मुद्दों की नहीं, सत्ता की चिंता
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मुद्दों की नहीं, सत्ता की चिंता
द शशि सिंह
उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए पहले चरण का मतदान हो चुका है और दूसरे चरण का मतदान भी यह अंक आपके हाथों में होने तक संपन्न हो चुका होगा। मतदान में लोकतंत्र के प्रति जनता की प्रतिबद्धता भले ही पूरे उत्साह के साथ प्रकट हो रही हो, लेकिन राजनेताओं व राजनीतिक दलों की चिंता सिर्फ वोट पाने और सरकार बनाने तक सिमटी दिखती है। सपा, कांग्रेस व बसपा तो सत्ता के लिए खुलकर जातिवादी, मजहबी राजनीति का इस्तेमाल कर रही हैं। जनहित के मुद्दे इन दलों ने लगभग दरकिनार कर दिए हैं। सभी राजनीतिक दलों ने अपना चुनाव घोषणापत्र जारी कर दिया है। किसी दल ने छात्रों को मुफ्त लैपटाप का लालीपाप थमाने का वादा किया तो किसी ने इंटरमीडिएट तक लड़कियों को मुफ्त शिक्षा की घोषणा की है। एक दल ने तो मायावती का विरोध करते-करते दुराचार पीड़ित महिलाओं-लड़कियों को नौकरी देने तक की घोषणा कर दी, लेकिन उन्हें न्याय दिलाने की बात नहीं की और न ही इस बात का वादा किया कि उनके सत्ता में आने पर महिला उत्पीड़न की घटनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकेगा। मायावती हैं कि उनके ऊपर कोई असर ही नहीं पड़ रहा है। पिछली बार नारा लगाया था कि “चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर”, इस बार उस नारे को भूल गईं। उनके शासनकाल में जनता ने कानून-व्यवस्था का बदतर और घिनौना रूप देखा।
वैसे तो घोषणा पत्र किसी भी दल की भावी नीतियों का दस्तावेज होता है। पहले जनता घोषणाओं पर विश्वास करती थी, लेकिन अब वह बात नहीं रही। राजनीतिक दलों के झूठे वादों से तंग आकर उसने उन्हें अनसुना कर दिया है। फिर भी ये दल हैं कि वादे किए जा रहे हैं। सभी राजनीतिक दलों ने वादे किए, बड़े लुभावने वादे, ऐसे वादे जिन्हें पूरा करने की बात कुछ वैसी ही है जैसी लोकसभा चुनाव के समय मनमोहन सिंह ने कहा था कि विदेश में जमा काला धन 100 दिन के भीतर देश में लाया जाएगा। वह वादा ही रहा, उल्टे कालेधन की वापसी की मांग कर रहे बाबा रामदेव के समर्थकों पर दिल्ली में रात दो बजे लाठीचार्ज किया गया, जिसमें राजबाला नाम की एक महिला शहीद हो गई।
बहरहाल वादा करने में कोई भी राजनीतिक दल जमीनी हकीकत के आस-पास भी नहीं दिखा। विकास, जो प्रदेश में सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए- पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा ऐसे मुद्दे हैं जो सबकी जरूरत हैं, उस ओर किसी दल ने रुचि नहीं दिखाई है। प्रदेश के हालात इतने खराब हैं कि गांव तो क्या, शहरों तक में शुद्ध पेयजल की भारी कमी है। राजधानी लखनऊ तक में शुद्ध पेयजल एक सपना है। गंगा, यमुना और गोमती जैसी बड़ी नदियां असमय सूख रही हैं। जो पानी बचा है वह इतना प्रदूषित है कि मनुष्य तो क्या, पशुओं के पीने लायक भी नहीं रह गया है। उत्तर प्रदेश सिंधी समाज के प्रदेश अध्यक्ष मुरलीधर आहूजा कहते हैं शुद्ध पानी के साथ ही सिंचाई के लिए पानी स्थायी समस्या है। उसे दूर किये बिना प्रदेश की गरीबी से निपटना दिवास्वप्न जैसा है।
बिजली की हालत और भी खराब है। पिछली मुलायम सिंह और वर्तमान मायावती सरकार ने गांवों में 16 घंटे बिजली देने का वादा किया था, लेकिन गांव क्या, लखनऊ, नोएडा आदि कुछ महानगरों को छोड़ दिया जाए तो अन्य शहरों में आठ घंटे भी बिजली नहीं मिल पा रही है। इस सरकार के कार्यकाल में कोई “पावर प्रोजेक्ट” नहीं लग सका। हां, सरकार की ओर से कई “प्रोजेक्टों” पर हस्ताक्षर जरूर किए जाने की बात कही गई। इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष प्रशांत भाटिया कहते हैं बिना बिजली उद्योगों की कल्पना व्यर्थ है। सरकार की ओर से ढांचागत सुविधाएं मुहैया न कराए जाने के कारण उद्योग समूह राज्य की ओर रुख नहीं कर रहे हैं।
प्रदेश में सड़कें खस्ता हाल हैं। सरकार के पास डा. अंबेडकर के नाम पर पार्कों और स्मृति स्थलों को बनाने के लिए चार हजार करोड़ रुपये हैं, लेकिन सड़कों के नाम पर बजट का रोना रोया जाता है। मुलायम सिंह और मायावती के करीब आठ साल के शासन में किसी भी महत्वपूर्ण सड़क के निर्माण के बारे में नहीं सुना गया। मायावती शासन में “गंगा एक्सप्रेस वे” और “यमुना एक्सप्रेस वे” चर्चा में रहे। इनके बारे में सर्वविदित है कि जेपी समूह को लाभ पहुंचाने के लिए इनकी योजना बनी। राजधानी के सामाजिक कार्यकर्ता नानचंद लखमानी कहते हैं कि उक्त दोनों सरकारों की प्राथमिकता में कभी विकास रहा ही नहीं। योजनाएंं इसलिए बनायी जाती रहीं ताकि उनके धन की बंदरबांट की जा सके।
शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों की तरफ भी किसी राजनीतिक दल का ध्यान नहीं जा रहा है। पिछले आठ साल में सरकारी क्षेत्र में शायद ही कोई नया स्कूल या कालेज खुला हो। सर्व शिक्षा अभियान के तहत जरूर प्राथमिक स्कूल खोले जा रहे हैं। सभी को पता है कि इनका अधिकांश पैसा केंद्रीय योजनाओं से आता है। यह भी जनता की गाढ़ी कमाई से सरकारी खजाने में गए विभिन्न करों का योगदान है। लखनऊ विश्वविद्यालय कार्य परिषद के सदस्य और नेशनल इंटर कालेज के प्रबंधक अनिल सिंह कहते हैं कि राज्य सरकारों के स्तर पर शिक्षा के उन्नयन के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। सरकार ने वित्तविहीन स्कूलों और कालेजों के साथ ही वित्तविहीन पाठयक्रमों को मंजूरी जरूर दी। इससे तो निजी धन्ना सेठों और शिक्षा माफिया को ही फायदा हुआ। शिक्षा अति महंगी हो गई, स्वास्थ्य के मोर्चे पर भी किसी राजनीतिक दल का ध्यान नहीं गया। गोरखपुर में हर साल इंसेफ्लाइटिस (जापानी बुखार) से सैकड़ों मौतें होती हैं, लेकिन न तो मुलायम सिंह और न ही मायावती ने उसकी ओर ध्यान दिया। उत्तर प्रदेश होम्योपैथ एसोसिएशन के अध्यक्ष डा. वीरेंद्र बहादुर सिंह नवाब (जौनपुर) और राजधानी के छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पल्मोनरी विभाग के अध्यक्ष डा. सूर्यकांत कहते हैं कि सरकार ने शहरों और गांवों में रंच मात्र स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं दीं। माया सरकार में तो राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.एच.आर.एम.) योजना में अब तक का सबसे बड़ा घोटाला हुआ। दो मुख्य चिकित्साधिकारियों की हत्या, एक उप मुख्य चिकित्साधिकारी की जेल में संदिग्ध हालात में मौत और योजना से जुड़े एक इंजीनियर द्वारा आत्महत्या जैसे मामले सामने आए। गोरखपुर में कार्यरत पवन सिंह (अध्यक्ष, स्व. विजय प्रताप सिंह मेमोरियल वेलफेयर सोसाइटी) कहते हैं कि उनके यहां तो हर साल जापानी इंसेफ्लाइटिस से कम से कम 300 लोग मर जाते हैं लेकिन किसी भी सरकार ने ध्यान नहीं दिया। यहीं के निवासी इंजीनियर रवींद्र प्रताप कहते हैं कि जापानी बुखार से स्थाई तौर पर निजात के लिए गोरखपुर की जनता ने महीनों आंदोलन चलाया। गोरक्षपीठ के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ खुद धरने पर बैठे, लेकिन मायावती सरकार ने एक न सुनी और समस्या का कोई समाधान नहीं निकला। हालात जस के तस हैं। जापानी बुखार से मौतें अब भी हो रही हैं। कुल मिलाकर सत्ता अब राजनीतिक दलों के केन्द्र में आ गई है, जनकल्याण व सुशासन जैसी बातें शायद उनके लिए अहम नहीं रहीं। इसलिए केवल हवाई वादे और मुद्दों की उपेक्षा उनका शगल बन गया है, लेकिन जनता को वोट की ताकत से ऐसे दलों को सबक सिखाना होगा।द
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