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Jan 24, 2012, 12:00 am IST
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जम्मू-कश्मीर पर बिछी शतरंज की बिसात

दिंनाक: 24 Jan 2012 18:32:05

जम्मू-कश्मीर पर बिछी शतरंज की बिसात 

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है जम्मू-कश्मीर को लेकर चल रहे विदेशी षड्यंत्रों को परास्त करना। भारत माता के मुकुटमणि कश्मीर के प्रति देशवासियों की जाग्रत शक्ति के द्वारा ही इस समस्या का समाधान हमेशा के लिए किया जा सकता है। अत: कश्मीर के प्रति अलगाववादियों व राष्ट्रद्रोहियों द्वारा निर्माण किए जा रहे भ्रमों से परे वास्तविकता को समझना अत्यंत आवश्यक है। पाकिस्तान की रणनीति इस विषय को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जिंदा रखने की है। लेकिन उसकी यह रणनीति भारत सरकार के सहयोग के बिना पूरी नहीं हो सकती । भारत सरकार की सामान्य बुद्धि की दाद देनी पड़ेगी कि वह  पाकिस्तान की इस रणनीति में अपनी भूमिका पूरी शिद्दत से निभाती रहती है। कश्मीर को लेकर पाकिस्तान अपनी इस रणनीति की सफलता के लिए आज तक प्राय: अमरीका समेत अन्य गोरी साम्राज्यवादी शक्तियों पर निर्भर करता रहा है। लेकिन कालांतर में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हालात तेजी से बदले और सैमुअल हटिंगटन की ‘सभ्यताओं के संघर्ष की अवधारणा’ ने अमरीका समेत पश्चिमी जगत में इस्लाम और ईसाइयत को आमने -सामने ला खड़ा किया। तो पाकिस्तान ने कश्मीर पर बिछी शतरंज की बिसात पर चुपचाप चीन को भी लाकर बिठा दिया। इसकी शुरुआत उसने अधिकृत कश्मीर के एक भाग को चीन को सौंपकर की। बिसात पर चीन के आ बैठने के बावजूद पाकिस्तान का मुख्य मकसद विवाद को जिंदा रखना ही रहा।

भारत सरकार की अदूरदर्शिता

भारत का विभाजन ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के आधार पर हुआ था। इस अधिनियम ने भारत सरकार अधिनियम 1935 को भी वैधानिक तौर पर आत्मसात किया था। अधिनियम में रियासतों के राजाओं को भारत अथवा पाकिस्तान में शामिल होने की छूट दी गयी थी। अधिनियम में किसी भी स्तर पर दोनों देशों में शामिल होने की प्रक्रिया में वहां की जनता को शामिल नहीं किया गया था। कानूनी तौर पर विलय की प्रक्रिया में जनता के समर्थन अथवा विरोध की कोई वैधानिक महत्ता नहीं थी। भारत स्वतंत्रता अधिनियम में रियासती राजाओं को विलय के लिए किसी समयसीमा का निर्धारण भी नहीं किया गया था। अधिनियम की इन धाराओं को लेकर बहस हो सकती है। लेकिन जब तक कोई अधिनियम अपने अस्तित्व को बनाए रखता है तब तक उसके अनुसार किए गए कृत्य ही वैधानिक माने जाते हैं। जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में विलय को इसी दृष्टि से देखना होगा। रियासत के उस वक्त के राजा महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और 27 अक्टूबर 1947 को विलयपत्र को भारत के गवर्नर जनरल ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार रियासत के भारत में विलय की प्रक्रिया पूरी हुई। यह सुविदित है कि उस समय इंग्लैंड सरकार नहीं चाहती थी कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हो। इंग्लैंड की इच्छा जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में देखने की थी। पाकिस्तान सरकार तो मजहब के आधार पर जम्मू-कश्मीर को प्रारम्भ से ही अपना हिस्सा मानकर चल रही थी। यह तो खुदा का शुक्र है कि जम्मू-कश्मीर भारत के ब्रिटिश भूभाग का हिस्सा नहीं था, बल्कि एक रियासत थी, नहीं तो इंग्लैंड इसे पहले ही पाकिस्तान को सौंप देता। जब पाकिस्तान और इंग्लैंड दोनों की ही इच्छाओं के विपरीत रियासत के राजा ने उसका भारत में विलय कर दिया तो ये दोनों शक्तियां तुरंत सक्रिय हो गयीं। यह सक्रियता दो मोर्चों पर हो रही थी। पहला मोर्चा तो जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान का प्रत्यक्ष आक्रमण ही था, जिसे बहुत से ब्रिटिश इतिहासकारों और बाद में भारतीय इतिहासकारों ने भी सीमांत प्रांत के कबाइलियों का भी आक्रमण कहा है। लेकिन अब यह निर्विवाद सिद्ध हो गया है कि कबाइलियों के मुखौटे में पाकिस्तान की सेना ही पूरी व्यूह रचना कर रही थी। दूसरा मोर्चा पूरे विलय को लेकर ही विवाद खड़ा करना था। इसमें उस वक्त के भारत के गवर्नर जनरल तुरंत सक्रिय हुए । ये गवर्नर जनरल भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए भी प्रत्यक्षत: ब्रिटिश एजंेट ही थे। उन्होंने विलय पत्र स्वीकार करते ही तुरंत महाराजा को एक चिट्ठी लिखी जिसमें भारत सरकार की ओर से यह घोषणा की गयी कि चूंकि जम्मू-कश्मीर रियासत का विषय विवादास्पद है इसलिए विलय को अंतत: जनमत द्वारा ही तय किया जाएगा। गवर्नर जनरल के साथ -साथ उस समय के भारतीय प्रधानमंत्री ने भी इंग्लैंड के प्रधानमंत्री एटली  को एक लम्बा तार दिया कि कश्मीर के विलय का प्रश्न क्योंकि विवादों से घिरा हुआ है इसलिए इसका अंतिम निर्णय रियासत की जनता का मत जानकर ही किया जाएगा। स्पष्ट है कि पाकिस्तान ने भारत के गवर्नर जनरल को अपने पक्ष में करके विलय के विवादास्पद होने की चर्चा प्रारम्भ करवा दी थी और भारत के प्रधानमंत्री गवर्नर जनरल के पीछे -पीछे पूरी तरह इस जाल में फंस चुके थे।

शिगूफा ही शिगूफा

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की किसी भी धारा में रियासतों की चर्चा करते हुए यह प्रावधान नहीं है कि जम्मू-कश्मीर रियासत के विलय का प्रश्न अन्य रियासतों की भांति नहीं बल्कि अलग ढंग से जनमत संग्रह द्वारा होगा। और न ही भारत सरकार अधिनियम 1935 में ऐसा कहीं प्रावधान है। और न ही इन दोनों अधिनियमों में ऐसा प्रावधान है कि किसी भी रियासत के विलय के प्रस्ताव को स्वीकार करते समय गवर्नर जनरल उसे सशर्त बना सकते हैं। प्रावधानों की उचित समीक्षा करने पर इतना तो स्पष्ट है कि वे विलय के प्रस्ताव को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकते हैं लेकिन वे उसे आंशिक शर्तों के साथ नहीं जोड़ सकते। जम्मू-कश्मीर रियासत के विलय के प्रस्ताव को भी गवर्नर जनरल ने बिना किसी शर्त के ही स्वीकार किया लेकिन अपने साम्राज्यवादी संस्कारों और भावी ब्रिटिश हितों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने रियासत के विवादास्पद होने और जनमत संग्रह करने का शिगूफा भी छोड़ दिया। परंतु स्पष्ट है कि यह शिगूफा राजनीतिक महत्ता तो रख सकता है लेकिन इसकी वैधानिक कीमत उस कागज जितनी भी नहीं है जिस कागज पर यह लिखा गया है। भारत सरकार की किसी कैबिनेट बैठक में भी ऐसा निर्णय नहीं हुआ कि रियासत का प्रश्न विवादास्पद है और जनमत संग्रह करवाया जाएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि जनमत संग्रह और रियासत के विवादास्पद होने के विचार उस समय के गवर्नर जनरल और उस समय के प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत विचार हो सकते हैं। रिकार्ड से ऐसा कहीं नहीं पता चलता कि यह निर्णय भारत सरकार का है। 

अप्रत्यक्ष रूप से जनमत संग्रह की मांग पाकिस्तान की मांग थी और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने भी सब जगह इसी को स्वीकार करना शुरू कर दिया । भारत सरकार की ओर से संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद 35 के अंतर्गत जो पाकिस्तानी आक्रमण के खिलाफ शिकायत की गयी उसमें भी आश्चर्यजनक ढंग से ऐसे मुद्दों का उल्लेख किया गया जिनका न कोई वैधानिक आधार था और न ही उस शिकायत में उनकी जरूरत थी। इस शिकायत पत्र में भारत सरकार की ओर से स्पष्ट किया गया कि 27 अक्टूबर को गवर्नर जनरल ने वैधानिक ढंग से रियासत के महाराजा के विलय प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान कर दी । इसके बाद भारत सरकार यह बताती रही कि विलय की मांग रियासत की सर्वाधिक लोकप्रिय नेशनल कान्फ्रेंस की ओर से शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने भी की थी। अप्रत्यक्ष रूप से शायद भारत सरकार यह सिद्ध करना चाहती हो कि विलय में वहां की जनता का भी समर्थन था। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत सरकार महाराजा हरिसिंह द्वारा विलय के प्रकरण को गौण मानती रही और शेख अब्दुल्ला के समर्थन को अपनी बहस का प्रमुख आधार बनाती रही। जनमत संग्रह वास्तव में राजनीतिक प्रश्न है, कानूनी प्रश्न नहीं। कानूनी मुद्दे पर पाकिस्तान की स्थिति कश्मीर के मामले में बिल्कुल ही कमजोर थी। इसलिए भारत विरोधी शक्तियां इस पूरे प्रश्न को राजनीतिक रंगत देना चाहती थीं और भारत सरकार उसमें पूरी तरह फंसती जा रही थी।

संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका

भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जो शिकायत भेजी थी , वह स्पष्ट ही एक सीमित प्रश्न को लेकर थी और संयुक्त राष्ट्र संघ का अधिकार क्षेत्र भी कानूनी रूप से उसी सीमित क्षेत्र पर निर्णय देने तक था। यह प्रश्न था कि भारत पर पड़ोसी देश पाकिस्तान ने आक्रमण किया है, इसलिए उसे आक्रांता घोषित किया जाए और उसे भारतीय क्षेत्र में से सेनाएं वापस बुलाने के लिए कहा जाए। इसके विपरीत संयुक्त राष्ट्र संघ ने विलय की वैधता अथवा अवैधता पर विवेचन करना प्रारम्भ कर दिया। और साथ ही कश्मीर में जनमत संग्रह कैसे करवाया जाए, इसके विभिन्न तरीकों पर जरूरत से ज्यादा गंभीर विचार-विमर्श करना शुरू कर दिया। जाहिर था कि संयुक्त राष्ट्र संघ अपने अधिकार का अतिक्रमण कर रहा था और इस अतिक्रमण के कारण उसके निर्णयों को भारत सरकार को तुरंत अस्वीकार करना चाहिए था और वहां से अपनी शिकायत वापस लेनी चाहिए थी। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की ओर से दर्ज शिकायत का समर्थन करने के लिए भारत सरकार की ओर से जो प्रतिनिधिमण्डल भेजा गया था उसमें नेशनल कान्फ्रेंस के प्रधान  शेख अब्दुल्ला को विशेष रूप से शामिल किया गया था और शेख अब्दुल्ला ने अपने भाषण में विलय का जबरदस्त समर्थन भी किया। लेकिन शेख अब्दुल्ला के भाषण से भारत सरकार ने इस गैर कानूनी कदम को महत्वपूर्ण बना दिया कि रियासत में भारत के विलय का मुख्य आधार वहां की जनता का समर्थन है। इसके विपरीत इस शिष्टमण्डल में महाराजा हरिसिंह को शामिल किया जाता तो उससे भारत की कानूनी स्थिति और मजबूत होती। पाकिस्तान और अमरीका दोनों जानते थे कि जनमत वाला मामला इतना फिसलन भरा है कि उसकी जब चाहे मनमानी व्याख्या की  जा सकती है और प्रश्न को तद्नुसार उलझाये रखा जा सकता है। यदि भारत सरकार इन निर्णयों को अस्वीकार नहीं करती तो जाहिर है वह इस पूरी अवैधानिक चर्चा में भाग लेने के लिए स्वयं को एकपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर रही है। पाकिस्तान और अमरीका की भी यही रणनीति है और अभी तक पता नहीं किन कारणों से भारत सरकार शतरंज की उस बिसात पर एक पक्ष के रूप में बैठकर कश्मीर सम्बंधी विवाद को जिंदा रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर भारतीय हितों के विपरीत ही आचरण कर रही है।

जम्मू-कश्मीर रियासत की भागीदारी

भारत का संविधान बनाने के लिए जो संविधान सभा गठित हुई थी उसमें निमयानुसार रियासतों के प्रतिनिधि भी शामिल किए जा रहे थे। रियासत अथवा रियासत समूह  के राजप्रमुख अपनी रियासत की ओर से आबादी के अनुपात में संविधान सभा में सदस्यों का मनोनयन करते थे। मनोनयन का यह अधिकार कानूनी रूप से रियासत के राजा अथवा राजप्रमुख को ही था। अन्य सभी रियासतों के राजाओं अथवा राजप्रमुखों ने अपनी रियासतों की ओर से मनोनयन किया था लेकिन जम्मू-कश्मीर के मामले में शेख अब्दुल्ला ने यह मनोनयन किया और भारत सरकार के दबाव में सदर-ए-रियासत की ओर से नियुक्त रीजेण्ट ने केवल चार व्यक्तियों का नाम दिल्ली तक भेजने में ही भूमिका निभायी। शेख अब्दुल्ला सदर-ए-रियासत की ओर से ही रियासत के प्रशासक अथवा प्रधानमंत्री नियुक्त किए गए थे, लेकिन संविधान सभा के लिए चार सदस्यों का चयन करने में रियासत के प्रशासक ने अपनी वैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण किया और दुर्भाग्य से भारत सरकार ने रीजेण्ट पर राजनीतिक दबाव डालकर इस अवैधानिक कार्य को मंजूरी दिलाने का दूसरा अवैधानिक कार्य किया। संविधान सभा में शेख अब्दुल्ला और उनके साथियों द्वारा अवैधानिक ढंग से घुस जाने के कारण उनकी भारत को ‘ब्लैकमेल’ करने की शक्ति कई गुना बढ़ गई जिसका परिणाम अभी तक देखा जा रहा है।

पाकिस्तान का अवैध कब्जा

पिछले 64 वर्षों के इतिहास में शायद प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के शासनकाल में पहली बार भारत सरकार ने पूर्व में की गयी अपनी गलतियों और अवैधानिक कृत्यों की विरासत से निकलने का एक ईमानदार प्रयास किया । संसद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करके यह संकल्प लिया कि पाकिस्तान द्वारा राज्य के बलपूर्वक कब्जा किए गए हिस्से को मुक्त करवाना ही समस्या का वैधानिक हल है। 1947 में पाकिस्तान ने राज्य के कुछ भागों मसलन बाल्टिस्तान और गिलगित पर कब्जा करने के अतिरिक्त कश्मीर के सीमांत के पंजाबीभाषी क्षेत्र मुजफ्फराबाद और जम्मू संभाग के मीरपुर पर कब्जा कर लिया था। पाकिस्तान जिसको ‘आजाद कश्मीर’ कहता है उसमें कश्मीरीभाषी लोग नहीं हैं बल्कि मुजफ्फराबाद और मीरपुर के पंजाबीभाषी लोग हैं। जिनकी सभ्यता और संस्कृति पंजाब से मिलती है न कि कश्मीर से। गिलगित और बाल्टिस्तान को पाकिस्तान ‘आजाद कश्मीर’ का हिस्सा नहीं मानता और वह पाकिस्तान में उत्तरी क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। पिछले कुछ वर्षों से उत्तरी क्षेत्र में चीनी सैनिकों का जमावड़ा बढ़ा है। इन सैनिकों की संख्या का अनुमान 10 से 15 हजार के बीच में बताया जाता है। रिकार्ड के लिए पाकिस्तान सरकार इन सैनिकों की उपस्थिति का कारण निर्माण की गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए बताती है। लेकिन तटस्थ विश्लेषक इसे कश्मीर समस्या में चीन को तीसरा पक्ष बनाने की साजिश मान रहे हैं। गिलगित और बाल्टिस्तान के लोगों का कश्मीर के लोगों के साथ भाषायी अथवा सांस्कृतिक सम्बंध नहीं हैं। कश्मीर में ज्यादातर लोग सुन्नी मुसलमान हैं जबकि इन उत्तरी क्षेत्रों में शिया हैं। इनकी भाषा तिब्बती भाषा से मिलती जुलती है। यह क्षेत्र मूलत: लद्दाख के अंग थे और यहां के लोग बुद्ध के उपासक थे जो कालांतर में मतांतरण के कारण मुसलमान हो गए। पाकिस्तान सरकार ने समस्या के समाधान के लिए शायद इस क्षेत्र में चीन से सबक लेकर जनसंख्या परिवर्तन का एक नया प्रयोग शुरू किया है। जिस प्रकार चीन तिब्बत में हान लोगों को बसाकर वहां जनसंख्या का अनुपात बदल रहा है। गिलगित और बाल्टिस्तान में भी पाकिस्तान सरकार उसी प्रकार पंजाबियों और पठानों को बसाकर जनसंख्या का अनुपात बदलना चाहती है। इस क्षेत्र में उर्दू को जबरदस्ती लागू करके स्थानीय मातृभाषा को समाप्त करने का षड्यंत्र भी रचा जा रहा है। वैसे तो पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण यह भू भाग पिछड़ा हुआ है लेकिन पाकिस्तान सरकार भी इस क्षेत्र में आधारभूत संरचनाओं में पैसा लगाने से गुरेज ही करती है। ‘आजाद कश्मीर’ में वैसे कहने के लिए तो पाकिस्तान  ने वहां एक स्वतंत्र सरकार बना रखी है, परन्तु उसकी हैसियत नगरपालिका जितनी भी नहीं है। यही कारण है कि अब उत्तरी क्षेत्रों में और ‘आजाद कश्मीर’ के लोगों में पाकिस्तान के प्रति वितृष्णा पैदा हो रही है और विद्रोह की चिंगारियां भी कहीं-कहीं दिखायी देने लगी हैं।

अतीत काल में खड़ी सरकार

लेकिन दुर्भाग्य से भारत सरकार जम्मू- कश्मीर राज्य को लेकर उसी अतीत काल में खड़ी दिखायी दे रही है जिसमें उसे पण्डित नेहरू अपनी अदूरदर्शिता के कारण छोड़ गए थे। विदेश विभाग के अधिकारी उसी सोच से संचालित हैं जो वाशिंगटन और लंदन से प्रचारित और प्रसारित होती है। क्या इसे जम्मू-कश्मीर की त्रासदी ही कहा जाएगा कि कश्मीर पर चर्चा करने वाले और उसका समाधान सुझाने वाले तथाकथित राजनीतिज्ञों और कूटनीतिज्ञों को इस प्रश्न पर लंदन और वाशिंगटन की भाषा तो आसानी से समझ आ जाती है लेकिन उन्हें जम्मू, लद्दाख और कश्मीर के लोगों की भाषा अभी तक समझ में नहीं आ रही। दिल्ली में बैठे लोग कश्मीर को एजेण्टों के माध्यम से समझने की कोशिश कर रहे हैं, यही इस समस्या का मूल कारण है।द

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