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भारतीय मुस्लिम समाज

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Jan 25, 2012, 12:00 am IST
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भारतीय मुस्लिम समाज

दिंनाक: 25 Jan 2012 11:54:31


राष्ट्र
की सनातन मुख्यधारा

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  नरेन्द्र सहगल 

तुर्कों, पठानों और मुगलों जैसे दुर्दांत विदेशी आक्रमणकारियों ने संगीनों के साए में मतांतरण का कहर बरपाकर हिन्दू समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को हिन्दू धर्म से काट दिया था। अंग्रेजों ने हिन्दू पूर्वजों की इन संतानों को साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व, पृथक निर्वाचन क्षेत्र और विशेष/भिन्न कौम (राष्ट्र) की राजनीति अपनाकर भारत राष्ट्र से ही काट डाला। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अंग्रेज शासकों की ही मानसपुत्र कांग्रेसी सरकारों ने अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति के अंतर्गत अल्पसंख्यकवाद की चुनावी मुहिम की धुरी बनाकर भारत में अलगाववाद की नींव डाल दी।

मजहबी आरक्षण का जिन्न

भारत की चिर पुरातन पहचाने, यहां के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अर्थात हिन्दुत्व को टुकड़ों में बांट देने के विदेशी षड्यंत्रों को आज की सोनिया निर्देशित डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार पूरा करने के लिए उतावली हो रही है। अल्पसंख्यकवाद को संवैधानिक सहारा देने के लिए 'मजहब आधारित आरक्षण' और 'साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक' की राजनीतिक एवं कानूनी व्यवस्था के माध्यम से जिस खतरनाक खेल को अंजाम देने की तैयारियां की गई हैं, उससे 10 जनपथ में रची जा रही भारत विरोधी साजिशों का पता चलता है।

अल्पसंख्यकवाद का सीधा, साफ और घोषित अर्थ मुस्लिम आरक्षण एवं मुस्लिम वोट बैंक ही है। पिछले 65 वर्षों से मुस्लिम वोट हथियाने की अंधी स्पर्धा चल रही है। यद्यपि आज के संदर्भ में रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह, मायावती जैसे जातिगत राजनीति के ध्वजवाहक इस आरक्षण दौड़ में शामिल हैं, परंतु कांग्रेस इस विभेदकारी समाजतोड़क दौड़ में सबसे आगे निकल गई है। 1947 में भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार मजहबी आरक्षण के जिन्न को पुन: जगाकर एक और विभाजन का शिलान्यास किया जा रहा है।

विभेदकारी साजिश का पुनर्जन्म

जिस प्रकार से अंग्रेजों के शासनकाल में लार्ड कर्जन ने 1905 में हिन्दू-मुसलमान आबादी के आधार पर बंगाल के विभाजन की चाल चली और मुसलमानों को भिन्न राष्ट्र की वैचारिक धारा पर चला दिया था, ठीक उसी प्रकार आज फिर मजहबी आरक्षण की मशाल समय के हाथों में थमाई जा रही है। अंग्रेजों का सशक्त हाथ अपनी पीठ पर देखकर ही 1909 में मुस्लिम नेताओं ने पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग प्रारंभ कर दी थी। इसी मार्ग के आधार पर मुस्लिम लीग का पाकिस्तान का एजेंडा स्वीकार किया गया था।

कांग्रेस, सपा, बसपा इत्यादि राजनीतिक दलों की बढ़ती मुस्लिम वोटों की भूख से ही उत्साहित होकर आजमखां जैसे घोर कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं ने मांग उठानी शुरू कर दी है कि संविधान में संशोधन करके मुस्लिम कोटा अलग से तैयार कर दिया जाए, हमारी जनसंख्या के हिसाब से निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम प्रतिनिधि चुनने का कानूनी हक दिया जाए और सरकारी नौकरियां एवं शैक्षणिक इत्यादि संस्थाओं में हमारी हिस्सेदारी मजहबी तादाद पर सुनिश्चित की जाए। वास्तव में कांग्रेस प्रणीत यही आरक्षण राजनीति मुसलमानों को भारत की मुख्य राष्ट्रीय धारा से कोसों दूर धकेल रही है।

मुस्लिम स्वाभिमान पर चोट

वास्तविकता तो यह है कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने दलगत स्वार्थों के रक्षण के लिए अंधाधुंध अख्तियार की जाने वाली यह मुस्लिम आरक्षण की नीति मुसलमानों की प्रगति एवं विकास में सबसे बड़ी बाधा है। साम्प्रदायिक वोट बैंक की राजनीति मुस्लिम समाज को भड़काकर उसे सड़कों पर उतारने का काम करती है। यही वजह है कि हज यात्रा सुविधाएं, मदरसा अनुदान, वक्फ बोर्ड सहायता जैसे सरकारी उपहारों के बावजूद भी कट्टर मुल्ला-मौलवियों की तसल्ली नहीं होती। वोट बैंक पर आधारित तुष्टीकरण की नीति ने मुसलमानों को अपाहिज बना दिया है। अपनी मेहनत, हिम्मत ओर योग्यता से आगे बढ़ने की मानसिकता समाप्त हो रही है। इस नीति ने मुस्लिम स्वाभिमान पर एक ऐसा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है, जिससे न जाने और कितनी सदियों तक हमारे यह भाई अपनी ही सनातन राष्ट्रीय धारा से कटे रहेंगे।

मुस्लिम समाज का इससे बड़ा दुर्भाग्य भला और क्या होगा कि प्रधानमंत्री, कानून मंत्री, कांग्रेस की प्रधान सोनिया गांधी व महासचिव राहुल गांधी सहित प्राय: सभी कांग्रेसी नेता मुसलमानों को भड़काने, बरगलाने एवं दिशा भ्रमित करने में जुटे हैं। प्रधानमंत्री के अनुसार देश के सभी संसाधनों पर मुसलमानों का हक ज्यादा है। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने तो केन्द्रीय सरकारी सेवाओं में मुसलमानों को 6 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा कर दिया है। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश के मुसलमानों पर खास दयाभाव दिखाते हुए उन्हें तरक्की के सभी साधन उपलब्ध करवाने का भरोसा भी दिलवाया है। उधर सोनिया की रहनुमाई में असंवैधानिक ढंग से गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने 'साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक' का खतरनाक मसौदा तैयार करके कह दिया है कि अल्पसंख्यक (मुसलमान-ईसाई) कभी भी साम्प्रदायिक दंगे नहीं करते।

अलगाववाद पर वरदहस्त क्यों?

सरकार द्वारा गठित सच्चर समिति एवं रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों पर नजर दौड़ाएं तो लगेगा कि मुसलमान सबसे ज्यादा गरीब, पिछड़े और बेसहारा हैं। इन सिफारिशों के शोधकत्ताओं के अनुसार प्रशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य प्रत्येक क्षेत्र में मुसलमानों के साथ भेदभाव और अन्याय हो रहा है। सरकारी एवं गैर सरकारी क्षेत्रों में मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। भारत में मुसलमान हीनभाव से रहते हैं। जबकि कई विश्वस्तरीय मुस्लिम संगठन तथा भारत स्थित मजहबी मुस्लिम नेता कई बार कह चुके हैं कि सारी दुनिया में भारत ही एक ऐसा मुल्क है, जहां मुसलमान सबसे ज्यादा सम्मानपूर्वक एवं सुरक्षित रहते हैं।

दरअसल भारतीय मुसलमानों के प्रति राजनीतिक दलों के मौकापरस्त नेताओं द्वारा बहाए जा रहे यह घड़ियाली आंसू ही अलगाववाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और फिरकापरस्ती को खाद पानी दे रहे हैं। मुस्लिम समाज को विशेष राजनीतिक झुंड बनाकर रखने वाले इस प्रकार के स्वार्थी तत्व ही मुसलमानों की कथित गरीबी और पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार हैं। देश के 80 प्रतिशत नागरिक अभावों के शिकार हैं। 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं। इस वर्ग में मुसलमान भी आते हैं। उन्हें अलग से एक राजनीतिक समूह की संज्ञा क्यों दी जा           रही है?

समाजघातक है अल्पसंख्यकवाद

आज जबकि सारे देश में भ्रष्टाचार, अलगाववाद, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, अशिक्षा, पिछड़ेपन, गरीबी और राजनीतिक पोंगापंथी के खिलाफ राष्ट्रव्यापी जागरण की लहर चल रही है, क्या मुस्लिम समाज अपने इन तथाकथित शुभचिंतकों के हाथों की कठपुतली ही बना रहेगा? जागरण की इस राष्ट्रीय धारा में शामिल होकर क्या मुसलमान भाई अपनी देशभक्ति का परिचय नहीं देंगे? आरक्षण के कटोरे को हाथ में लेकर कब तक मुस्लिम समाज सुविधाओं की भीख मांगता रहेगा? भारतीय नागरिक के नाते मुसलमान को पूरे संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं तो फिर क्यों राजनीतिक नेताओं के वोट बैंक की वस्तु बनकर चुनावी शतरंज में कमजोर गोटियों की तरह इस्तेमाल होते रहेंगे?

इन सभी प्रश्नों के उत्तर अल्पसंख्यकवाद की संकीर्ण, असामाजिक और अराष्ट्रीय अवधारणा में छिपे हैं। जिस तरह से विदेशों में हिन्दू एक अलग नस्लीय समूह के रूप में माने जाते हैं, भारत में मुसलमान तथा ईसाई भिन्न नस्लीय समूह नहीं हैं। भारत में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई इत्यादि सभी एक ही वंश परंपरा, एक ही रक्त, समान इतिहास एवं एक ही सांस्कृतिक सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग हैं। भारत के ही अनेक हिन्दू अपना मत परिवर्तन करके मुसलमान या ईसाई हो गए। इन वर्गों अथवा जातियों को अल्पसंख्यक कहना इनका एवं सम्पूर्ण राष्ट्र का अपमान है। यह जाति समूह बहुसंख्यक हिन्दू समाज का अभिन्न हिस्सा हैं।

मुस्लिम अस्तित्व पर खतरा

वास्तव में यह वोट बैंक, मजहबी आरक्षण और तुष्टीकरण की अति कुंठित एवं साम्प्रदायिक राजनीति भारत में मुस्लिम समाज के अस्तित्व के लिए खतरा बनती जा रही है। जैसे-जैसे मजहबी आरक्षण का अनुपात बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे आरक्षण का लाभ उठाने वालों का सम्मान घटता जाएगा। जब बहुसंख्यक समाज के लोगों की तुलना में आरक्षण के आधार पर किसी मजहब विशेष के लोगों को अधिमान दिया जाएगा तो सामाजिक समरसता और सौहार्द को तार-तार होने से कोई भी कानून रोक नहीं सकेगा। सामाजिक मनोविज्ञान की यह एक प्रक्रिया है जिसे कथित अल्पसंख्यकों को अपने एवं देश के हित में समझ लेना चाहिए।

अल्पसंख्यकवाद के विष को प्रभावहीन करने का यही एक तरीका है। यदि दलगत राजनीति को तिलांजलि देकर भारत की वास्तविक पहचान, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रचार किया जाए और ईमानदारी से इसका पालन किया जाए तो पंथनिरपेक्षता जैसी विदेशी अवधारणाओं एवं अल्पसंख्यकवाद जैसे राजनीतिक ढकोसलों का अपने आप सफाया हो जाएगा। हजारों वर्षों से हमारे देश में सैकड़ों मजहबों/जातियों को पूर्ण स्वतंत्रता दी जा रही है। जब तक हिन्दुत्व के विशाल एवं सर्वस्पर्शी दृष्टिकोण वाला वैचारिक राष्ट्रीय आधार सुरक्षित रहेगा, यह स्वतंत्रता भी जीवित रहेगी। शर्त एक ही है कि यह जातियां या मजहब अपने को दी जाने वाली ढेरों सुविधाओं की आड़ में राष्ट्र की मुख्यधारा से टकराने की चाहत को छोड़ दे।

दलगत स्वार्थों की सिकती रोटियां

मुस्लिम भाइयों के लिए अब यह जरूरी हो गया है कि वे आरक्षण जैसे अलगाववादी राजनीतिक टोटकों को समझें। कांग्रेस सहित अनेक दलों की सारी राजनीति ही अल्पसंख्यकवाद पर आधारित है। पंथनिरपेक्षता का अर्थ मुस्लिम तुष्टीकरण बन गया है। प्रधानमंत्री से लेकर देश के प्राय: सभी राजनीतिक दलों ने मुसलमानों को देश का आदर्श नागरिक बनाने के बजाए वोट की साधारण वस्तु बना डाला है। आज भारत के मुसलमानों की हालत उस बिन पैंदी के लौटे जैसी हो गई है जिसे कोई जिधर चाहे ठोकर मार दे, जिधर चाहे मोड़ दे और जिधर चाहे हांक कर ले जाए।

हमारे ही हिन्दू पूर्वजों के रक्त-मांस से बने यह मतांतरित मुस्लिम भाई राष्ट्रीय धारा से भी कट गए, स्वतंत्र अस्तित्व और निर्णायक क्षमता वाले स्वतंत्र नागरिक भी नहीं रहे। सदियों पूर्व हमसे बिछड़े हमारे यह भाई विदेशस्थ मुसलमानों के मजाक के केन्द्र बने, देश की राजनीतिक पार्टियों के वोट बैंक बने और मुल्ला-मौलवियों के पिछलग्गू बने। आज भारत के प्राय: सभी राजनीतिक दल और कट्टरपंथी मुस्लिम नेतृत्व इस समाज को मजहबी जुनून की भट्टी में झोंककर अपने दलगत स्वार्थों की रोटियां सेंक रहा है।

राष्ट्रवाद का घिनौना विरोध

दुर्भाग्य से कट्टरपंथी मुस्लिम नेतृत्व ने प्रत्येक राष्ट्रवादी पक्ष का विरोध करने का बीड़ा उठाया हुआ है। श्रीराम मंदिर का प्रश्न हो, राष्ट्रभाषा का प्रश्न हो, हिन्दू परंपराओं का मुद्दा हो या चाहे कोई राष्ट्रवादी दल अथवा सामाजिक संगठन हो। कट्टरपंथी मुसलमान ऐसे पक्ष का समर्थन करेंगे जो संस्कृति, अखंडता और समाज की एकता को तहस-नहस करता है। इसी मानसिकता के कारण आज अधिकांश मुल्ला-मौलवी भारतमाता की जय एवं राष्ट्रगान वंदेमातरम् का विरोध करते हैं। यहां तक कि समारोहों में दीप प्रज्ज्वलन व सरस्वती वंदना का भी विरोध करते हैं।

कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवियों का हिन्दुत्व विरोध वास्तव में भारत के राष्ट्रवाद का ही विरोध है। यही वजह है कि कश्मीर में लागू अलगाववादी धारा 370, हिन्दुत्ववादी संगठनों पर प्रतिबंध, शाहबानो केस में मुल्लाओं की दखलअंदाजी, इमामों के हिन्दूविरोधी फतवे और ईरान/पाकिस्तान आदि मुस्लिम देशों में मजहबी हलचलें इत्यादि प्रत्येक अवसर एवं मुद्दे पर मुस्लिम समाज 'पहले मजहब बाद में देश' का रुख अख्तियार कर लेता है और कथित सेकुलर राजनीतिक दल भी इस रुख का इस्तेमाल अपनी चुनावी राजनीति में       करते हैं।

अतीत की भूलों का परिमार्जन

अपने कट्टरपंथी नेतृत्व के कुचक्रों में फंसकर भारतीय मुसलमान दो प्रकार की चिंतन धाराओं के बीच दुविधाग्रस्त खड़ा है। प्रथम है- गजनी-गौरी, औरंगजेब, बाबर, जिन्ना, बनातवाला, शाहबुद्दीन और इमाम बुखारी की चिंतनधारा, जिसका भारत राष्ट्र, भारतीय संस्कृति और हिन्दुत्व से संबंध न होकर विदेशी आक्रमणकारियों, उनकी परंपराओं, उनके मजहब और उनके इरादों से है। दूसरी है-रहीम, रसखान, जायसी, कबीर, शाह आलम, बहादुरशाह जफर, अशफाक उल्ला खां, मुहम्मद करीम छागला, हमीद दिलवाई, आरिफबेग और सिकंदरबख्त की परंपरा, जिसका संबंध विदेशी आक्रांताओं और लुटेरों से न होकर, भारत के राष्ट्रीय महापुरुषों से है।

सौभाग्य से वर्तमान समय में हो रहे राष्ट्रीय जागरण ने मुस्लिम भाइयों को ऐसा अवसर प्रदान किया है कि वे अतीत की भूलों का परिमार्जन कर सकें। अपने आपको राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ जोड़ सकें। जिस मजहब और परंपरा का वे पालन करते हैं, वह उनका अपना स्वयंस्वीकृत मजहब नहीं है। वह तो विदेशी हमलावरों ने तलवार के जोर से उन पर थोपा है। हमारे मुस्लिम भाइयों को राष्ट्र एवं स्वयं अपने हित में इन सच्चाइयों को समझकर राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान करना चाहिए।

समान इतिहास एवं संस्कृति

हिन्दू और मुसलमान समान पूर्वजों की संतानें हैं। दोनों एक ही राष्ट्रीय भावधारा के घटक हैं। यदि हिन्दु-मुस्लिम फकीरों, साहित्यकारों, शहीदों और सूफियों के प्रति श्रद्धा रख सकते हैं तो मुसलमान क्यों नहीं राम, कृष्ण, शिव, गाय, गंगा इत्यादि को स्वीकार करते? भारत के सुख-दुख में शामिल होकर हिन्दू समाज के साथ एकरस क्यों नहीं होते? मुस्लिम भाई अपनी मानसिकता पर  से सदियों पुरानी विदेशी राख क्यों नहीं झाड़ देते?

इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा इत्यादि कई मुस्लिम देश हैं। इन सभी क्षेत्र के लोगों ने भी इस्लाम की खूनी आंधी के आगे झुककर मजबूरी में हिन्दू धर्म छोड़ा। परंतु उन्होंने अपनी प्राचीन परंपराओं, संस्कृति, इतिहास, राम और रामायण से संबंध विच्छेद नहीं किए। वे अपने पूर्वजों का अपमान सहन नहीं करते। अपने बाप-दादाओं की विरासत से नफरत नहीं करते। अलबत्ता उसे सुरक्षित रखे हुए हैं। वे अपने हिन्दू पूर्वजों की सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व करते हैं। परंतु भारतीय मुस्लिम नेतृत्व अपने समाज को इस मार्ग पर चलने ही नहीं देता। मुस्लिम समाज को पिछड़ा और अनपढ़ बनाए रखकर, उसमें मजहबी संकीर्णता भरकर आज के मुल्ला-मौलवी इस समाज को राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ मिलने ही नहीं देते।

कसूरवार हैं मुस्लिम नेता

हिन्दू पूर्वजों की विरासत में लौटना तो दूर, कट्टरपंथी मुस्लिम नेता तो उल्टे अपने समाज को भारत में एक और पाकिस्तान बनाने के लिए भड़काते हैं। आजमखां जैसे नेता यही तो कर रहे हैं, 'मुसलमान किसी भी देश के संविधान को नहीं मानता। कुरान/शरीयत ही हमारा कानून है, हम हिन्दुस्थान में तीस करोड़ हैं, सारे हिन्दुस्थान पर इस्लाम का परचम फहराएंगे, ईमान बाकी है, मुसलमान बाकी है, अभी तो करबला का मैदान बाकी है।' इस प्रकार के भाषण मुसलमानों को हिन्दुओं के साथ रहना सिखाएंगे क्या?

भारत का कट्टरपंथी मुस्लिम नेतृत्व भोले- भाले मुसलमानों को अंग्रेजभक्त सैयद अहमद खां के नक्शे कदम पर चलने की प्रेरणा दे रहा है। सैयद के अनुसार 'हम वे हैं, जिन्होंने भारत पर 6-7 शताब्दियों तक राज किया है। हमारी कौम उन लोगों के खून से बनी है, जिनसे न केवल भारत, बल्कि एशिया और यूरोप भी कांपते थे।' अंग्रेजों ने सैयद जैसे कई कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं को इस्तेमाल किया था।

मुस्लिमों के हाथ क्या?

सोनिया निर्देशित कांग्रेस ने राजनीतिक सुविधाओं की भीख का जो कटोरा मुस्लिम समाज के हाथों में थमाने की नीति पर मोहर लगाई है, उस कटोरे का निर्माण तो अंग्रेजों ने ही किया था। भिन्न चुनाव क्षेत्र, राजनीतिक संस्थाओं में सुरक्षित स्थान और सरकारी नौकरियों में मजहब के नाम पर आरक्षण देकर अंग्रेजी शासकों ने मुस्लिम कंधों पर अपनी बंदूकें रखीं और राष्ट्रवादी हिन्दुओं पर दाग दीं। मुस्लिम नेतृत्व इस षड्यंत्र का शिकार हो गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति अर्थात भारत के विभाजन के बाद अंग्रेज शासकों की 'कार्बन कापी' कांग्रेसी सत्ताधारियों ने निरंतर 65 वर्षों तक मुस्लिम समाज का अपनी सत्ता प्राप्त करने और फिर बचाने के लिए दुरुपयोग किया है। भारत के राष्ट्रीय समाज हिन्दुओं को ठोकरें मारकर, उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाकर इन सत्ताधारियों सहित अनेक राजनीतिक दलों ने मुस्लिम समाज को वोट की मंडी बना दिया है। हिन्दुओं को अपने ही देश में दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर इन्होंने राष्ट्र का कितना अहित किया है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज कुछ अपवादों को छोड़कर दोनों समाजों का वैचारिक आधार एक-दूसरे के विपरीत हो गया है।

विदेशी शक्तियों के शिकार न हों

विदेश प्रेरित शक्तियों के बहकावे में आकर हमारे मुसलमान भाई राष्ट्र की मुख्यधारा से कटकर कब तक अपने पूर्व पुरखों के विशाल समाज से टकराने की नीति पर चलते रहेंगे? भारतीय जीवन मूल्यों के अनुरूप अपने जीवन को ढालते हुए भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग बनकर वे इस्लाम की भी स्वतंत्रतापूर्वक धारणा कर सकेंगे। जब भारत की ही मिट्टी में जीना और दफन होना है तो इसकी सनातन संस्कृति से दूर भागकर आक्रमणकारियों की विरासत का दामन थामे रखने में कौन सी बुद्धिमत्ता है?

भारत उनका है, वे भारत के हैं। भारतमाता के मस्तक का भाल ऊंचा होगा तो उनका भी मस्तक स्वाभिमान से उठेगा। भारत के माथे पर यदि कोई कलंक का टीका लगता है तो मुसलमान का भी खून खौलना चाहिए न कि ऐसा अपराध करने वालों की विरासत और परंपराओं का रक्षक बन जाएं। समय की जरूरत है कि मुस्लिम समाज अपने कट्टरपंथी नेतृत्व और मतांधता के प्रतीक मुल्ला-मौलवियों की इस्लाम घातक जकड़न से मुक्त होकर सच्चे भारतीय बनें।

भारतीयता का हिस्सा है मुस्लिम समाज

कट्टरपंथी मुस्लिम नेतृत्व चाहे कुछ भी कहे, कुछ भी सोचे और कुछ भी करे, परंतु इस सत्य को कोई नकार नहीं सकता कि भारत का आम मुस्लिम समाज विदेशी नहीं, वह तो पूर्णतया भारतीय ही है। उसे आज की भाषा में अल्पसंख्यक कहना भी उसका अपमान करना है। वह तो विशाल हिन्दू समाज का ही एक ऐसा दुर्भाग्यशाली वर्ग है जो काल के थपेड़ों में आक्रांताओं की तलवार से डरकर अपनी पूजा-पद्धति बदल बैठा। परिणामस्वरूप जोर-जबरदस्ती से मतान्तरित किया गया मुस्लिम समाज कट्टरपंथियों द्वारा पथभ्रमित होकर स्वयं की निर्णायिक क्षमता से भी कुंठित हो गया।

सौभाग्य से रहीम और रसखान की भारतीय चिंतनधारा से प्रभावित मुस्लिम समाज के अनेक राष्ट्रवादी नेताओं ने इस ओर सोचना, समझना और चलना प्रारंभ कर दिया है। इस्लाम के विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन, मुख्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज हुसैन, आरिफ बेग, नजमा हेपतुल्ला और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना कल्बे सादिक जैसे अनेक नेताओं ने अपने समाज को राष्ट्रवादी दिशा की ओर मोड़ने के प्रयास प्रारंभ किए हैं। वर्तमान में हो रहे देशव्यापी राष्ट्रजागरण के संकेत समझकर भारतीय मुस्लिम समाज के अधिकांश नेता अब यह समझने लगे हैं कि अब हिन्दू समाज भी पहले जैसा कमजोर, शक्तिहीन और असंगठित नहीं रहा। मुसलमानों को अपने मजहब को नई परिस्थितियों और भारत के संदर्भ में ढालना चाहिए, जितनी आजादी मुसलमानों को भारत में है उतनी दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। यह यहां के बहुसंख्यक हिन्दू समाज की उदार संस्कृति की वजह से ही है। मुस्लिम समाज इसी संस्कृति का         हिस्सा है।

राष्ट्रमाता की गोद में लौटो

अपने चिरपुरातन एवं अमर-अजर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सशक्त नींव पर खड़ा हमारा भारत राष्ट्र सर्वधर्म समभाव जैसे मानवीय जीवन मूल्यों का जन्मदाता, पोषक और संरक्षक है। इसीलिए मुसलमान तथा इस्लाम दोनों ही भारत में पूर्णतया सुरक्षित हैं। यह अलग बात है कि इस्लाम के झंडाबरदारों में सदैव मौजूद रहे कट्टरपंथी, साम्राज्यवादी और हिंसा प्रधान आतंकी तत्वों ने भारत के इस सत्य-अहिंसा वाले पक्ष का फायदा उठाकर 1200 वर्षों तक खून की नदियां बहाई हैं। हिन्दू पूर्वजों की मतांतरित संतान भारतीय मुस्लिम समाज को उन आक्रमणकारियों आकाओं के उन मानवता तथा भारत विरोधी कुकृत्यों पर पश्चाताप करना चाहिए।

अब परिस्थितियों ने मोड़ लिया है। भारत में नवजागरण की लहर चल रही है। भारत का आधार तत्व हिन्दुत्व अंगड़ाई लेकर पुन:अपना विजयी एवं शाश्वत आकार ले रहा है। संतों, महात्माओं, समाजसेवकों और गैर राजनीतिक सामाजिक संगठनों की छत्रछाया में भारतीय समाज संगठित होकर राष्ट्र के परमवैभव स्वरूप को साकार करने की ओर तेज गति से बढ़ रहा है। इस समय की बदलती आबोहवा में उस भारतीय मुस्लिम समाज को भी खुलकर श्वास लेने का सुअवसर प्राप्त होगा, जिसे सदियों से मतांधता की काल कोठरी में कैद करे रखा गया है।

वर्तमान में पूर्ण शक्ति के साथ प्रारंभ हो चुका राष्ट्रीय स्वाभिमान का जागरण किसी मजहब अथवा जाति विशेष के समर्थन में न होकर संपूर्ण राष्ट्र की चेतना का जागरण है। इसी प्रकार यह जागरण किसी मत-पंथ के विरोध में न होकर संपूर्ण अराष्ट्रीय-असामाजिक तत्वों के विरुद्ध जनजाग्रति की शंखध्वनि है। इस शंखध्वनि से जाग्रत होकर अगर भारतीय मुस्लिम समाज अपने पूर्वजों की सांस्कृतिक धारा अर्थात राष्ट्रमाता की गोद में लौट आए तो यह न केवल हिन्दुत्व, इस्लाम, भारत, अपितु संपूर्ण मानवता की भलाई की शंखध्वनि होगी। l

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