जीवन की मधुमयता है यह राष्ट्र
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जीवन की मधुमयता है यह राष्ट्र
हृदयनारायण दीक्षित
भारत हमारा गोत्र, कुल, वंश है। यह हुआ हमारा परिचय। 'परिचय' असाधारण कार्रवाई है। नाम-स्थान पूछ लेना या अपना नाम-स्थान बता देना ही काफी नहीं होता। धर्म, मत, मजहब और पंथ भी परिचय के हिस्से हैं, लेकिन 'राष्ट्रीयता' इन सबसे बड़ी है। भारत में इसका बोध-पुनर्बोध कराने की प्राचीन परम्परा है। जन्मोत्सव, विवाह, गृह प्रवेश सहित सभी अनुष्ठानों में संकल्प लेते समय पूरा परिचय दोहराया जाता है- जम्बूद्वीपे, भरतखण्डे, आर्यावर्ते सहित नगर, गांव दोहराकर प्राचीन राष्ट्रीय अनुभूति बताते हैं। फिर युग और मन्वन्तर, वर्ष, संवत्सर, माह, दिन, तिथि बताकर काल के प्रवाह का परिचय देते हैं। फिर नाम, पिता का नाम, गोत्र, वंश दोहराकर स्वयं को पूर्वज/ऋषि परम्परा से जोड़ते हैं, और तब सम्बन्धित कार्य का संकल्प लेते हैं। प्राचीन राष्ट्रजीवन में पूरे परिचय को दोहराने की यह परम्परा राष्ट्रबोध जगाती है। बताती है कि भारत प्राचीन राष्ट्र है।
अंग्रेजों का पैदा किया भ्रम
फिर आए अंग्रेज। उन्होंने पढ़ाया, 'भारत एक राष्ट्र नहीं है।' अंग्रेजी सभ्यता पर मोहित कुछ विद्वानों ने मान लिया कि हम कभी राष्ट्र नहीं थे और अंग्रेजों ने ही भारत को राष्ट्र बनाया है। लेकिन 20वीं सदी के सबसे चर्चित व सम्मानित व्यक्तित्व महात्मा गांधी ने इस विचार को चुनौती दी। उन्होंने 1909 में हिन्द स्वराज में लिखा, 'आपको अंग्रेजों ने बताया है कि भारत एक राष्ट्र नहीं था और अंग्रेजों ने ही इसे राष्ट्र बनाया है, लेकिन यह सरासर झूठ है। अंग्रेजों के यहां आने के पहले भी भारत एक राष्ट्र था।' गांधीजी ने भारत को प्राचीन राष्ट्र बताया। प्राचीन भारत एक राष्ट्र के साथ-साथ एक राज्य के रूप में भी था। मौर्य काल इसकी सबसे बड़ी और ऐतिहासिक गवाही है। तब यूरोप सहित दुनिया के अधिकांश भू-भागों के पास राष्ट्र की कोई कल्पना भी नहीं थी। 'संयुक्त राज्य अमरीका' अभी भी एक राष्ट्र नहीं बल्कि 'संयुक्त राज्य' ही है। सैमुअल हंटिग्टन ने 20वीं सदी की विदाई के दौरान 'हू आर वी' (हम कौन हैं) नामक पुस्तक लिखकर अमरीकी राष्ट्रीयता की जड़ों को रोपने का प्रयास किया है।
प्राचीन राष्ट्र–प्राचीन ग्रंथ
ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ज्ञान संकलन है। ऋग्वेद जैसा छन्दस्, प्रीतिपूर्ण, ज्ञान-विज्ञान अचानक नहीं उत्पन्न हो सकता। ऋग्वेद में ज्ञान-विज्ञान है, अप्रतिम सौन्दर्यबोध है, इतिहासबोध है। पूर्वज-परम्परा के प्रति आदरभाव है। जल माताएं हैं, नदियां माताएं हैं, पृथ्वी माता है। आकाश पिता है, ढेर सारे गण हैं, गणों से बड़े समूह जन हैं-यह सब ऋग्वेद ने बताया। 'वैदिक एज' (पृष्ठ 250) में पुलस्कर ने बताया है, 'ऋग्वेद में उल्लिखित जन उत्तर पश्चिम में गांधारी, पक्थ, अलिन, भलानस और विषाणिन हैं। सिंध और पंजाब में शिव, पर्शु, कैकेय, वृचीवन्त्, यदु, अनु, तुर्वस, द्रुह्यु थे। पूरब में मध्य देश की ओर तृत्सु, भरत, पुरू और श्रंजय थे।' ऐसे सभी जनों, नदियों और बड़े भू-भाग में रहने वाले मनुष्यों की एक संवेदनशील संस्कृति है, वह एक राष्ट्र हैं।
वेदों में अनुगूंज
ऋग्वेद में भरा-पूरा राष्ट्र है और राष्ट्र सम्वर्धन की स्तुतियां भी हैं। यजुर्वेद और अथर्ववेद में राष्ट्र के समग्र वैभव की प्रार्थनाएं हैं। ऋग्वेद (1.32.12, 1.34.8 व 8.24.27 श्लोक) में सप्तसिंधु-सात नदियों का विशेष उल्लेख है। 'वैदिक इंडेक्स' के खण्ड 2 (पृष्ठ 424) में मैक्डोनल और कीथ ने 'इसे एक सुनिश्चित देश' माना है। ऋग्वेद में गण हैं, गण से मिलकर बने 'जन' हैं। यहां 'पाञ्चजन्य'- अर्थात पांच जनों की विशेष चर्चा है। ऋग्वेद में कहते हैं, 'अश्विनी कुमारों ने पाञ्चजन्य कल्याण में प्रवृत्त अत्रि को सहयोगियों सहित मुक्त करवाया।' पांच जनों के देश में 7 मुख्य नदियां हैं। ऋग्वेद में सप्तसिंधु और पंच जन बार-बार आते हैं। अदिति सम्पूर्णता का पर्याय हैं, वे 'पंचजना:' हैं। सिन्धु मुख्य नदी है, पर सरस्वती की प्रार्थनाएं ज्यादा हैं। सरस्वती भी पंच जनों को समृद्धि देती है (6.61.12)। पाञ्चजन्य आदि धरती को मां और आकाश को पिता कहते हैं। जल धाराएं उनके लिए 'आप: मातरम्' हैं। यहां एक विशेष प्रकार की संस्कृति है, सामूहिक चित्त है और सत्य अभीप्सु सहमना जीवनशैली है। समान मन वाले अपनी समितियां बनाते हैं। जब मन मिलते हैं तब हृदय भी एक साथ स्पंदित होते हैं। इसी से समाज बनते हैं और भूमि-संस्कृति की अखण्ड श्रद्धा से राष्ट्र। ऋग्वेद के आखिरी तीन मन्त्रों (10.191.2, 3 व 4) में साथ-साथ ज्ञानार्जन करने, एक समान प्रार्थना करने, साथ-साथ समिति, विचार-विमर्श चलाने और हृदय मिलाने की प्रार्थना है। घोषणा है कि हमारे पूर्वज भी इसी प्रकार चलते थे। यहां धरती माता है। आकाश पिता हैं। भरी-पूरी भू-सांस्कृतिक निष्ठा है। यह राष्ट्र ऋग्वेद से भी पुराना है।
ऋग्वेद में इन्द्र और वरुण आराध्य देव हैं। ऋषि दोनों से राष्ट्र आराधना करते हैं 'आपका द्युलोक जैसा राष्ट्र सबको आनंदित करता है।' (7.84) ऋग्वेद के वरुण श्रेष्ठ शासक हैं, वे शासनकर्त्ता है। (7.34.11) ऋग्वेद के एक राजा इक्ष्वाकु ऐतिहासिक हैं लेकिन इन्द्र, अग्नि, वरुण देवता हैं। सभी देवों से प्रार्थना है कि 'वे राष्ट्र को मजबूती दें – इन्द्र: च अग्नि: च ते राष्ट्रं ध्रुवं धारयातम्।' (10.173.3) ऋग्वेद में वरुण का शासक रूप है। वे गोपनीय से गोपनीय रहस्य भी जानते हैं। वे शासन करें तो राष्ट्र और भी अविचल होगा। इन्द्र वरुण से कहते हैं 'मम राष्ट्रस्य अधिपत्यं एहि – अपने इस राष्ट्र का अधिपतित्व स्वीकार करो।' (10.124.5) ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर आया 'राष्ट्र' एक सुनिश्चित भू-प्रदेश, एक विराट जनसमूह और एक प्रवाहमान जीवंत संस्कृति की सूचना है। यहां एक सुदीर्घ प्राचीन परम्परा के साक्ष्य हैं। इस राष्ट्र को सनातन कहना ही ठीक होगा।
पुनर्जागरण के स्वर
मार्क्सवादी विद्वान ऐसा नहीं मानते। वे भारत के भीतर अनेक कौम, अनेक देश देखते हैं। लेकिन प्रख्यात मार्क्सवादी चिन्तक डा. रामबिलास शर्मा भारत को विश्व का प्राचीन राष्ट्र मानते हैं। उन्होंने लिखा है, 'जिस देश में ऋग्वेद की सात नदियां बहती हैं, वह लगभग वही देश है जिसमें जल प्रलय के बाद, भरत जन के विस्थापित होने के बाद, हड़प्पा सभ्यता का विकास हुआ। यह देश, ऋग्वेद और हड़प्पा के काल का, उससे भी बहुत पुराना, संसार का सबसे पुराना राष्ट्र था।' '(भारतीय नवजागरण और यूरोप : पृष्ठ 87-88) डा. शर्मा इस देश की राष्ट्रीय एकता की नींव डालने का श्रेय ऋग्वेद के ऋषियों को देते हैं। कहते हैं 'इन कवियों (ऋषियों) के लिए राष्ट्र केवल भूमि नहीं है, उस पर बसने वाले जन राष्ट्र हैं।' (वही) राष्ट्र भू-सांस्कृतिक प्रतीति और अनुभूति है। इस अनुभूति का एक प्राचीन प्रवाह है। ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद तक राष्ट्रभाव की यह अनुभूति लगातार बढ़ी है। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त मातृभूमि की आराधना है। यही अनुभूति आधुनिक काल तक व्यापक और विस्तृत हुई है। बंकिम चंद्र का वंदेमातरम् इसी प्रवाह का विस्तार है।
दुनिया के बाकी देशों में पुनर्जागरण के बाद राष्ट्रभाव बढ़ा, लेकिन भारतीय पुनर्जागरण और यूरोपीय पुनर्जागरण में अंतर समझना चाहिए। यहां ऋग्वेद पहला भारतीय नवजागरण है और उपनिषद् दूसरा। भारत के सभी परवर्ती दर्शन इसी धारा का विकास हैं। यूरोपीय पुनर्जागरण बहुत बाद का है। इसके सैकड़ों वर्ष पहले भारत में ज्ञान, विज्ञान, उच्चतर तर्क-वितर्क और दर्शन की शुरुआत हो चुकी थी। कृषि सम्मुनत थी। कृषि, पशुपालन और बढ़ई, लुहार आदि विधाएं विकसित हो चुकी थीं। सभा-समितियां भी ऋग्वैदिक काल में ही अपना काम कर रही थीं। ऐसा जागरण यूरोप में 15वीं सदी तक भी नहीं हो पाया था। तब यूरोपीय समाज में अंधकार था। भारत में तब तक तीसरे पुनर्जागरण 'भक्ति प्रवाह' का दौर था। यह उच्चस्तरीय वेदान्त का लोकप्रवाह था।
भारत के पूर्वजों ने हजारों वर्ष पहले ऋग्वेद गाया। ध्यान दीजिए 'लिखा नहीं', गाया। समूचा वैदिक साहित्य श्रवण-स्मरण के द्वारा हजारों वर्ष तक सुरक्षित रहा। लिपि के विकास के बाद ही इसे लिखा गया। वेद और अधिकांश उपनिषद् साहित्य भी कथन, श्रवण और स्मरण के द्वारा लोकनिधि बने रहे। पुराणों में भी ऋषि वाच या ऋषि उवाच की भरमार है। वैदिक साहित्य में दर्शन, विज्ञान और समाज से जुड़े सभी विषय हैं। इसलिए ये कालबाह्य नहीं हुए। वैदिक भाषा लोक भाषा भी थी। वैदिक ऋषियों ने सारा साहित्य स्वयं अपने लिये या प्रबुद्ध मित्रों के लिए ही नहीं गाया। उसका उद्देश्य राष्ट्र संवर्धन था। राष्ट्र संवर्धन का सारा सम्वाद लोकभाषा में ही होता है। ऋग्वेद, अथर्ववेद और उपनिषदों में भारतीय राष्ट्रभाव का ही प्रवाह है।
राष्ट्रभाव का विकास
भारतीय राष्ट्रभाव दुनिया के अन्य देशों से भिन्न है। राष्ट्र का विकास यहां राजनीतिक कार्रवाई नहीं है और न ही राष्ट्र राजनीतिक इकाई है। मनुष्य-मनुष्य की प्रीति से संगठित मानव समूह या समाज बनते हैं। इसी से मानव समूह की साझी आचार संहिता विकसित होती है। इससे साझा रस, जीवन, छन्द और सामूहिक आनंद मिलता है। सामूहिकता से जुड़े ऐसे सभी रचनात्मक कर्म 'संस्कृति' कहलाते हैं। कृषि, आवास और सामूहिक अनुभूति से यह समूह अपनी भूमि से स्वाभाविक प्रेम करने लगता है। भूमि, जन और संस्कृति की त्रयी मिलती है। तीनों में से कोई एक बेकार है। निर्जन भूमि बेमतलब है। बिना भूमि वाले जन बेकार हैं, संस्कृतिविहीन मनुष्य (साहित्य और कला विहीन मनुष्यों को पशु कहा गया है) पशु से भी बदतर होते हैं। भूमि, जन और संस्कृति की त्रयी मिलकर एकात्म राष्ट्र बनाती है। भारतीय राष्ट्रभाव का स्वाभाविक विकास हुआ है।
वैदिक ऋषियों ने पृथ्वी को 'मां' कहा। मां सृष्टि की आदि-अनादि दिव्यतम अनुभूति है। मां सर्वोच्च दिव्यता है इसलिए पृथ्वी सर्वोच्च देवी है। डा. भीमराव अम्बेडकर ऋग्वेद के ऋषियों द्वारा गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों को 'मां' बताने वाले सूक्तों पर मोहित थे। उन्होंने इसी आधार पर आर्यों को विदेशी मानने से इंकार किया। भारत के जन में भूमि के साथ मां-पुत्र के रिश्ते हैं। रिश्तों का आधार संवेदनशीलता है। अथर्ववेद (12.1.12) में धरती माता है, हम सब पुत्र है – 'माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या:' बताया गया। इसके पहले मंत्र 10 में सा न: माता भूमि – वह भूमि हमारी माता है, कहा गया। फिर मंत्र 63 में कहते हैं, 'हे माता भूमि मुझे आश्रय सुरक्षा व कल्याण दें।' समूचे विश्व का लोकमंगल चाहने वाले सप्तसिन्धु के यह निवासी हजारों वर्ष प्राचीन राष्ट्र हैं।
राष्ट्र की उपासना
अथर्ववेद (8.10) में सामाजिक विकास के अनेक सूत्र हैं। कहते हैं 'वह शक्ति पहले से विराट थी। उसने ऊपर की ओर गमन किया और गृहस्थ संस्था बनी – सोदक्रामत् सा गार्हपत्ये न्यक्रामत।' (वही 1, 2) यह मानव विकास का प्रथम चरण था। फिर वह 'आहवनीय' हुई। वह और ऊपर (सोद क्रमात्) उठी और 'सभा' हो गयी। (वही, मन्त्र 8) जो यह तथ्य जानते हैं – यन्त्यस्य सभां सभ्यों भवति – वे सभा के योग्य है, सभ्य हैं। (वही, मंत्र 9) सभा के रूप में समाज का संगठन सभ्यता के विकास की सूचना है। विकास की गतिविधि जारी है। इस स्थिति में भी विकास हुआ। वह और ऊपर उठी, वह समिति बन गयी, जो इस तथ्य को जानते हैं, वे समित्य – सम्मान योग्य हैं।' (वही 10-11) ऋग्वेद में सामाजिक विकास का एक चरण है, यजुर्वेद में उसके बाद की मंजिल है।
यूरोप की तर्ज पर राष्ट्र निर्माण का काम यहां राजा/राज्य व्यवस्था या संविधान ने नहीं किया। अथर्ववेद (19.41) में राष्ट्र गठन का श्रेय तप और दीक्षा आदि नियमों को दिया गया है। अथर्ववेद के एक मंत्र (19.41) में 'राष्ट्र के जन्म' का इतिहास है। कहते हैं 'भद्रमिच्छन्त ऋषय: – ऋषियों ने सबके कल्याण की इच्छा की। उन्होंने आत्मज्ञान का विकास किया। कठोर तप किया। यहां कठोर तप, कठोर श्रम कर्म है। फिर कहते हैं 'दीक्षा आदि नियमों का पालन किया।' उनके 'आत्मज्ञान, तप और दीक्षा से 'ततो राष्ट्रं बलम् ओजस् जातं – राष्ट्र बल और ओज का जन्म हुआ। दिव्य लोग इस (राष्ट्र) की उपासना करें।'
भारतीय राष्ट्रभाव किसी संविधान, राजा या सरकार का राज्यादेश नहीं है। इसका प्राणतत्व ऋग्वेद और उसके पूर्व से चली आ रही जिज्ञासा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और दर्शन आधारित विकासमान संस्कृति है। इस संस्कृति में समूची मानवता के प्रति लोकमंगल की दृष्टि है। अपनी भूमि के प्रति अतिरिक्त मातृ भाव है। आकाश के प्रति पितृभाव है। सूर्य के प्रति 'तत्स वितुर्वरेण्यं' यानी नमन भाव है। पृथ्वी को मां और आकाश को पिता तथा विश्व को परिवार मानने वालों ने यह राष्ट्र गढ़ा है। विश्व में यही एक राष्ट्रभाव है, जिसकी दृष्टि अंतरारष्ट्रीय है। स्पष्ट है कि पृथ्वी और आकाश राज्यों की सीमा से परे हैं।
मार्क्सवादी विचार के अनुसार आर्थिक सम्बंधों या बाजार के फैलाव से राष्ट्र-राज्य का विकास होता है। उनके अनुसार सभ्यता और संस्कृति का उद्भव 'अतिरिक्त उत्पादन' से हुआ। लेकिन भारतीय राष्ट्रभाव का जन्म और विकास 'अतिरिक्त उत्पादन' से नहीं हुआ। वैदिक भारत और उसके भी पहले के निवासियों में 'अतिरिक्त जिज्ञासा' थी, जिज्ञासा से दर्शन आया, दर्शन में तर्क, प्रतितर्क की वैज्ञानिक प्रणाली आई। इसी परम्परा ने व्यापक विचार-विमर्श का दौर चलाया, सहमना संस्कृति का विकास हुआ। धरती माता बनी, विद्या माता बनी, नदियां माताएं बनीं। राष्ट्रीय अनुभूति का जन्म हुआ और राष्ट्रबोध आया। भू-सांस्कृतिक प्रीति और प्रतीति से ही राष्ट्रभाव बना। ऋग्वेद इसकी प्राणवान गवाही है। यह राष्ट्र वरेण्य है, हम इसका वरण करें। राष्ट्र का यह भाव पुरश्चरण के योग्य है। राष्ट्रभाव का जागरण, नवजागरण, पुनर्जागरण अनिवार्य है। राष्ट्र जागरण राष्ट्रधर्म है – राष्ट्रे जागृयाम् वयं पुरोहिता:। राष्ट्र हमारी अस्मिता है। यह एक परिवार है, हम सब इसके अंगभूत हैं। इसे परम वैभवशाली बनाएं। यह राष्ट्र जीवमान पुरुष है, हम इसका सम्वर्धन करें। यह राष्ट्र हमारे जीवन की मधुमयता है। यजुर्वेद (10.4) ऋषि के साथ अपना सुर मिलाएं और गाएं 'सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा। सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्र दा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहा। राष्ट्राय स्वाहा, इदं न
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