समाज
|
बच्चियों के प्रति बेदर्द दिल्ली
द अरुण कुमार सिंह
यह कलियुग का ही प्रभाव कहा जाएगा कि कोई मां अपनी अबोध सन्तान को कहीं छोड़कर भाग जाए। नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के ट्रामा सेन्टर में जीवन और मौत के बीच झूल रही 2 वर्षीया फलक के साथ तो यही हुआ। यदि फलक को उसकी मां नहीं त्यागती तो शायद वह इस हालत में नहीं पहुंचती। यानी फलक के साथ जो हो रहा है, उसके लिए पहली दोषी तो उसकी मां ही है। आगे बढ़ने से पहले फलक के साथ क्या हुआ और वह अस्पताल कैसे पहुंची, इसको जानना जरूरी है। कहा जा रहा है कि 18 जनवरी को 14 वर्षीया एक किशोरी बुरी तरह घायल फलक को लेकर ट्रामा सेन्टर पहुंची। वहां उसने अपने को फलक की मां बताते हुए फलक का दाखिला कराया। किन्तु अस्पतालकर्मियों को किशोरी की बातों पर विश्वास नहीं हुआ और पुलिस बुला ली गई। पुलिस ने किशोरी को हिरासत में लेकर पूछताछ की तब यह मामला और पेचीदा हो गया। साथ ही यह भी साफ हो गया कि फलक की मां वह किशोरी नहीं, बल्कि और कोई है। इस सम्बंध में एक नया मोड तब आया जब उत्तम नगर में रहने वाली लक्ष्मी नामक महिला से पुलिस ने पूछताछ की। लक्ष्मी ने पुलिस को बताया, “7 सितम्बर, 2011 को फलक को लेकर एक महिला उसके पास आई और कहा, “मेरे पति का निधन हो गया है। बच्ची छोटी होने की वजह से कुछ काम भी नहीं कर पाती हूं। घरेलू काम के लिए मुझे रख लो।” उसका दु:ख मुझसे देखा नहीं गया और मैंने उसे अपने घर रख लिया। किन्तु 15-20 दिन बाद वह एक दिन अचानक फलक को छोड़कर भाग गई। 2 साल की बच्ची की देखरेख करना मेरे लिए संभव नहीं था। इसलिए कुछ दिन बाद मैंने उसे पड़ोस में रहने वाले मनोज को सौंप दिया।”
अब कहा जा रहा है कि मनोज ने फलक को अपने दोस्त राजकुमार उर्फ मोहम्मद दिलशाद अहमद को दे दिया। 13 जनवरी को दिलशाद उस बच्ची को अपनी प्रेमिका के पास छोड़कर मुम्बई चला गया। इधर उसकी नाबालिग प्रेमिका फलक की देखभाल नहीं कर पा रही थी। गुस्से में उसने फलक को कई जगह दांतों से काट डाला। जब फलक की तबीयत ज्यादा खराब हो गई तो वही उसे ट्रामा सेन्टर लेकर पहुंची।
इसके बाद से ही दिल्ली पुलिस फलक के मां-बाप को तलाशने में जुटी है। 31 जनवरी को फलक की मां मुन्नी भी पुलिस की गिरफ्त में आ चुकी है। मुन्नी ने अपनी नन्ही सी बेटी फलक को क्यों त्यागा? इसका उत्तर तो मुन्नी ही दे सकती है। पर इस घटना से कुछ ऐसे सवाल उठ रहे हैं, जिनका समाधान किया जाना जरूरी है। आखिर राजधानी दिल्ली बच्चियों के लिए इतनी बेदर्द क्यों हो रही है? जिस देश की राष्ट्रपति एक महिला हो, जिस राज्य की मुख्यमंत्री महिला हो वहां बच्चियों के प्रति ऐसा क्रूर व्यवहार क्यों हो रहा है? बेसहारा बच्चियों की संख्या क्यों बढ़ रही है? लोग कोख में ही लड़की को क्यों मारने लगे हैं? दुष्कर्म और बलात्कार के मामले क्यों बढ़ रहे हैं? इन सवालों के जवाब खोजने ही पड़ेंगे। तथ्यों के अनुसार दुष्कर्म के 97 प्रतिशत आरोपी जानकार ही निकल रहे हैं, ऐसा क्यों हो रहा है? इन प्रश्नों का उत्तर दिल्ली विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग की अध्यक्षा डा. अशुम गुप्ता इन शब्दों में देती हैं, “स्त्रियों के प्रति पुरुषों की सोच नहीं बदल रही है। पुरुष स्त्री को अभी भी केवल भोग्या समझते हैं। यही वजह है कि जब भी किसी पुरुष को मौका मिलता है वह किसी स्त्री के साथ छेड़खानी….। एम्स में दाखिल बच्ची की मां के बारे में कहा जा रहा है कि उसने बड़ा बुरा किया। किन्तु मैं यह नहीं मान सकती कि कोई मां अपनी सन्तान को इस तरह कहीं छोड़ देगी। जरूर उसके साथ ऐसी कोई मजबूरी होगी। वह मजबूरी क्या थी? उसकी जांच होनी चाहिए। फिर यह सुनिश्चित किया जाए कि फिर किसी मां के सामने ऐसी मजबूरी न आए कि वह अपनी सन्तान को कहीं छोड़ दे।”
दिल्ली में बेसहारा लड़कियों की संख्या भी कुछ ज्यादा ही बढ़ रही है। किन्तु उनको सहारा देने की कोई अच्छी व्यवस्था भी नहीं है। गैर सरकारी संगठनों और सरकार द्वारा संचालित जो “गल्र्स होम” हैं, उनमें क्षमता से अधिक बच्चियां रह रही हैं। इधर कुछ वर्षों से यह भी देखा जा रहा है कि कोई मां अपनी नन्ही बेटी या बेटे को अस्पताल या किसी अनाथालय में छोड़कर चली जाती है। ऐसी पत्थर दिल माताओं के कारण नवजात शिशु अपनी आंखें खोलने से पहले ही किसी “चाइल्ड्स होम” में पहुंच जाते हैं। उल्लेखनीय है कि अधिकांश “चाइल्ड्स होम” ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित होते हैं। वहीं वे बच्चे पलते-बढ़ते हैं और बाद में ईसाइयत के प्रचार-प्रसार में लग जाते हैं। जबकि ऐसे अधिकतर बच्चे जन्म से हिन्दू होते हैं। ऐसे बच्चों को ध्यान में रखते हुए सेवा भारती द्वारा दिल्ली में “मातृछाया” नाम से दो केन्द्र चलाए जा रहे हैं। एक केन्द्र है पश्चिमी दिल्ली के मियांवाली नगर में और दूसरा केन्द्र है पहाड़गंज इलाके में स्थित आरामबाग के उदासीन आश्रम में। इन दोनों केन्द्रों में ऐसे बच्चों को रखा जाता है। केन्द्र में आने वाले किसी भी नए बच्चे की जानकारी पहले पुलिस-प्रशासन को दी जाती है। फिर चिकित्सकीय जांच होती है। इसके बाद इन बच्चों को नि:सन्तान दम्पतियों को गोद दिया जाता है, ताकि इन बेसहारा बच्चों को सहारा मिल जाए। इस प्रकार नि:सन्तान दम्पति सन्तान वाले बन रहे हैं, साथ ही एक हिन्दू बच्चा ईसाई बनने से बच रहा है। लेकिन इस मामले में शासन-प्रशासन की संवेदनशीलता और कड़ाई तथा सामाजिक जागरूकता बढ़ानी होगी ताकि फलक जैसे निर्मम हादसे और न हों। द
टिप्पणियाँ