चर्चा सत्र
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देश की बर्बादी
मुजफ्फर हुसैन
अमरीका में वाल स्ट्रीट जरनल एक ऐसा अखबार है जिस पर सारी दुनिया की नजरें जमी रहती हैं। उसमें किसी टिप्पणी का प्रकाशित होना व्यापारिक जगत में किसी फतवे से कम नहीं माना जाता है। करोड़ों की उठापटक के शेयर बाजार इसके समाचार और विश्लेषण से किसी को करोड़पति बना देते हैं तो किसी को कंगाल। वाल स्ट्रीट जिसे चाहे किसी देश का नेता बना देता है और समय आने पर उसे धूल भी चटा देता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नेता के रूप में तो बाद में प्रस्थापित हुए उससे पहले वे वित्त मंत्रालय के सचिव पद पर भी आरूढ़ रहे और फिर भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर पद को भी सुशोभित किया। उनकी आर्थिक नीतियों की जहां भूरि-भूरि प्रशंसा हुई, वहीं 1977 में मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री के रूप में अपनी सेवाएं देने वाले एच. एम. पटेल एवं तत्कालीन रिजर्व बैंक के गवर्नर आई. जी. पटेल उनकी रीति-नीतियों के कड़े आलोचक भी रहे।
उदारीकरण का मोह
पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने अपने मंत्रिमंडल में मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया था। उनका सबसे बड़ा कारनामा यह था कि उन्होंने आर्थिक क्षेत्र में उदारीकरण की नीतियों का श्रीगणेश कर एक नई राह अपनाई। उनका मानना था कि भारत जब तक विश्व में जारी उदारीकरण को नहीं अपनाएगा वह विकास के पथ पर अग्रसर नहीं होगा। आज तक भारत में चली आ रही स्वदेशी की नीति को उन्होंने तिलांजलि दी। जिसका अर्थ यह था कि भारत ने समाजवाद से मुंह मोड़कर पूंजीवाद का रुख अपनाया। नरसिंह राव ने इस नई पगडंडी पर चलना शुरू किया। बाद में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आई तब भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया।
लेकिन पिछले दिनों अमरीका और यूरोप में जिस प्रकार से मंदी की लहर उठी उसने एक बार फिर से उदारीकरण की नीतियों के सम्मुख प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया है। यूरोप के अनेक देश दिवालिएपन की स्थिति में आ गए और अमरीका की सरकार बार-बार “बेल आउट” देकर भी अपनी साख को नहीं बचा सकी। हाल ही की बात है जब एक समय की अन्तरराष्ट्रीय स्तर की कंपनी कोडक, जिसमें किसी समय सात हजार लोग काम करते थे, सात सौ कर्मचारियों तक सिमट गई। ओबामा ने न केवल “आउट सोर्सिंग” बंद कर दी, बल्कि यह कहना भी शुरू कर दिया कि “बी अमरीकन-बाय अमरीकन।” जिस उदारीकरण के गीत गाए जा रहे थे उसे अब दुनिया ने नकारना शुरू कर दिया है। उदारीकरण ग्रीक और इटली के लिए दिवालियेपन का कारण बन गया है। जो उदारीकरण के प्रणेता थे वे ही अब इस रास्ते को बदलने लगे हैं। स्वदेशी में अपनी आस्था रखने वाले भारत को इस पर विचार करना पड़ रहा है। सरकार चाहे जिस नशे में रहे और हमारे नेता चाहे जितनी वकालत करें लेकिन कृषि प्रधान भारत की जनता को विश्वास हो गया है कि यह आत्महत्या का मार्ग है। इसका आकलन केवल भारत की जनता ही नहीं कर रही है, बल्कि वाल स्ट्रीट जरनल जैसे अखबार ने यह चेतावनी दे दी है कि मनमोहन सिंह की नीतियां भारत के लिए घातक हैं। इस पत्र ने स्पष्ट लिखा है कि कुछ ही समय में भारत की अर्थव्यवस्था नाजुक दौर में चली जाएगी।
असफल मनमोहन
मनमोहन सिंह की असफलताओं का विस्तृत विवरण इस समाचार पत्र ने प्रस्तुत किया है। वाल स्ट्रीट जरनल ने लिखा है, “डा. मनमोहन सिंह के पास न तो नीति है और न ही जन समर्थन। आज तक भारत की संसद में किसी भी प्रधानमंत्री की इतनी आलोचना नहीं हुई है जितनी मनमोहन सिंह की हो रही है। सरकार को विरोधी दल बार-बार घेरते हैं इसलिए संसद चल ही नहीं पाती है। सरकार अपने संख्याबल के बूते अपना प्रस्ताव तो पारित करवा लेती है लेकिन उसे आम जनता का समर्थन नहीं मिलता है। संसदीय प्रणाली में इस परंपरा को जायज नहीं कहा जा सकता है। सांसद किसी विधेयक को पारित कर लें, लेकिन जिस जनता ने उन्हें चुना है वह उनके पक्ष में नहीं है तब आज नहीं तो कल इसका परिणाम सरकार को भोगना ही पड़ेगा। लोकपाल विधेयक को लेकर सरकार की राज्यसभा में जो किरकिरी हुई है वह इसका जीता जागता उदाहरण है। इसका प्रभाव विदेशों में भी देखने को मिलता है। भारतीय लोकतंत्र की गरिमा और प्रतिष्ठा जो 2004 तक रही वह अब घटती जा रही है।” वाल स्ट्रीट जरनल ने मनमोहन सिंह की योग्यता पर ही सवाल खड़े कर दिये हैं। अखबार में प्रकाशित एक ब्लाग पर मनमोहन सिंह को अर्थशास्त्री नहीं बल्कि “टेक्नोक्रेट” कहा गया है। ब्लाग में भारत की सकल घरेलू उत्पाद दर में गिरावट, रुपये का अवमूल्यन और शेयर बाजार में गिरावट जैसी कुछ चीजों का हवाला देते हुए भारी चिंता व्यक्त की गई है। पत्र लिखता है, “2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो विश्व में इसकी अच्छी और सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई। विश्व को आशा थी कि भारत को इसका लाभ मिलेगा और इससे देश के औद्योगिक एवं तकनीकी क्षेत्र में भारी प्रगति होगी। लेकिन आठ वर्ष बीत जाने के पश्चात भी यह आशा फलीभूत नहीं हुई। यदि मनमोहन सिंह आत्ममंथन करें तो वे स्वयं इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि उन्होंने भारत के लिए क्या किया? उनकी कोई राजनीतिक हैसियत न तो कल थी और न आज है, फिर भी कांग्रेस ने उनको इस ओहदे पर पहुंचाया। वे बताएं कि उन्होंने कांग्रेस और देश को क्या दिया? आर्थिक सुधार की चीख-पुकार की जाती है, लेकिन भारत में किसानों की आत्महत्याओं के समाचार प्रतिदिन आते हैं। देश में ऊर्जा का अभाव है। कितने घंटे बिजली नहीं आती। भारत की अर्थव्यवस्था तो खेती पर निर्भर है, लेकिन यहां तो हर साल किसानों की आत्महत्याओं के मामले बढ़ते जा रहे हैं। यदि औद्योगिक उत्पादन बढ़ रहा है तो फिर सकल घरेलू उत्पाद दर क्यों गिर रही है? अब तो वह सात प्रतिशत भी रह पाएगी या नहीं, इसमें शंका है।”
अर्थशास्त्री का करिश्मा नहीं
वाल स्ट्रीट ने आगे लिखा है, “मनमोहन सिंह यदि कांग्रेसी सांसदों और अपने समर्थकों को एकजुट रख सके हैं तो यह किसी अर्थशास्त्री का करिश्मा नहीं है। सांसदों की राजनीतिक एकजुटता तो उनके राजनीतिक दल से जुड़ी विवशता पर आधारित है। सांसद जानते हैं कि वे अपनी पार्टी का समर्थन नहीं करेंगे तो उनकी सरकार चली जाएगी। मनमोहन की सफलता तो उस समय कही जा सकती थी जब वह अपने कार्यों और नीतियों के परिणामस्वरूप अपनी पार्टी का कद ऊंचा करने में सफल होते। मनमोहन सिंह की प्रमुख नीतियों में रोजगार मुहैया कराने वाली ऐसी योजनाएं हैं जिनसे श्रम बाजार पर प्रभाव पड़ा और जिसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला। गुमराह करने वाली ऐसी शिक्षा नीति बनाई गई जिससे निजी शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। खाद्य सुरक्षा कानून से अर्थव्यवस्था पर खराब प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि इससे एक अरब 20 करोड़ की आबादी वाले देश में अधिकतर लोगों को राशन दिये जाने का प्रावधान है।” लेकिन भारत में बढ़ती महंगाई और रुपये का घटता मूल्य क्या इस बात के प्रमाण हैं कि मनमोहन सिंह की आर्थिक उदारवाद की नीति ने भारत को जिस स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है उसके नतीजे में या तो हम अपनी पुरानी स्वदेशी परपंरा पर लौट जाएं या फिर अमरीका और यूरोप की तरह अपने आपको दिवालिया कहलाने की प्रतीक्षा करें?
जो लोग अंतरराष्ट्रीयता और उदारवाद के गुणगान करते नहीं थकते, उन्हें सोचना होगा कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारत कहां जा रहा है। कालेधन और भ्रष्टाचार की बात हम नहीं करते, क्योंकि वे उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा कहकर अपनी झेंप मिटा सकते हैं। लेकिन कबूतर अपनी आंख बंद कर ले तो इसका अर्थ यह नहीं होता है कि बिल्ली चली गई है और कबूतर के प्राण सुरक्षित हैं। अमरीका में भविष्य की महाशक्तियों के नाम को संक्षेप में “ब्रिक” (बी. आर. आई. सी.) शब्द दिया गया है, जिसका अर्थ है-ब्राजील, रूस, “इंडिया” और चीन। लेकिन अब अमरीका में यह कहा जाने लगा है कि जो “आई” “इंडिया” के लिए था वह अब इंडोनेशिया के लिए होगा। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारत ने कितनी प्रगति की है, उसका उत्तर “ब्रिक” की बदली परिभाषा में मिल जाता है। द
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