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हमें कुछ कहना है

by
Jan 25, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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हमें कुछ कहना है

दिंनाक: 25 Jan 2012 11:56:59

* डा. देवेन्द्र दीपक

 

हमें कुछ कहना है।

हमें कुछ कहना है।।

हमें कुछ कहना है।।।

 

हमें कुछ कहना है

और जो कुछ कहना है

वह नीम सा कड़ुवा है

और बच्चों के मुख से कड़ुई बातें

तौबा–तौबा।

 

हम बच्चे हैं

किंतु शिक्षा जगत में

गीली मिट्टी के लोंदे

अनगढ़ पत्थर

पत्थर की कोरी सलेट।

 

इंद्रियों के स्फूर्त चैतन्य के स्वामी

संज्ञा समर्थ हम

फिर भी नि:संज्ञ उपमान से उपमित

धन्य हैं हम।

धन्य हैं हमारे चिंतक।

 

कुछ लोग तनिक उदार हैं–

वे हमें समझते हैं तोता

कोई हमें भेड़ समझ हांकता है रेवड़ की तरह,

कोई हमें लद्दू घोड़ा समझ

अपने आदर्शों और आकांक्षाओं की खेप

हम पर लाद अपना अहं तुष्ट करता है।

धन्य हैं तुष्टिकर्ता हम।

धन्य हैं हमारे स्वामी।

 

हमारी तकलीफ बस इतनी–

आदमी के बच्चे होकर भी

हम आदमी के बच्चे

क्यों नहीं समझे जाते?

हमारा कल्याण

बाल दिवस और बाल वर्ष तक

क्यों सीमित कर दिया गया है?

लड़का होने पर 'प्लस'

लड़की होने पर 'माइनस'

हमें क्यों कहा जाता है?

कल हम बाल गोपाल थे

आज हम केवल संख्या हैं।

 

अलंकृत अभिव्यक्ति के अन्तर्गत,

'हम बच्चे घर के आभूषण हैं'

लेकिन शायद लाख और गिलट के।

एक महापुरुष ने कहा–

'बच्चे राष्ट्र की मुस्कान हैं'।

जिन्हें राष्ट्र की चिंता नहीं

उन्हें मुस्कान की चिंता क्या खाक होगी?

 

गांधी ने कहा था–

सत्य और अहिंसा का पाठ

उन्होंने सीखा है बच्चों से।

लेकिन गांधी के देश में

हम बच्चों को सीखने को मिले

हिंसा, अहंकार और असत्य के स्वर्णाक्षर।

 

कीर्तन की जगह

गंदी गालियों की बौछार

काम की जगह

हड़ताल का आलम

न्याय की जगह

न्याय का खून,

संयम की जगह

खून में नहाया हुआ जुनून,

दोस्ती में दगा

भाई के साथ ईर्ष्या

यही तो देखा है हमने।

अच्छा यह बताइये

कुछ साहसिक कहानियां सुनकर

या फिर साल में एक बार

रामलीला देखकर

अपने आस–पास

नित्य जनमते दशानन का वध

हम कैसे कर पाएंगे?

 

लोग कहते हैं

हम बच्चे प्रभु का वरदान हैं।

होंगे।

हम बच्चे देव लोक से आए हैं।

आए होंगे।

सवाल यह नहीं है

कि हम कहां से आए हैं

सवाल यह है

कि हम कहां आए हैं।

अच्छा, यह बताइए

अनास्था, असंतोष और नकार में

आकंठ डूबे आप लोगों ने हमारे नाम

आस्था, श्रद्धा, संतोष

विश्वास, विनय

और विशाल क्यों रखे हैं?

 

मां–बाप बड़े गुस्से में कहते हैं–

हम बच्चे आपस में लड़ते हैं।

लेकिन यह जो पूरा देश

लड़ाई के नियम भुलाकर

कुर्सी के लिए लड़ रहा है

तो कोई गुस्सा नहीं करता।

उस दिन खेल में भूल से

किताब फट गई

तो तुमने पूरे घर को

आसमान पर उठा लिया,

और जो तुम अपने स्वार्थ के लिए

देश के नक्शे को फाड़ रहे हो

तो कोई कुछ नहीं बोलता।

जब देखो तब एक ही तोहमत–

हम बच्चे कामचोर हैं।

लेकिन यह जो पूरा देश

दफ्तरों में बैठा–बैठा

कुर्सियां तोड़ रहा है

तो सब चुप हैं।

 

कोई बताए तो सही

गांव हो या शहर

इस देश में हम बच्चों के लिए क्या है?

 

जब कभी हम भूख से रोए

या किसी खिलौने के लिए मचले

हमें साधुबाबा, सिपाही या भूत की

याद दिलाकर डराया गया।

हम चित्र बनाने बैठे

तो बाप ने कहा–वक्त बरबाद मत करो

हम खेलने लगे

तो मां ने कहा–ऊधम बंद करो

आवश्यकता के अनुसार खाना

हमें नहीं मिलता

आवश्यकता के अनुसार कपड़ा

हमें नहीं मिलता

आवश्यकता के अनुसार

हमारे लिए जगह

न घर में है

और न स्कूल में।

 

हमारे जूते महंगे

हमारे खिलौने महंगे

हमारी किताबें महंगी

हमारी कापियां महंगी

हमारी दवा महंगी

हमारी टाफियां महंगी

 

गांव में हम बच्चे क्या खाएं?

भूख?

गांव में हम बच्चे क्या पीएं?

आंसू?

 

शहर में हम बच्चे कहां सोएं?

आश्वासन के साए में?

शहर में हम बच्चे कहां खेलें?

ओलंपिक के ग्राउंड में?

 

इस देश में हम बच्चों के हिस्से आई

पके हुए बालों की दुहाई।

या फिर मेरुदंड को झुकाता

किताबों के बस्ते का भारी बोझ?

 

तिस पर भी क्या कहा

हम नादान हैं?

पता नहीं नादान कौन है

हम जो कि सिर्फ गूंज को खुद

कालिख लगा रहे हैं?

 

हमें कुछ कहना था।

हमें कुछ कहना था।।

हमें कुछ कहना था।।।

जो कुछ कहना था वह नीम सा कड़ुआ था

और बच्चों के मुंह से कड़ुई बातें

तौबा-तौबा।

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