकते हैं, पर यह सब अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक पंथ आदि के आधार पर नहीं किया जा सकता।”
आखिरकार अल्पसंख्यक होने का बुनियादी आधार क्या है? क्या मुसलमान होना ही अल्पसंख्यक होना है? तजम्मुल हुसैन ने कहा, “हम अल्पसंख्यक नहीं हैं, अल्पसंख्यक शब्द अंग्रेजों ने दिया। वे चले गये, उनके साथ अल्पसंख्यक वर्ग भी चले गये। आप भी इसे डिक्शनरी से हटा दीजिए।” एक जमाना वह था, जब मुस्लिम सदस्य भी ऐसे आरक्षण के खिलाफ थे, एक जमाना अब है जब ढेर सारे मनमोहन, मुलायम और मायावती जैसे लोग मजहबी आरक्षण की ढपली बजा रहे हैं। उत्तर प्रदेश मजहबी आरक्षण के जरिए पिछड़ी जातियों का अधिकार छीनने वाली कांग्रेसी घोषणा से बेहद नाराज है।
उत्तर प्रदेश के चुनावी महासमर में कांग्रेस, सपा व बसपा एक साथ हैं। तीनों मुस्लिम आरक्षण के पैरोकार हैं। भाजपा अकेली है, जो पिछड़ी जातियों के आरक्षण में कोई सेंधमारी नहीं चाहती। नतीजा सामने है। पिछड़े वर्ग, अधिकांश पिछड़ी जातियां भाजपा के साथ आ गयी हैं। कांग्रेस का दांव उल्टा पड़ा। सपा, बसपा का वोट बैंक अब भाजपा के पाले में है। वंचितों का वोट बैंक बसपा से छिटक गया है। पांच बरस में उन्हें न रोजी मिली और न ही रोजगार। भाजपा के पक्ष में चल रही चुनावी लहर की यही खास वजहें हैं।द
टिप्पणियाँ