सरोकार
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सरोकार
* मृदुला सिन्हा
एक समय था जब दो पैसे में भरपेट भोजन हो जाता था। एक गांव का किसान शहर आया। मुकदमे की तारीख पर कचहरी पहुंचा। दोपहर बाद गांव लौट रहा था। गर्मी का महीना था। भूख-प्यास से व्याकुल हो गया। सड़क के किनारे एक बुढ़िया सत्तू बेच रही थी। सत्तू के पहाड़नुमा ढेर पर लाल-लाल मिर्च शोभायमान हो रहे थे। किसान के मुंह में पानी भर आया। वह सत्तू वाली के पास पहुंचा। बोला-“”दो पैसे का सत्तू तौल दो।”” सत्तू वाली ने वैसा ही किया। उसने कहा-“”लो! सत्तू लो। मैं इसे पत्तल पर डलवाऊं?””
किसान बोला-“”रुको, रुको। मैं तुम्हें पैसे तो दे दूं।”” किसान अपनी कमर से धोती की पेंच में रखे रुपए निकालने लगा। सिक्का निकालकर अपनी हथेली पर रखा। थोड़ी देर उसे निहारता रहा। इधर सत्तू वाली ने तराजू में सत्तू लिए हाथ में डंडी थाम रखी थी। उसने कहा-“” जल्दी करो। मेरा हाथ दु:ख रहा है।””
किसान बोला-“”मेरी हथेली तो लक्ष्मी के आंसू से भीग गई?””
“”क्या मतलब?”” मतलब कि मेरी हथेली पर बैठकर लक्ष्मी रो रही हैं। वे मेरे पास से जाना नहीं चाहतीं। तुम अपना सत्तू रख लो। मैं भूखा-प्यासा ही गांव लौट जाऊंगा।”” किसान बोला।
सत्तू वाली झल्लाई-“”मैं तुम्हारा बहाना समझ रही हूं। सुनो, एक अधेला कम दे देना। सत्तू तो खा लो।””
“”नहीं, नहीं! लक्ष्मी रो रही हैं। मैं इन्हें अपने पास से नहीं जाने दूंगा।””
इधर सत्तू वाली सत्तू के दाम में दो-तीन अधेला कम करती रही, उधर किसान अपनी लक्ष्मी (सिक्के) को धोती के पेंच में पुन: संभाल कर रखता रहा। दो-चार लोग इकट्ठा हो गए थे। एक सज्जन बोले-“”अरी सत्तू वाली। रहने दो। इन्हें मैं जानता हूं। भारी कंजूस हैं, ये सत्तू नहीं खाएंगे।””
सत्तू वाली ने कहा-“”तभी तो मैं सत्तू का दाम कम करती जा रही हूं। मैंने भी तो ग्राहक का मन जानने में ही उम्र बिता दी। अब तो मैं बिना पैसे का ही सत्तू दे रही हूं। यह आदमी भूखा-प्यासा है। ऊपर से इतनी गर्मी। घर पहुंचते-पहुंचते इसका दम निकल जाएगा।””
इतना सुनने के बाद भी किसान सत्तू लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। घर की ओर बढ़ते उसके कदम तेज हो गए। सत्तू वाली को अपना एक पाव सत्तू न बिकने का गम नहीं था। वह तो किसान के भूखे रह जाने के लिए चिन्तित और दु:खी हो गई।
ग्राहक और दुकानदार का संबंध मात्र सामान खरीदने और बेचने तक नहीं रहता। ऊपर से दिखने वाला क्षणिक संबंध मन की गहराई में भी पहुंचता है। दोनों के मन को तौलता है। और यह तब होता है जब सामान का मोल-तोल होता है। ग्राहक के अंदर दुकानदार द्वारा ठगे जाने का भाव रहता है। दरअसल दोनों ओर से एक-दूसरे को ठगने का प्रयास चलता है। दुकानदार अपने ग्राहकों को समझाता है। जो ग्राहक अधिक मोलभाव करता या करती है उसे दुकानदार अधिक दाम बताता है। उसे पता है कि ग्राहक मोल-तोल करेगा। जो मोल नहीं करता उसे दुकानदार दूसरा दाम बताता है। एक घंटे में समाप्त हो जाने वाली सब्जी से लेकर पीढ़ियों तक चलने वाले गहनों की खरीददारी में भी मोल-तोल करने का रिवाज रहा है। दोनों के बीच लड़ाई नहीं होती। दुकानदार अड़ जाता है, इधर ग्राहक रूठ जाता है। कभी-कभी तो ग्राहक दुकान से उठकर बाहर चला जाता है। उसे भी पता है कि दुकानदार आवाज लगाएगा। कभी-कभी सामान नहीं खरीदने का मन रहने पर ग्राहक ऐसा दाम लगा देता है कि दुकानदार कभी दे ही नहीं सकता। ऐसी परिस्थिति में दुकानदार झल्लाकर कहता सुना जाता है- “”कभी देखा भी है। जेब में पैसा नहीं है तो चले क्यों आए बाजार में। मेरा भी समय बर्बाद किया।””
कपड़े बेचने वाले को मोटिया कहा जाता था। कपड़े का मोटा (गट्ठर) लेकर वह गांव में घूमता था। कभी-कभी ग्राहक और मोटिया के बीच बहुत देर तक हुज्जत के बाद भी किसी कपड़े का दाम तय नहीं होता था। मोटिया चला जाता था। दूसरे दिन फिर आता। दोनों के बीच हुज्जत होती। कोई तीसरा व्यक्ति आ जाता। ग्राहक और दुकानदार को अलग-अलग ले जाकर बात करता। फिर समझौता करवा देता। एक सामान खरीदने में ग्राहक और दुकानदार का बहुत देर का साथ होता।
दरअसल सामान बेचना और खरीदना दोनों एक कला है। दुकानदार और ग्राहक, दोनों एक-दूसरे की जरूरत हैं। समाज व्यवस्था को सुदृढ़ करने में इन दोनों के बीच संबंध की विशेष भूमिका होती है। मोल-भाव मात्र पैसे का जोड़-घटाव नहीं, कौन जीता, कौन हारा की संतुष्टि भर नहीं देता, मोल-भाव तो दोनों के बीच मानवीय संबंध स्थापित करता है। एक-दूसरे को समझने का मौका देता है।
दादी मोल-भाव करने में कुशल थीं। दूसरे आंगन से भी महिलाएं मोल-भाव करने के लिए उन्हें बुलाकर ले जाती थीं। एक बार एक चादर का मोल-भाव करती दादी मोटिया पर बहुत नाराज हो गईं। चादर तो खरीदी गई, लेकिन मोल-भाव में देर बहुत लगी। दादी बहुत गुस्सा हो गईं थीं। चादर खरीद लेने पर उनका गुस्सा शांत हुआ। मोटिया अपना सामान बांध रहा था। दादी बोलीं-“”रुको! बोलते-बोलते तुम्हारा गला सूख गया होगा। पानी पी लो।””
दादी ने पानी के साथ दो पुए भी मंगवाए। स्वयं हुक्का गुड़गुड़ाती बैठी रहीं। मोटिया को पुए खिलवाए। मोटिया उन्हें प्रणाम कर आगे बढ़ा। दादी ने कहा-“”जाओ! हमारे यहां से बोहनी (शुरुआत) हुई है। आज अच्छी कमाई होगी।””
मोलभाव में दुकानदार की ओर से कसमें भी खाई जाती हैं। दुकानदार ग्राहक पर अपना एहसान जताना नहीं भूलता-“”आप ही को इतने कम दाम पर दे रहा हूं। किसी को बताइएगा नहीं।”” ग्राहक ठगा जाकर भी जीतने की मानसिकता में आ जाता है।
इन छोटे-मोटे, पर विशेष महत्व के लोक-व्यवहारों को असभ्य बताने वाले सभ्यता का अर्थ ही नहीं जानते। कोई भी वह व्यवहार जो दो व्यक्तियों को देर तक जोड़े रखता है, असभ्य हो ही नहीं सकता। ऐसे ही लोकव्यवहारों में मोल-भाव की नोक-झोंक भी है। यह भी एक भाव है। दो भूमिकाओं में दो व्यक्तियों को जोड़ता है। संबंध बनाता है। कभी-कभी दुकानदार, खरीददार की वेशभूषा देखकर उसकी जेब की औकात नहीं जान पाता। मेरे एक दादा जी के साथ ऐसा ही हुआ था। शहर की एक बड़ी दुकान में खरीददारी के लिए गए। उन्होंने अपने द्वारा पसंद किए गए कपड़े का दाम दुकानदार द्वारा बोले गए दाम से आधा बोल दिया। दुकानदार ने कहा-“”जाइए, जाइए! गांठ में रुपये नहीं हैं, आप महंगा कपड़े खरीदने आए हैं?
फिर क्या था। दादा जी ने कपड़े के बटुए में रखे रुपए की गड्डी निकाली। पूछा-“”तुम्हारी इस दुकान की क्या कीमत है? मैं कपड़े सहित दुकान ही खरीद लूंगा।””
दुकानदार सहम गया। माफी मांगने लगा। कुछ लोगों के बीच-बचाव करने पर मामला शांत हुआ। दादा जी उठ गए। दुकानदार ने उनके द्वारा पसंद किए गए कपड़े उन्हीं के मुख से निकले दाम पर उनके गांव पहुंचाए। दादाजी ने कपड़े लेकर आए व्यक्ति को आदर से बिठाया, खिला-पिलाकर कुछ बख्शीश भी दी और दुकानदार का पैसा देकर वापस भेजा।द
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