साहित्यिकी (गवाक्ष)
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शिवओम अम्बर
बसंत पंचमी पर विशेष
वसंत पंचमी कविता और कला की अधिष्ठात्री वाग्देवी सरस्वती की प्रथम अर्चा-तिथि है। महाप्राण निराला की मान्यता थी कि यह हर कवि की भावात्मक जन्मतिथि भी है। श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान ने “ऋतूनां कुसुमाकर” कहकर अपनी विशिष्ट विभूति का परिचय दिया है। वसंत प्रकृति की उत्सवधर्मिता का प्रतीक है। कवि वसंत का अग्रदूत कहा जा सकता है। जहां उत्सव है, उल्लास है, स्वयं को भरपूर लुटाने का आवेग है, सर्व के साथ संयुक्त होने का संवेग है, वहां परम सत्ता का ऐश्वर्य घनीभूत होकर उपस्थित है। उस ऐश्वर्य की स्वस्ति- प्रतिमा है सरस्वती। माघ के महीने में सूर्य उत्तरायण हो जाता है। उसकी पंचमी तिथि से प्रारंभ होकर पूर्णिमा तक देश में जगह-जगह सरस्वती के अर्चा- अनुष्ठान चलते हैं, साहित्यिक-सांस्कृतिक समारोहों के रूप में वाग्देवी की रूप श्री अद्भुत प्रतीकों से समन्वित है। वह श्वेत कमलासना हैं, हंसवाहिनी भी। श्वेत कमल परम सात्विकता को व्यंजित करता है। भाव-जल में कमलवत रहने की शिक्षा भारतीय अध्यात्म-साधना का सार-तत्व है। यह कमल की वागीश्वरी का आसन है। हंस नीर, क्षीर विवेक का प्रतिनिधित्व करता है। वह पृथ्वी, जल और आकाश-तीनों ही आयामों का अवगाहन करने में समर्थ है। उसकी गति अप्रतिहत है और मति निष्कल्मष। इसी कारण वह वाणी का वाहन बन सका है। अक्षरा वाणी के एक हाथ में जपमाला और एक हाथ में पुस्तक है। “यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि” की चरितार्थता जैसी सरस्वती की जपमाला परम आत्मतत्व की सतत स्मृति की संरक्षिका है तो पुस्तक शब्द में समाहित सत्य की सम्प्रतिष्ठा है। उनके तीनों हाथों में सुशोभित वीणा जीवन-संगीत को जानने और जीने की दीक्षा है। सरस्वती अपने श्री विग्रह में कला, कविता, प्रज्ञा की साधना, उपासना, आराधना की तथा रिद्धि-ऋद्धि और समृद्धि की एकीकृत त्रिवेणी है।
मनुष्य ने जबसे गुनगुनाना प्रारंभ किया, उसने माता वागीश्वरी के चरणों में प्रार्थना के पारिजात रखे और उनके लिए संस्तवनों के स्तवकों की रचना की। उसकी वंदनाओं में उसकी सहज कामनाएं भी सगुम्फित हुईं, उसकी प्रणति-भंगिमाएं भी। ऋग्वेद का ऋषि “पावका न: सरस्वती” वाले प्रसिद्ध मंत्र में अपनी ज्ञान-विज्ञान प्राप्ति की अभीप्सा को मां के सम्मुख प्रकट करता है। श्री बशीर अहमद मयूख के द्वारा प्रस्तुत इस मंत्र का भावानुवाद इस प्रकार है-
हे साहित्य कला की देवी,
हे मन पावन करने वाली
श्री सम्वर्धिनि, हे सरस्वती!
तू अगाध गहरा सागर है,
जिसमें ज्ञान तरंगें बहतीं,
यज्ञ-तपोमय जीवन से
यदि करें साधना
तो तू बुद्धि प्रखर होने का
वर देती है
जीवन को सम्पन्न बना दे,
ज्ञान और विज्ञान युक्त कर,
हे साहित्य कला की देवी!
भारतीय साहित्य के सार्वकालिक कवि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने विश्वविश्रुत महाकाव्य की मंगलाचरणी पंक्तियों में वाग्देवी को प्रणति निवेदित करते हुए उन्हें वर्ण, अर्थ, रस, छंद और मंगल की विधात्री के रूप में देखा है। उनकी दृढ़ आस्था है कि सरस्वती का आह्वान रामत्व की प्रतिष्ठा के लिए, सत्यं, शिवं, सुंदरम् की अवतारणा के लिए ही किया जाना चाहिए। क्षुद्र स्वार्थों की येन- केन-प्रकारेण पूर्ति के लिए शब्द-शक्ति का प्रयोग वस्तुत: वाग्विग्लापन ही है, उसका निषेध होना चाहिए-
भगति हेतु विधि भवन विहाई,
सुमिरत सारद आवत धाई।
रामचरित सर बिनु अन्हवाये,
सो श्रम जाइ कि कोटि उपाये।
कवि कोविद अस हृदय विचारी,
गावहिं हरि जस मंगलकारी।
कीन्हे प्राकृत जन गुन गाना,
सिर धुनि गिरा लगति पछिताना।।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के परिवेश में एक अभिनव भारत का बिम्ब अपने चित्त में संजोये निराला ने वीणापाणि से नवोत्कर्ष का वरदान मांगा था-
नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव,
नव नभ के नव विहग वृन्द को
नव पर नव स्वर दे-
वीणावादिनी वर दे!
अंतत: भारत को नया आकाश उपलब्ध हुआ भी। नये पक्षी नये स्वप्नों के साथ नये गीत गाते हुए उड़े भी। किन्तु बहुत शीघ्र उड़ानें खरोंच खा गई। छायावाद की दीपशिखा कही जाने वाली महादेवी ने अपनी अंतिम कृति “अग्निरेखा” में वीणापाणि से प्रश्न किया-
वीणावादिनी! कस लिया आज क्या- अग्नि तार?
आंखों का पानी चढ़ा-चढ़ा कर अग्नि-तार?
इस युग के समर्थ गीतकार रमानाथ अवस्थी ने भी अपने एक गीत में वाग्देवी से अनुरोध किया है कि वह अग्नि-वीणा के तारों को छेड़कर इस प्रसुप्त देश की शीतल शिराओं में नई आग का संचार करें-
वीणा को छोड़ आज छेड़ अग्नि-वीणा,
कोई तो कहीं नई आग गुनगुनाये।
डा.कुंअर बेचैन अपनी वाणी-वंदना में प्रार्थना करते हैं कि हर पराजय अंतत: मां के अनुग्रह से विजय में परिवर्तित हो और शब्द-साधना अपने सर्वोच्च सोपान अनहद तक पहुंच सके-
गूंजे अनहद नाद हृदय में
नवल स्वरों में नूतन लय में,
मां, वर दे प्रत्येक पराजय,
परिवर्तित हो जाय विजय में।
कर वह कृपा सघन तम भागे,
ज्ञान ज्योति-पट खोले।
अपने विद्यार्थी जीवन में किसी पत्रिका में ब्रजभाषा में रची गई एक सरस्वती वंदना पढ़ी थी। कवि का नाम तो स्मृति में नहीं है किन्तु ये पंक्तियां आज भी बहुवर्तिका आरती की तरह भाव-जगत में दीप्त रहती हैं। आरती प्रभु के समक्ष अपनी आर्त्ति का निवेदन भी तो है-
जानौ नहिं पूजन को महत विधान
ध्यान अनुमान हीन हौं निबल मति वारो हौं,
नीरस हौं निपट गुमान में ही डूब्यो रहौं
विविध कुबुद्धि की नदीन को किनारो हौं।
दीन हौं मलीन छीन अमित सुजानन के
पानीदार तनाव के बानन को मारो हौं।
औगुन अगारो हौं सितारो पातकीन को हौं
खोटो हौं खरो हौं, मातु जो हौं सो तिहारो हौं।।
इधर लिखी गई सरस्वती वंदनाओं में से डा.बुद्धिनाथ मिश्र की “शिखरिणी” में प्रकाशित वंदना अपनी अलग भंगिमा, अभिधा-लक्षणा- व्यंजना की त्रिगुणमयी शक्ति और एक अनूठी वाग्विभा के कारण हर सहृदय को सहज ही आकृष्ट करती है। उसकी कुछ पंक्तियां उद्धृत कर रहा हूं-
अपनी चिट्ठी बूढ़ी मां
मुझसे लिखवाती है,
जो भी मैं लिखता हूं
वह कविता हो जाती है।
कभी-कभी जब भूल
विधाता की मुझको छेड़े,
मुझे मुरझता देख
दिखाती सपने बहुतेरे।
कहती तुम हो युग के सर्जक
बेहतर ब्रह्मा से
नीर क्षीर करने वाले
हो तुम्हीं हंस मेरे।….
फूलों से भी कोमल
शब्दों से सहलाती है,
मुझे बिठाकर राजहंस पर
सैर कराती है।…
मां और पुत्र के इसी भावात्मक संवाद को हृदयंगम करते हुए आज वागीश्वरी को प्रणति निवेदित कर रहा हूं।द
अभिव्यक्ति मुद्राएं
तुम सुधा की खोज में हो मैं अमिय ढुलका रहा हूं,
स्वर जहां पर मौन होते मैं वहां से गा रहा हूं।
इसलिए भाषा तुम्हारी और मेरी और राही,
तुम जहां को जा रहे हो मैं वहां से आ रहा हूं।
-लाखनसिंह भदौरिया “सौमित्र”
यश के लिए लिखे न धन के लिये
गीत लिखे प्रभु के भजन के लिये,
अर्थभरी दुनिया को रुचे न रुचे
गाये गुनगुनाये मैंने मन के लिये।
वो हाथ क्या कि जिसकी हथेली हो खुली-
ऐसी जिंदगी से प्यारे मौत ही भली।
-आत्मप्रकाश शुक्ल
खेल कुर्सी का
घमंडीलाल अग्रवाल
अपने मन की पराधीन-सी
कारा तोड़ो तो,
संसद की भाषा में बातें
करनी छोड़ो तो।
खेल कुर्सियों का तड़पाता
लोकतंत्र रोता,
सतरंगी-सपना गरीब की
आंखों में खोता,
जन-जन फिर खुशहाल दिखेगा
जिद यह छोड़ो तो।
सच्चाई की कीमत थोड़ी
झूठ हुआ महंगा,
नैतिकता का छोटा पड़ता
रोजाना लहंगा
झोपड़ियों के दरके दर्पण
उठकर जोड़ो तो!
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