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मतदाता ही सिखा सकते हैं सबक

by
Jan 28, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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सम्पादकीय

दिंनाक: 28 Jan 2012 15:56:35

जमाने की हवा का रुख पहचानकर देश के नेता अपने कार्यक्रम में सुधार नहीं करते हैं तो जमाना आगे निकल जायेगा और नेता पीछे रह जायेंगे। जमाना नेताओं के लिए रुका नहीं रहेगा।

-लोकमान्य तिलक

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मतदान शुरू होने से पहले चुनाव आयोग का यह कहना कि इस चुनाव प्रणाली से भ्रष्टाचार पनपता है, भारत के लोकतंत्र पर गंभीर सवाल खड़े करता है। वस्तुत: हमारी चुनाव प्रणाली को लेकर शुरू से ही संदेह व्यक्त किए जाते रहे हैं, क्योंकि इस चुनाव प्रक्रिया में निष्पक्षता व ईमानदारी बनाए रखना अत्यधिक संशयात्मक रहा है, विशेषकर तब जबसे राजनीति में धनबल और बाहुबल की भूमिका बढ़ती गई। इस पर अंकुश लगाने में चुनाव आयोग तो बेबस रहा ही, सत्ता स्वार्थों के चलते अधिकांश राजनीतिक दल भी इसमें रुचि नहीं दिखाते। परिणामत: चुनावों में बाहुबलियों, यहां तक कि बड़ी संख्या में “हिस्ट्री शीटरों” व गंभीर अपराधों में आरोपित व्यक्तियों व करोड़पतियों का दबदबा कायम होता गया। आज तो स्थिति यह है कि क्या संसद व क्या विधानसभाएं, सभी में एक तिहाई से ज्यादा संख्या ऐसे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की है। अपने क्षुद्र स्वार्थों से बाहर निकलकर उनसे लोकतंत्र या लोककल्याणकारी राज्य की संवैधानिक संकल्पना का संरक्षण किए जाने की उम्मीद करना तो दिवास्वप्न जैसा ही है। विभिन्न सदनों में सत्र के दौरान आए दिन उत्पन्न होने वाली अराजक व हिंसक स्थितियां लोकतंत्र व जनता को शर्मसार करती हैं। रिश्वत लेकर सदन में प्रश्न पूछने व सांसद व विधायक निधि में घोटाले के मामले हमारे जनप्रतिनिधियों का “स्तर” उजागर करते हैं। मंत्री बनकर महाघोटालों को अंजाम देना तो मानो आज का राजनीतिक चलन बन गया है। बाहुबल व कालेधन के निरंतर बढ़ते प्रकोप ने चुनावों को इतना जोखिमभरा व महंगा बना दिया है कि एक भला व गुणी व्यक्ति चुनाव लड़ने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाता। इस तरह देखते-देखते अच्छे यानी ईमानदार व साफ छवि वाले लोग चुनाव में खड़े होने व वोट डालने जाने से दूर रहकर लोकतंत्र के दायरे से ही बाहर होते गए और राजनीति अपराधियों व धनपतियों की दासी बनती चली गई। कुछ दलों पर तो करोड़ों में चुनाव का टिकट तक बेचने का आरोप लगता है। चुनाव-जिताऊ दागियों व भ्रष्टाचारियों को अपने दल का उम्मीदवार बनाने की राजनीतिक दलों में होड़ लग जाती है और चुनाव आयोग निरीह मूकदर्शक बनकर देखता रहता है। ऐसे लोगों के चुनाव लड़ने व चुनावों में धन-बल के प्रयोग पर चुनाव आयोग कोई अंकुश नहीं लगा पाता। यहां तक कि चुनावों में निष्पक्षता व पारदर्शिता लाने के लिए ईवीएम मशीनों द्वारा मतदान कराने का उसका प्रयास भी संदेह के दायरे में ही रहा।

ऐसी परिस्थितियों में लोकतंत्र को सफल व सार्थक बनाने में मतदाता की अहम भूमिका है, यह देशवासियों को समझना होगा। उनकी उदासीनता के कारण ही राजनीति और चुनाव प्रक्रिया को ऐसे तत्वों ने बंधक बना लिया है जो देशहित और लोकहित को अपने स्वार्थों के बलबूते बाहर धकेल देते हैं। बाहुबल और धन-बल के इस्तेमाल के अलावा कुछ राजनीतिक दल आज जातिगत और मजहबी उन्माद भड़काकर चुनाव जीतने को आतुर हैं, जिससे समाज और देश की एकता व अखंडता पर भी खतरा मंडरा रहा है। मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए सपा-बसपा व कांग्रेस जैसे दल मजहबी आरक्षण के बढ़-चढ़कर दावे कर रहे हैं। इससे सामाजिक विद्वेष तो बढ़ेगा ही, विभाजनकारी तत्वों को भी बल मिलेगा। इसलिए ईमानदार सरकार, स्वच्छ प्रशासन व सुशासन की जिम्मेदारी ऐसे राजनीतिक दल तब तक नहीं निभा सकते जब तक कि जनता जागरूक होकर मतदान न करे। राजनीतिक दलों की जनता को भेड़ की तरह हांकने की गलतफहमी तोड़ने के लिए मतदाताओं को बड़ी संख्या में संकल्पपूर्वक न केवल वोट डालने के लिए आगे आना होगा, बल्कि निर्भय होकर, बिना लोभ-लालच में फंसे, सही व्यक्ति के लिए वोट का इस्तेमाल करना होगा। मतदाताओं को राजनीतिक दलों के समक्ष यह दृढ़ता दिखानी होगी कि न तो किसी भी प्रकार के प्रलोभन देकर उनका मत खरीदा जा सकता है, और न जातिगत व मजहबी भावनाएं भड़काकर उनको बरगलाया जा सकता है। बाहुबल और कालेधन के आगे भी मतदाताओं की जाग्रत व संगठित शक्ति खड़ी होगी तो ऐसे दागी लोग लोकतंत्र की चुनावी गंगा में हाथ नहीं धो सकेंगे। मतदाताओं की जागरूकता और राजनीतिक चेतना इन विधानसभा चुनावों में ऐसी राजनीतिक ताकतों को सबक सिखा सकती है जिनकी छत्रछाया में भ्रष्टाचारी और राष्ट्र व समाज विरोधी तत्व पनपते हैं जिन्होंने राजनीति को देश के नवनिर्माण व जनता की खुशहाली का उपकरण बनने की बजाय माल कमाने व दबदबा दिखाने का धंधा बना दिया है।

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