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राष्ट्रीय जनजागरण में युवाओं की भूमिका

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Jan 24, 2012, 12:00 am IST
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राष्ट्रीय जनजागरण में युवाओं की भूमिका

दिंनाक: 24 Jan 2012 18:29:32

* डा. विशेष गुप्ता

राष्ट्र के संदर्भ में युवाओं की चर्चा करते समय जनवरी माह की दो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। इनमें पहली 12 जनवरी है, जो युवाओं के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस उत्सव के रूप में मनायी जाती है। दूसरी 26 जनवरी, जिसको हम सभी गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाते हैं।

युवाओं का महत्व

इतिहास के प्रत्येक कालखण्ड में युवाओं के महत्व को स्वीकार किया जाता रहा है। सच यह है कि राज्य ने इन्हें अपने एक अस्त्र-शस्त्र के रूप में, आर्थिक बाजार ने इन्हें अपने व्यापार के मूल स्रोत तथा समाज और राष्ट्र ने इन्हें अपनी सजग शक्ति के रूप में स्वीकार किया है। वास्तविकता यह है कि युवा सदैव ही समाज व राष्ट्र के मूल एजेन्डे के केन्द्र में रहा है। दरअसल युवाओं की विशिष्ट पहचान उनके आयु वर्ग से ही होती है। वास्तव में युवावस्था वह अवस्था है जिसमें बालपन का अल्हड़पन, किशोरावस्था का उत्साह और वैचारिक प्रौढ़ता के प्रस्फुटन का सम्मिश्रण होता है। कहना न होगा कि युवाओं से जुड़े आयु वर्ग का विभाजन देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार विश्व के देशों ने अलग-अलग निर्धारित किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने युवा आयु वर्ग को 15 से 24 वर्ष की आयु के मध्य में तथा राष्ट्रमण्डल से जुड़े देशों ने इसे 15 से 29 आयु वर्ग में चिन्हित किया है। वैश्विक स्तर के आंकड़े बताते हैं कि विश्व के अधिकांश देशों में युवावस्था का प्रारम्भ 15 वर्ष से ही माना गया है। हांगकांग और नाइजीरिया जैसे कुछ ऐसे देश हैं जो 10 वर्ष की अवस्था को युवा वर्ग की श्रेणी में चिन्हित करते हैं। युवावस्था की अधिकतम आयु 40 वर्ष मानते हुए दुनिया में मलेशिया आज सबसे आगे है। भारत में भी जब 2003 में राष्ट्रीय युवा नीति का निर्माण हुआ था उस समय युवाओं के लिए 13 से 35 वर्ष के आयु समूह को युवा वर्ग की श्रेणी में रखा गया था। राष्ट्रीय युवा नीति के अन्तर्गत ही राष्ट्रीय स्तर पर युवाओं को दो समान समूहों में विभाजित करते हुए उनमें 13 से 19 वर्ष के लिए किशोर आयु समूह तथा 20 से 35 वर्ष के आयु समूह को मध्यम युवा वर्ग में वर्गीकृत किया गया है। देश के वर्तमान जनसंख्यात्मक आंकड़े बताते हैं कि इस समय एक अरब इक्कीस करोड़ की कुल आबादी में 50 फीसदी आबादी 25 वर्ष से कम आयु की है तथा 65 फीसदी आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है। इस तरह 13 से 35 आयु वर्ग समूह की कुल जनसंख्या लगभग 51 करोड़ से भी अधिक है। इसलिए कहने की आवश्यकता नहीं कि कुल जनसंख्या का आधा भाग आज युवा वर्ग में आता है। ऐसा अनुमान है कि आने वाले दशक में देश में युवाओं की कुल संख्या 58 करोड़ तक पहुंच जाएगी। विश्व स्तर पर जनसंख्या के आंकड़े संकेत देते हैं कि संसार के विकसित देशों में जन्म दर लगभग शून्य हो गयी है। इसका दुष्परिणाम यह है कि वहां वरिष्ठजनों की संख्या लगातार बढ़ रही है। दूसरी ओर विकसित देशों की तुलना में भारत की जनसंख्या लगातार युवा होने के संकेत दे रही है। वैश्विक आंकड़े साक्षी हैं कि आने वाले एक दशक में जहां चीन की औसत आयु 37 वर्ष, अमरीका की औसत आयु 45 वर्ष तथा पश्चिमी यूरोप और जापान की औसत आयु 48 वर्ष होगी, वहीं भारत में युवा औसत आयु 29 वर्ष होगी। अनुमान है कि 2030 तक दूसरे पर आश्रित आबादी का अनुपात केवल 0.4 फीसदी ही रह जायेगा।

परिवर्तन की शक्ति

सामान्यत: युवा होने का तात्पर्य नूतन विचार, ऊर्जा तथा शक्ति और साहस से जुड़ा काल है। ऐसा युवा काल जिसमें परम्पराओं को चुनौती देने का साहस तथा समाज और राष्ट्र में परिवर्तन लाने की शक्ति भी है। अर्थात युवा वर्ग समाज का वह हिस्सा है जो हमेशा किसी राष्ट्र में बहुआयामी परिवर्तन का ध्वजवाहक होता है। कड़वा सत्य यह है कि युवा वर्ग की पहचान उसकी बेचैनी, छटपटाहट, उसका गुस्सा व आक्रोश, उसकी रचनात्मकता व सृजनात्मकता तथा वर्तमान व्यवस्था के समक्ष एक सक्षम विकल्प के साथ में उस व्यवस्था को चुनौती देने वाली उसकी सोच व स्वभाव होता है। उसका यही उन्नयनकारी व साहसी तथा कभी-कभी आक्रामक स्वभाव उसे हमेशा व्यवस्था से टकराने अथवा परिवर्तन लाने का साहस और गम्भीर से गम्भीर जोखिम उठाने का हौसला प्रदान करता है।

स्वतन्त्रता आन्दोलन साक्षी है कि उस दौरान युवा चेतना और युवा राजनीति दोनों ही स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा रही थीं। इतिहास का यह सर्व स्वीकार्य साक्ष्य है कि उस समय कांग्रेस को जन आन्दोलन बनाने तथा राष्ट्र में राजनीतिक चेतना लाने में इन देशभक्त युवाओं ने ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। यही वह युवा पीढ़ी थी जिसने 20वीं सदी के शुरुआती दौर में आदर्श, बलिदान और त्याग के उदाहरण प्रस्तुत किए थे। उस बलिदानी संगठन में गंगा-जमनी दोआबा में रामप्रसाद बिस्मिल और अश्फाक उल्लाह, पंजाब में करतार सिंह सरोपा, सरदार भगत सिंह, बंगाल की अनुशीलन समिति, मास्टर सेन की विद्यार्थी-क्रान्तिकारी मंडली तथा महाराष्ट्र में वीर सावरकर जैसे युवा शामिल थे। इन सभी युवाओं के जीवन का अर्थ राष्ट्रप्रेम की राजनीति करना था। इन युवाओं के हृदय में राष्ट्रप्रेम का जज्बा इस सीमा तक कूट-कूट कर भरा था जहां जाति, धर्म, सम्प्रदाय तथा भाषा व क्षेत्र के विचार इन्हें स्पर्श नहीं कर पाते थे। युवा राजनीति को लेकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय तथा डा. राम मनोहर लोहिया सदैव ही इस बात के हिमायती रहे कि युवाओं को देश की राजनीति करते हुए राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देना चाहिए। परन्तु जैसे-जैसे शिक्षा व शैक्षिक मूल्यों में गिरावट आती गयी, उसी के अनुपात में युवा आन्दोलन का आचरण भी बदलता चला गया।

आंदोलनात्मक भूमिका

सन् 1965 के बाद सम्पूर्ण विश्व में युवा असन्तोष उभरने से जहां पाकिस्तान, फ्रांस व थाइलैण्ड जैसे देश प्रभावित हुए, वहीं भारत भी युवा आक्रोश से अछूता नहीं रहा। इसी युवा आक्रोश के तहत भाषा को लेकर अनेक आन्दोलन हुए। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी उसी कालखण्ड की देन है जिसने रचनाशील, अनुशासन और सहयोग सिद्धान्त वाक्य के आधार पर अपनी ख्याति अर्जित की। युवाओं की शक्ति को भांपते हुए कांग्रेस ने भी 1968 में राष्ट्रीय छात्र संगठन बनाया। सन् 1974 में जब बिहार में भ्रष्टाचार व बेरोजगारी के खिलाफ आन्दोलन खड़ा हुआ तो सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा देने के लिए जयप्रकाश नारायण के ‘यूथ फार डेमोक्रेसी” के गठन ने छात्र युवा आन्दोलन को एक नयी दिशा प्रदान की। सन् 1975 की आपातकाल स्थिति में राजनीति से जुड़े अनेक संघर्षशील युवा नेता जेलों में डाल दिए गए। सन् 1980 का दशक आते-आते राजनीतिक दलों के ध्रुवीकरण ने बदलाव का जो माहौल तैयार किया उससे युवा राजनीति भी उसका हिस्सा बन गयी। राजनीति पर परिवारवाद हावी होने लगा। मंडल आयोग की सिफारिशों, जाति व मजहब से जुड़ी राजनीतिक घटनाओं, अनेक घोटालों, राजनीति में भ्रष्ट व आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का प्रवेश तथा भाई-भतीजावाद जैसी घटनाओं ने युवा राजनीति का चेहरा कलुषित कर दिया। तब से आज तक युवा राजनीति के इस संक्रमण काल में युवाओं के समक्ष पहले विराट लक्ष्यों का निर्धारण, फिर उन्हें शार्टकट से प्राप्त करने का विभ्रम तथा दूसरी ओर राजनीति के बहुसंख्य रोल मॉडल के अनुकरण करने का भूमिका द्वन्द उन्हें आक्रोशित होने के लिए मजबूर कर रहा है।

दरअसल युवाओं में जन्मित यह आक्रोश उनमें सामूहिक कुंठा की अभिव्यक्ति है। सही मायनों में युवाओं में यह कुण्ठा उस समय अभिव्यक्त होती है जब इस समाज में विद्यमान मानदण्ड युवाओं की दृष्टि में इतने अप्रभावी और हानिकारक हो जाते हैं जो उन पर आघात पहुंचाने लगते हैं। उस आघात से इन युवाओं का और उनमें इतना मोह भंग हो जाता है कि उन्हें इन मानदण्डों को परिवर्तित करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगती है। युवाओं के व्यवस्था के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द करने के चलते हम कभी उन्हें विद्रोही, क्रान्तिकारी, विवेकहीन, उग्रपन्थी और अपरिपक्व कहने में कोई गुरेज नहीं करते। लोगों का युवाओं के बारे में यह चिन्तन एक बार फिर वैचारिक संशोधन की मांग कर रहा है। यह सच है कि युवा बाहरी प्रभावों के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं और दूसरों का अनुकरण भी करते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि युवा केवल विध्वंस, आतंक, आक्रमण और हत्या में विश्वास करते हैं।

सच्चाई को समझें

सच्चाई यह है कि जब समाज में सामाजिक संरचनाओं और संस्थाओं से, सामाजिक व्यवस्था में विरोधाभास से तथा राजनीति और राजनीतिज्ञों के निर्णयों और निर्णय करने वालों से युवाशक्ति का मोह भंग हो चुका होता है, तभी उनका आक्रोश व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा होता है। संदर्भवश यदि हम ‘शाइनिंग इण्डिया’ की विकास यात्रा की बात करें तो इस संदर्भ में युवाओं के इस मूल्यांकन से यह स्पष्ट होता है कि दुनिया में यदि अमरीका और चीन के बाद भारत को तीसरी शक्ति स्वीकार किया जा रहा है तो उसमें हमारे युवाओं की रचनात्मक प्रज्ञा का बहुत बड़ा योगदान है। रपट बताती है कि आज अमरीका ‘आउट सोर्सिंग’ को लेकर बहुत चिन्तित है। वह केवल इसलिए कि देश के 40 फीसदी से भी अधिक तकनीकी युवा सम्पूर्ण विश्व की तकनीकी संस्थानों में कार्यरत हैं। बोइंग कंपनी में 35 फीसदी से अधिक भारतीय तकनीकी श्रम शक्ति है। आज भारत का विभिन्न विदेशी कम्पनियों में विदेशी निवेश प्रगति का सूचक है। वैश्विक स्तर पर यह अनुमान है कि 2020 तक कई देशों में जब पेशेवरों की भारी कमी होगी तब भारत की कुशल श्रमशक्ति ही ऐसे देशों की अर्थव्यवस्था को सहारा देगी। भारत ने अपनी यह वैश्विक शक्ति किसी से उधार में नहीं ली। अतीत में भी भारत यदि विश्व गुरु की उपाधि से विभूषित रहा है तो उसमें विभिन्न क्षेत्रों में युवाओं ने बहुत बड़ी भूमिका अदा की है। 

बदलता परिवेश

भारत के युवा संन्यासी स्वामी विवेकानन्द के आभा-मण्डल से तो सारा यूरोप ही चकाचौंध हो गया था। युवा जनसंख्या से अलग हटकर यदि हम वास्तविक धरातल पर अवलोकन करें तो देश में युवाओं के चिन्तन और जीवन शैली में बुनियादी परिवर्तन परिलक्षित होते साफ दिखायी देते हैं। यहां उल्लेखनीय है कि लगभग दो दशक पुरानी उदारीकरण की नीतियों ने देश में युवाओं को एक बेहतर उपभोक्ता भी बनाया है। दूसरी तरफ उदारीकरण के कारण ही देश के युवाओं ने अपनी उपस्थिति गैर परम्परागत क्षेत्रों में भी दर्ज करायी है। उन्होंने अपनी निजी कम्पनी का ढांचा विकसित करते हुए परिश्रम के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व में अपनी धाक जमायी है। यहां यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि निश्चित ही पूर्व की तुलना में नौकरियों का ‘प्रोफाइल’ बदला है। पहले का युवा सिविल सर्विस, इन्जीनियरिंग और चिकित्सा के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहता था। परन्तु अब वह सूचना तकनीक, कम्प्यूटर, बिजनेस मैनेजमेंट और मीडिया में अपना कैरियर बनाने को लालायित है। निश्चित ही आज के युवा की सेवा के साथ कारोबार में भी दिलचस्पी बढ़ी है। सर्वेक्षण बताते हैं कि पहले देश में कारोबार शुरू करने की जो उम्र 40 वर्ष के आस-पास थी, वह अब घटकर 25 वर्ष के आस-पास पहुंच गयी है। इन आंकड़ों से थोड़ा अलग जाकर ‘बिजनेस वीक” की एक रपट बताती है कि देश के करीब 4 करोड़ शहरी युवा ही उदारीकरण से प्राप्त इन अवसरों का लाभ उठा पाए हैं। दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्र में बसने वाले 14, 15 करोड़ युवा अभी भी बेरोजगारी और तंगहाली में जीवन-यापन करने को मजबूर हैं।

आज विश्व में हमारी पहचान सबसे युवा देश के रूप में की जा रही है। लेकिन गांव-शहर के बीच बढ़ती दूरी और सामाजिक विषमता का प्रभाव सबसे अधिक ग्रामीण युवाओं के हिस्से में आ रहा है। वर्तमान का शहरी युवा नूतन इण्टरनेट पीढ़ी से जुड़ी हुई नई नेटीजन सोसाइटी के माध्यम से अपना आभासी संसार विकसित कर रहा है। दूसरी ओर ग्रामीण युवा अपनी जड़ों से कटकर बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर हैं। वे हताश हैं और वंचना के भावों से ग्रस्त हैं। युवाओं का मानसिक असंतोष व हताशा की स्थिति कभी उन्हें आत्महत्या की ओर खींचकर ले जाती है, कभी उनका आक्रोश हिंसा में झलकता है, तो कहीं अराजक माहौल उन्हें अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को मजबूर करता है। नि:संदेह आज युवाओं का समाजशास्त्र व अर्थशास्त्र इस भारत और इंडिया के बीच की दूरी को लेकर चिंतित है। साथ ही राष्ट्रीय चिन्तन से जुड़े अध्येयताओं तथा नीति नियन्ताओं से भी राष्ट्रीय सन्दर्भ के सुलगते हुए अन्य महत्वूपर्ण सवालों के साथ में युवा पीढ़ी के विकसित हो रहे नये मनोविज्ञान को भी गहराई से समझने व अपने चिन्तन में सम्मलित किए जाने की अपेक्षा की जाती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा इसके विविध संगठनों ने युवाओं को राष्ट्रीय चिन्तन से जुड़ी स्वदेशी संस्कृति को आत्मसात कराते हुए राष्ट्र की चिन्तन धारा में लाने के सद्प्रयास किये हैं। परन्तु इससे भी आगे बढ़कर समदृश्य तथा समविचार रखने वाले बुद्धिजीवियों, सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक व धार्मिक संगठनों का भी दायित्व है कि वे युवाओं का प्रशिक्षण इस आधार पर करें जहां से राष्ट्रीय चिन्तन की अविरल धारा पुन: प्रस्फुटित हो।

भविष्य के संकेत

भविष्य अभी से ऐसे संकेत दे रहा है कि विश्व में भारत राष्ट्र की कार्यशील और ज्ञानाश्रित युवा जनसंख्या विश्व में अपना परचम लहराएगी। परन्तु यहां यह भी गम्भीर चिन्तन का विषय है कि सम्पूर्ण युवा जगत इस समय परम्परा और विकास के संक्रमण काल से गुजर रहा है। उसका सामाजीकरण आज तीन पीढ़ियों के बीच हो रहा है। इतिहास साक्षी है कि पहली पीढ़ी ने आजादी के आन्दोलन से पूर्व में गुलामी का दंश झेलते हुए आजादी को भी जिया। परन्तु दूसरी और तीसरी पीढ़ी ने स्वतन्त्रता के मूल्यों व राजनीतिक लोकतन्त्र की परम्पराओं को पुस्तकों में पढ़ा। परन्तु इस पीढ़ी को अपने जीवन काल में सैद्धान्तिक और व्यावहारिक जीवन में उनमें बहुत बड़ा अन्तर दिखाई दिया। पिछले दिनों अण्णा के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में यदि युवाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया तो वह इसलिए कि उन्हें देश की आजादी के बाद केवल अण्णा ऐसे दिखाई दिए जिनकी कथनी और करनी में अन्तर कम से कम महसूस हुआ। इतिहास स्वयं बोलता है कि भारत को अपनी आस्था और अध्यात्म में विश्व गुरु की संज्ञा मिली हुई थी। भारत के युवाओं का रणकौशल इतना विशाल था कि विश्व विजेता सिकन्दर ने भी भारतीय युवाओं का लोहा मान लिया था। वसुधैव कुटुम्बकम् का दर्शन भी विश्व को भारत ने ही दिया है। हमारी प्राचीन संस्कृति हमारे अतीत का गौरव है। नए सर्वेक्षण बताते हैं कि कुछेक अपवादों को छोड़कर भारतीय युवा इस समय दुनिया के प्रसन्न एवं सन्तुष्ट युवाओं में से एक हैं। पूरी दुनिया में ज्ञान व तकनीकी की आंधी चलाने के बाद भारतीय युवा थोड़ा असुरक्षित सा हुआ है। इसी वजह से वह पुन: अपनी जड़ों की ओर लौट रहा है। आज उसकी मनोदशा सामाजिक परम्पराओं से टकराने की बजाय उनसे समझौते करने की अधिक है। परन्तु इसका एक नया पहलू यह है कि उसकी चिन्ताओं के सरोकार आज उसके कैरियर और परिवार तक सीमित होकर रह गये हैं। आज उनमें देश के प्रति जज्बा तो है, परन्तु यह उनकी निजी जिन्दगी में फंसा नजर आता है।  आज ऐसे युवाओं के मध्य बनी इस यथास्थिति को हमें तोड़ना होगा। हम सभी का दायित्व है कि जहां हम इन युवाओं को राष्ट्र के भौतिक उत्पादन के लिए उपयोगी बनाएं, वहीं हमारे परिवार, शिक्षण संस्थाओं और देश के नीति नियंताओं का भी यह दायित्व बनता है कि वे इन युवाओं को पुरुषार्थी व राष्ट्रीय चिंतन से ओत-प्रोत नागरिकों के रूप में भी विकसित करें। कार्य मुश्किल हो सकता है, परन्तु असम्भव नहीं है। आओ! हम सभी युवाओं के मुद्दों पर उन संगठन व संस्थाओं के साथ में कदम से कदम मिलाकर चलें जो संस्थायें राष्ट्र के निर्माण रूपी हवन कुण्ड में अपनी आहुतियां डाल कर इन युवाओं को देश के बेहतर भविष्य लिए उन्हें तराश रहीं हैं। द लेखक महाराजा हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरादाबाद में समाजशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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