आपातकाल
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आपातकाल
लक्ष्मीकांता चावला
यह सर्वमान्य सत्य है कि समाज का जागरण ही देश में परिवर्तन का आधार बनता है। सत्ता बल से समाज को नहीं बदला जा सकता। 1905 के बंग-भंग आंदोलन की सफलता भी कवियों, पत्रकारों, शहीदों की उस मजबूत आवाज का परिणाम थी जिसने बंकिम के वंदेमातरम् को राष्ट्रमंत्र बनाकर पूरे देश में पहंुचा दिया। राष्ट्रभक्ति के विचारों से ओतप्रोत भारतीयों के लिए वंदेमातरम् में ऐसी शक्ति थी, जिसके सामने उन्हें गोली के घाव और काले पानी की यातनाएं भी छोटी लगने लगीं। देश की स्वाधीनता के लिए हुए राष्ट्रवादी आंदोलन के लम्बे दौर में भारत की राष्ट्रीय जन चेतना का जागरण ही मातृभूमि की पराधीनता की बेड़ियां काटने का प्रमुख संबल बना। इसके मूल में असंख्य राष्ट्रभक्तों द्वारा बलिदान देकर किया गया जनजागरण ही था। स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्र के नवनिर्माण का स्वर भी जनचेतना का ही परिणाम था। स्कूलों-कालेजों और गलियों में यह गीत गूंजता था, हम सब गाते थे-
‘करना है निर्माण हमें नवभारत का निर्माण,
हमें देश की जग में बढ़ानी होगी शान।”
ऐसे ही प्रेरक मंत्रों से राष्ट्र के नवनिर्माण का कार्य शुरू हुआ। परंतु उसमें राजनीतिक दुष्प्रेरणाएं व सत्ताकांक्षा लगातार बाधा बनी। सन् 1975 में देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता के सिंहासन को सुरक्षित रखने के लिए देश के इतिहास में एक काला अध्याय लिखा। पूरे देश में आपात स्थिति घोषित कर दी गई। सारे देश में गिरफ्तारियों का काला दौर चला। कांग्रेस को छोड़कर देश भर से भारी संख्या में नेता जेलों में बंद कर दिए गए। जो पहले दिन सरकारी तंत्र के पाश में फंसने से बच गए उनके विरुद्ध सारा ही सरकारी तंत्र दौड़ पड़ा। पूरे देश में जिस ढंग से नृशंस अत्याचार ढाए गए और यातनाओं व शोषण की चक्की में बेकसूर लोग पीसे गए उसने अंग्रेजों के अत्याचारों को भी पीछे छोड़ दिया। देश में कहीं से भी आशा की कोई किरण दिखाई नहीं दे रही थी। इस अंधेरे वातावरण में फिर जनता ही आगे आई। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर आंदोलन चले, सत्याग्रह हुए, जेलें भरी गईं, जो भी सत्याग्रही उन दिनों जेलों में जाते थे उनको वापस आने की कोई भी आशा दिखाई नहीं देती थी। एक बार तो ऐसा वातावरण पैदा हो गया कि जब यह आपातकाल के विरोधी सत्याग्रही अदालतों में पेश होने के लिए आते थे तो भयग्रस्त निकटतम मित्र-संबंधी भी पहचानने से इनकार करते थे। जिन परिवारों के सदस्य इस सरकारी अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाकर आगे बढ़े, उनके परिवारों के सुख-दुख में भी भाग लेने से आम लोग भागने लगे। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा और मार्गदर्शन से देश में भारतीय जनसंघ और उसके साथ ही अन्य सहयोगी दलों ने त्याग और बलिदान के प्रतीक सत्याग्रह का मार्ग अपनाया, फिर तो सभी इस आंदोलन से पूरे उत्साह के साथ जुड़ते चले गए। मैंने देखा है कि किस तरह उस समय प्राय: प्रतिदिन पंजाब के सभी शहरों से सैकड़ों लोग ‘भारत माता की जय’ और ‘इमरजेंसी मुर्दाबाद’ नारे लगाते हुए गिरफ्तारी देते थे, लाठियां भी खाते थे, पर प्रजातंत्र का कत्ल उन्हें स्वीकार नहीं था।
हमारे एक साथी कार्यकर्ता श्री विजय अग्रवाल ने निश्चित तिथि पर विवाह इस शर्त के साथ करवाना स्वीकार किया कि वधू को घर में पहुंचाते ही वह सत्याग्रह को जाएंगे। इसके बाद वह महीनों तक जेल में बंद रहे। कुछ कार्यकर्ता बाराती बनकर सत्याग्रह स्थल पर पहुंच जाते और कहीं-कहीं तो ऐसा दृश्य बनाना पड़ता कि मृतक की अर्थी के साथ जा रहे हैं, पर पुलिस परेशान हो जाती जब वही सब सत्याग्रही निकलते। ‘संघर्ष पत्र” उन दिनों कार्यकर्ताओं से जोड़ने का एक सशक्त माध्यम था। सच यह भी है कि अगर किसी की भी स्कूटर-साइकिल की टोकरी, सब्जी के थैले में ‘संघर्ष पत्र’ सरकार को दिखाई दे जाता तो उसे सड़क पर ही सरकारी पिटाई और अपमान सहना पड़ता था। ‘संघर्ष पत्र’ का संपादन करते हुए एक दिन हरियाणा के श्री रामविलास शर्मा और पंजाब के वरिष्ठ संघ अधिकारी श्री मित्रसेन पर पुलिस द्वारा किए गए अमानवीय अत्याचारों को पढ़कर संतुलन रखना ही कठिन हो गया। मुझे तब बहुत प्रसन्नता होती थी जब राह चलते कभी किसी पुलिस थाने में, किसी स्कूल-कालेज में या कभी किसी सरकारी कार्यालय में ‘संघर्ष पत्र’ की कुछ प्रतियां हम गिरा आते और अगले दिन चर्चा होती कि इमरजेंसी विरोधियों का अखबार मिल गया। हमारे निडर कार्यकर्ता यह अखबार थानों की दीवारों पर चिपका कर आराम से वापस आ जाते थे। उनकी हिम्मत और कार्य-कुशलता का ही परिणाम था कि हजारों घरों में संदेश पहुंच जाता।
जेलों में बंद आंदोलनकारियों का मनोबल कितना ऊंचा था, अमृतसर जेल में बंद हमारे नेता, जिनमें श्री हरबंस लाल खन्ना का नाम स्मरणीय है, बड़े ऊंचे स्वर से गाते थे- ‘बलिदान कहांदा ए देश ते मरना…’ और यह घोषणा करते थे कि जेल में शाखा लगाते हैं, व्यायाम करते हैं, जेल की जमीन से ही अपने लिए गाजर-मूली पैदा करके सेहत भी ठीक रखते हैं।
पंजाब और हरियाणा ने हिम्मत से आपात स्थिति का सामना किया, लेकिन इसके मूल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ द्वारा काले दिनों की अंधेरी रातों में किया गया जनजागरण ही था जिसे केवल वही कार्यकर्ता सुनते और सुनाते थे जो सत्ता की राजनीति से दूर रहकर देश में प्रजातंत्र को जिंदा रखना चाहते थे। अगर उन दिनों लोगों को पहले कार्यकर्ताओं ने और फिर सत्याग्रहियों ने जगाया न होता तो यह अंधेरा संभवत: अगले अनेक वर्षों तक देश में छाया रहता।
जनजागरण की शक्ति आतंकवाद के दिनों में भी पंजाब और देश ने देखी है। जब एक छोटे से कागज के टुकड़े पर लिखे हुए आधे-अधूरे आतंकवादी आदेश से पंजाब बंद हो जाता था, पानी भी मिलना संभव नहीं था, ऐसे वातावरण में पुन: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरण से राष्ट्रीय सुरक्षा समिति के मंच पर कार्यकर्ता एकत्रित हुए और त्रस्त पंजाब से ऐसे बलिदानी जत्थे निकले, जिन्होंने सारे पंजाब को आतंकवादियों के विरोध में खड़ा कर दिया। नदियों और सरोवरों के किनारे एकत्रित होकर अपने-अपने रक्त से हस्ताक्षर करते हुए पंजाब न छोड़ने का और आतंकवाद के सामने डटने का जो संकल्प लिया, उसी का परिणाम आज पंजाब में आतंकवाद की समाप्ति और सामाजिक समरसता है। यह सच भी स्वीकार करना होगा कि आपात स्थिति के काले दिन, जो आतंकवादियों के भय से भी ज्यादा डरावने थे, अगर समाप्त हो सके हैं तो उसका श्रेय उन दिनों के निडर नेताओं, बलिदानी कार्यकर्ताओं तथा सर्वोपरि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरक शक्तियों को ही जाता है। द
कालरात्रि को चीरकर आया सुप्रभात
द हरिमंगल
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल एक ऐसा काला अध्याय है जिसे सहजता से नहीं भुलाया जा सकता है। आज राहुल गांधी और सोनिया गांधी का जयकारा लगाने वाले लोग, जिसमें आज की युवा पीढ़ी भी शामिल है, उनमें से कितनों ने इंदिरा गांधी का वह चरित्र देखा है जो 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल लागू होने के बाद दिखायी पड़ा था?
देश में आपातकाल घोषित होने के बाद सबसे अधिक उत्पीड़न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं का हुआ। राष्ट्रगौरव और स्वाभिमान के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाले स्वयंसेवक ‘राष्ट्रद्रोही’ करार दिये गये। 14 जुलाई, 1975 को संघ पर प्रतिबंध लगने से पहले ही तमाम स्वयंसेवकों और पदाधिकारियों को गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिया गया। उस समय संघ के प्रांत कार्यवाह का दायित्व होने के कारण मुझे भी 4 जुलाई, 1975 को नैनी सेंट्रल जेल भेज दिया गया। वहां हमें आम कैदियों की तरह रखा गया। संघ से जुड़ाव के कारण प्रयाग विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित प्राध्यापकों डा.मुरली मनोहर जोशी, डा. कृष्ण बहादुर, डा.राजेन्द्र प्रसाद अग्रवाल एवं डा.सुरेन्द्र नाथ मित्तल को भी रातोंरात गिरफ्तार करके नैनी जेल पहुंचा दिया गया। डा.कृष्ण बहादुर की ख्याति का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जब जवाहरलाल नेहरू अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले प्रयाग आये तो प्रो.कृष्ण बहादुर के नवीनतम शोधों से इतना प्रभावित हुए कि उन्हें शीघ्र सम्मानित करने का आश्वासन देकर गए, परंतु नेहरू जी की मृत्यु हो जाने से सम्मान तो उन्हें नहीं मिला, हां, नेहरू जी की ही पुत्री ने कुछ वर्ष बाद उन्हें जेल जरूर भिजवा दिया।
जेल में संघ के स्वयंसेवकों के साथ अन्य दलों के राजनेताओं की संख्या बढ़ने लगी। संघ के स्वयंसेवकों को बाहर शाखा लगाना प्रतिबंधित था, लेकिन नैनी जेल के भीतर ही शाखा लगने लगी। राजनेता तो शाखा में जाने से परहेज करते क्योंकि उनमें से अधिकांश हर त्योहार के नजदीक आने पर अपनी रिहाई की उम्मीद लगाये रखते, यद्यपि ऐसा हुआ नहीं। स्वयंसेवक हंसते-खेलते संघ की शाखा लगाते और कार्यक्रम करते। दिन में कभी-कभी बैठक आदि चलती, सब लोग एक साथ खाना खाते।
संघ के स्वयंसेवकों को फर्जी मामलों में गिरफ्तार करके जेल भेजा गया था। इस अत्याचार और तानाशाही से मुक्ति मिलने का कोई आसरा नहीं दिख रहा था। जेल में हमें किताब और अखबार से दूर रखा जाता था, लेकिन पत्र आदि आते रहते थे। श्री रज्जू भैया उस समय पत्रों के माध्यम से स्वयंसेवकों की कुशल क्षेम बताते रहते थे। अचानक एक दिन रज्जू भैया का बहुत ही हृदयग्राही पत्र आया, पता नहीं कैसे वह पत्र सेंसर से पास हो गया था। पत्र में लिखा था “कालरात्रि जितनी भी अंधेरी हो, सुप्रभात आता ही है।” रज्जू भैया का मंतव्य समझकर मैंने सबको बताया कि अब अंधेरा छंटने वाला है। सबने जेल में ही प्रतिज्ञा की, ‘हम जेल से निकलकर रात्रि को घर में नहीं सोएंगे, चारों ओर घूम-घूमकर हम ऐसे वातावरण का निर्माण करेंगे, जिससे पुन: हमारे विचारों की प्रतिष्ठा हो सके, नागरिक स्वतंत्रता बहाल हो, संघ का कार्य पुन: प्रारंभ हो।’ इतिहास गवाह है कि किस प्रकार स्वयंसेवकों ने देश में जन जागरण किया, सहमति बनायी। चुनाव में कांग्रेस की निरंकुश सत्ता को पराजित कर सत्ता में आई जनता पार्टी इसी की देन थी।
आज 35-36 वर्ष बाद भी स्वयंसेवकों का सत्याग्रह, भूमिगत आंदोलन, पुलिसिया उत्पीड़न मेरी बूढ़ी आंखों में तैरता रहता है। आज मैं 92 वर्ष का हो चुका हूं, लेकिन जब भी किसी को इंदिरा गांधी और कांग्रेस का जयकारा लगाते देखता- सुनता हूं तो बरबस यही सोचता हूं क्या उन्होंने इंदिरा गांधी का चरित्र पढ़ा, सुना या देखा है?द
(श्री वीरेन्द्र कुमार चौधरी प्रयाग उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं, प्रदेश में महाधिवक्ता भी रह चुके हैं।)
जनता की ताकत ही बदलती है हालात
द राकेश सैन
आपातकाल के काले दिनों की स्मृतियों को खंगालते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता नागरिक प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय संयोजक व पंजाब के पूर्व केबिनेट मंत्री श्री बलराम दास टंडन बताते हैं कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने पंजाब में अपने विरोध की प्रचंडता को कम करने के लिए पहले तो सिख नेतृत्व को बिल्कुल नहीं छुआ। वे रोचक प्रसंग बताते हैं कि अमृतसर में पुलिस गलती से एक अकाली नेता को गिरफ्तार कर लाई, परंतु जब उच्चाधिकारियों ने अपने अधीनस्थों को इसके लिए डांटा तो पुलिस वालों को उन्हें छोड़ना पड़ा। परंतु रिहा होते समय उक्त अकाली नेता के मुखमंडल पर ग्लानि का भाव था, क्योंकि कांग्रेस का विरोध करने वाले रा.स्व. संघ व जनसंघ के नेता उस समय थाने में ही थे और अकाली नेता ने यह महसूस किया कि जैसे संघ के लोग समझ रहे होंगे कि शायद अकाली दल की कांग्रेस से साठगांठ हो चुकी है।
श्री टंडन बताते हैं कि ऐसी स्थिति केवल उक्त अकाली नेता की ही नहीं बल्कि पूरे अकाली नेतृत्व की हो चुकी थी, इसीलिए दल के प्रधान सरदार मोहन सिंह, श्री प्रकाश सिंह बादल, जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहड़ा, श्री मक्खन सिंह के नेतृत्व में हुई बैठक के दौरान अकालियों ने आपातकाल के खिलाफ सत्याग्रह करने का फैसला किया।
अमृतसर में श्री टंडन के साथ गिरफ्तार किए गए लोगों में डा.बलदेव प्रकाश, श्री कृष्ण लाल मैनी, श्री यज्ञदत्त शर्मा, बाबू हिताभिलाषी, श्री विश्वनाथ, श्री कपूर चंद जैन व अन्य विख्यात लोग शामिल थे। इन लोकतंत्र सेनानियों का कहना कि आज की परिस्थितियां उस समय के आपातकाल से भी विकट हैं। जिस तरह सरकार का विरोध करने वालों को दबाया जा रहा है, उनको लांछित किया जा रहा है, प्रताड़ित किया जा रहा है उससे नहीं लगता कि देश में स्वस्थ लोकतंत्र की धारा बह रही है।
जालंधर सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तारी देने वाले आकाशवाणी प्रकाशन के प्रभारी श्री अशोक गुप्ता व कपूरथला नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष श्री चिरंजीलाल धीर बताते हैं कि समस्या सत्ताधीशों के तानाशाह होने की नहीं बल्कि जनता जनार्दन के निष्क्रिय होने की है। बाबा रामदेव पर जब अत्याचार किया गया और अण्णा को जिस तरह बदनाम किया गया उससे तो पूरे देश में सरकार के विरोध की प्रचंड लहर दौड़नी चाहिए थी, परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। इसका कारण शायद यह है कि आज हर व्यक्ति का जीवन आत्मकेन्द्रित हो गया है और जीवन में पैसा ही प्रधान बन गया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रांत कार्यवाह श्री देवेन्द्र गुप्ता बताते हैं कि आपातकाल में जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो वे अमृतसर में विभाग प्रचारक थे और उन्हें जालंधर के अलावा फिरोजपुर की जेल में तीन महीनों तक बंद रखा गया। उन्होंने आपातकाल के दौरान स्वयंसेवकों द्वारा दिखाए गए हौसले की तारीफ करते हुए कहा कि जेल में बंद कई दलों के लोग इस बात से चिंतित थे कि श्रीमती इंदिरा गांधी उन्हें जीवन में कभी आजाद होने भी देंगी या नहीं, परंतु उनके सामने कभी किसी स्वयंसेवक ने इस तरह की बात नहीं की और वे जेल के अंदर भी राष्ट्रसेवा की बातें करते या योजना बनाते रहते थे। मासिक पत्रिका के संपादक रहे जालंधर निवासी श्री सुदर्शन चौहान बताते हैं कि उस समय ज्ञानी जैल सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री थे। चंडीगढ़ में चल रहे कांग्रेस के अधिवेशन में श्रीमती गांधी को हिस्सा लेना था। उनकी व साथियों की योजना अधिवेशन के दौरान नारेबाजी करने की थी जिसमें वे सफल भी हुए। पुलिस ने उन्हें साथियों सहित गिरफ्तार कर बुडैल जेल में डाल दिया। उन्होंने बताया कि आपातकाल के दौरान प्रेस पर पूरा शिकंजा कसा गया था परंतु आज भ्रष्टाचार लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को खोखला कर रहा है।द
आपातकाल के बाद दूसरी आजादी
-मेघराज जैन, सदस्य, राज्यसभा
26 जून, 1975। मैं जयप्रकाश नारायण छात्र संघर्ष समिति का प्रदेश सह संयोजक था और जबलपुर से मण्डला जाने की तैयारी कर रहा था, तभी मुझे जानकारी मिली कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी है। मैं मण्डला न जाकर सीधे भोपाल के लिए रवाना हुआ। यहां आकर मालूम पड़ा कि सभी नेता पकड़ लिये गये हैं। मुझे भी पुलिस ढूंढ रही है। इसलिए मैं अपनी पहचान बदलकर जनसंघ कार्यालय में रहने लगा। लेकिन एक दिन अचानक पुलिस ने कार्यालय पर छापामार कर आपातकाल के खिलाफ पर्चे तैयार करते हुए मुझे पकड़ लिया। मैंने अपना नाम विनोद श्रीवास्तव और पिता का नाम रामकिशोर श्रीवास्तव बताया। पुलिस ने दो दिन हवालात में रखा और मेरी जमानत स्व.प्यारे लाल खंडेलवाल के बड़े भाई जगन्नाथ जी ने दी। पांच महीने तक अदालत में पेशी चलती रही और पुलिस मुझे ढूंढती रही। आखिरकार कार्यालय में मेरी पहचान कर ली गई और मुझे ले जाकर भोपाल जेल में विचाराधीन बंदियों के साथ रखा गया, फिर इंदौर सेंट्रल जेल भेजा गया। सेंट्रल जेल की अव्यवस्थाओं को लेकर वहां कई आंदोलन किये। मुझे जेल के कुएं में ढकेलने की पुलिसिया योजना भी बनी। लेकिन एक बुजुर्ग कैदी के समझाने के बाद मैं बच गया। उसके बाद मुझे जिला जेल भेज दिया गया। जहां मैं 14 माह तक रहा। आपातकाल में जेल के दौरान ऐसा माहौल भी देखा कि बीमारों के लिए दवाइयां भी सुलभ नहीं थीं। कई मीसा बंदी ऐसे थे जिनके परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने के बाद उनको पेरोल तक नहीं मिला। हमारे कार्यकत्र्ता प्रेमचंद राठौर का बेटा खिड़की से गिरकर मर गया, पुलिस हथकड़ी डालकर उन्हें अंतिम संस्कार कराने के लिए श्मशानघाट तो ले गई, पर उनके खूब गिड़गिड़ाने के बावजूद पुलिस ने पत्नी से नहीं मिलने दिया। श्मशान से सीधे जेल ले आई। ऐसी अनेक घटनाएं हैं जिनके बारे में सोचने मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। किंतु तब उत्साह इतना अधिक था कि प्रात:स्मरण, नियमित शाखा, दोपहर को बौद्धिक एवं विविध त्योहार खुशी के साथ मनाये जाने लगे।
हमारे प्रति बाहर कितनी श्रद्धा और श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रति आमजन में नफरत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब रात्रि 11 बजे मुझे छोड़ा गया तो जेल के बाहर एक माल ढोने वाला आटो रोककर मैं उसमें जा बैठा। वह मुझे चौराहे तक लेकर गया। किंतु पैसे देने पर उसने यही कहा कि मुझे मालूम है कि आप मीसा बंदी हैं। आपसे पैसे लेने का पाप नहीं करूंगा। चौराहे से घर तक 15 किलोमीटर की दूरी के लिए फिर एक आटो किया, उसने भी ससम्मान घर तक छोड़ा, किंतु एक रुपया भी नहीं लिया।
मेरा युवाओं के प्रति यही संदेश है कि आज जो देश में बोलने की स्वतंत्रता है, जिस प्रकार के माहौल में नई पीढ़ी आनंद उठा रही है वह उठाते रहना चाहिए लेकिन यह ध्यान भी रखना चाहिए, कि इसी स्वतंत्रता के लिए पहले अंग्रेजों से, फिर आपातकाल के दौरान अपनों से ही संघर्ष करना पड़ा है। यह सब हो सका जनचेतना के जागरण से ही। इसलिए वह स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में न बदलें। युवा जिस ओर जाएगा, देश भी उसी ओर जाएगा। देश की ऐसी ही चैतन्य जनशक्ति से भारत के उज्ज्वल भविष्य के प्रति एक आशा की किरण चमक रही है। द प्रस्तुति: मयंक चतुर्वेदी
आपातकाल की यादें
काश, आज की पीढ़ी भी
इस दर्द को समझे!
-सुंदर लाल पटवा, पूर्व मुख्यमंत्री, म.प्र.
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री सुंदरलाल पटवा आपातकाल की याद कर बताते हैं कि आपातकाल के पहले दिन ही रात्रि को मंदसौर में उन्हें पकड़ लिया गया था। मंदसौर जेल में चार दिन रखने के बाद उन्हें इंदौर भेज दिया गया। वे बताते हैं, ‘जेल के अंदर मुझे कई प्रकार के खट्टे-मीठे अनुभव हुए। बड़े-बड़े नेताओं की सही पहचान उन 19 महीनों में हो गई जो स्वयं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते थे। यह देखकर आश्चर्य होता था कि कई लोग भयभीत होकर राजनीति छोड़ने की बात करते थे। उन्हें यह विश्वास ही नहीं था कि जेल से बाहर जाने का अवसर कभी मिलेगा। ऐसे लोग मुझसे कहा करते थे कि श्रीमती इंदिरा गांधी के पास लिखकर आवेदन भिजवा देते हैं कि वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे। उन्हें छोड़ दिया जाए। उन्हें भय था कि जेल में पुलिस उन्हें मार डालेगी और उनकी हड्डियां ही बाहर निकलेंगी।’
श्री पटवा कहते हैं, ‘ऐसे विपरीत कालखंड में संघ के तरुण स्वयंसेवकों का उत्साह देखते ही बनता था। वे बेफ्रिक होकर जेल में ही शाखा लगाते और कबड्डी, बैडमिंटन, बालीबॉल जैसे खेल खेलते थे। उनका बालपन हम जैसे सभी कार्यकत्र्ताओं को त्याग और समर्पण की प्रेरणा देने वाला रहा। मुझे जेल जाने का कभी दुख नहीं रहा। क्योंकि अंदर से कहीं न कहीं पूर्वाभास हुआ करता था कि श्रीमती गांधी द्वारा लोकतंत्र की हत्या कर थोपा गया यह आपातकाल तीन साल से ज्यादा नहीं रह सकता। वास्तव में यह समय श्रीमती इंदिरा गांधी के लिए ही आपातकाल रहा होगा, लेकिन देश के भविष्य के लिए ही यह मानो स्वर्णकाल था। ऐसा हुआ भी। वास्तव में आपातकाल के समय सबसे ज्यादा कष्ट हम जैसे राजनीतिक और सामाजिक कार्यकत्र्ताओं की पत्नियों ने झेले। मेरी पत्नी भारती के साहस की मैं आज भी दाद दूंगा। वह जब भी जेल में मिलने आतीं तो कहतीं कि आपसे मिलने के लिए पांव उछल कर चलते हैं और जब जाने की बारी आती है तो यही पैर सवा मन के हो जाते हैं। उस समय लोग मीसा बंदियों के घर आने से डरते थे। उन्हें भय था कि कहीं पुलिस उनसे संबंधों के आधार पर हमें भी पकड़कर जेल में न डाल दे। मीसा बंदियों के घरवालों को अनेक कष्ट दिये जाते थे। जिलाधीश मीसा बंदियों की पत्नियों को मिलने का समय नहीं देते थे, परिवारजनों को भी आसानी से समय नहीं मिल पाता था।’
आज के हालात के संदर्भ में श्री पटवा का कहना था, ‘काश, आज की पीढ़ी यह बात समझे। वह पहले की अपेक्षा अधिक पढ़ी-लिखी है, लेकिन उतनी ही जल्दबाज भी। आपातकाल के अनुभव बताते हैं कि आजादी कभी यूं ही नहीं मिल जाती। उसके लिए धैर्यपूर्वक जनांदोलन चलाते हुए संघर्ष और बलिदान करना ही पड़ता है। आज की युवा पीढ़ी को जो स्वतंत्रता मिली है उसमें हजारों-लाखों लोगों का बलिदान निहित है। भविष्य में इसे सहेज कर रखना अब उनका ही उत्तरदायित्व है।’द प्रस्तुति: मयंक चतुर्वेदी
प्रदीप कंसल
अद्भुत योद्धा
द अजय मित्तल
इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा के बाद विपक्ष को कुचलने की घोषणा की थी। मेरठ में रा.स्व.संघ के स्वयंसेवक और अ.भा.विद्यार्थी परिषद के कार्यकत्र्ता प्रदीप कंसल ने 29 जनवरी 1976 को मेरठ कालेज, मेरठ में अभिनव प्रकार से सत्याग्रह किया। वे अपने कपड़ों के नीचे बड़े-बड़े पटाखे बांधकर ले गये थे और वहां उनकी लड़ी बनाकर आग लगा दी। कई मिनट तक सारा कालेज उनकी गगनभेदी आवाजों से गूंजता रहा। हजारों छात्र, अध्यापक, कर्मचारी इकट्ठे हो गये। प्रदीप ने आपातकाल के विरोध में जो भाषण दिया और नारे लगाये, तो तमाम छात्र उनके सुर में सुर मिलाने लगे। सारे कालेज में एक घंटे तक नारेबाजी चली। इतने में दो पुलिस वाले उन्हें गिरफ्तार करने आये तो सैकड़ों छात्र उनके ऊपर टूट पड़े। तब प्रदीप ने ही उन्हें बचाया और उनके ऊपर लेट गये। उन्होंने चिल्ला-चिल्ला कर कहा कि हमारा सत्याग्रह शांतिपूर्ण है।
रात में प्रदीप को अकेले पुलिस लाइन ले जाकर खूंखार अपराधियों से पूछताछ करने वाले विशेष पुलिस दस्ते के हवाले कर दिया गया। उनसे इस कांड के सूत्रधारों, संघ के प्रमुख कार्यकत्र्ताओं के नाम पते पूछे गये। प्रदीप ने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया। तब उन लोगों ने उन्हें निर्वस्त्र कर ठंड के मौसम में जमीन पर उलटा लिटा दिया और फिर पाशविक जुल्मों का दौर शुरू हुआ। पर वे निरंतर भारतमाता का नाम जपते रहे। अनेक बार अचेत हुए। इस बीच एक बार जब होश में आये तो इनके दायें पैर के नाखून खींचकर फिर से संज्ञा-शून्य कर दिया गया।
वे मेरठ जेल में कुछ दिन अलग बैरक में रखे गये, ‘मीसा’ के अन्तर्गत बंदी बनाए गए थे। लगभग दो सप्ताह बाद जेल के तमाम ‘मीसा’ और डी.आई.आर. के कैदी इकट्ठे होकर इनकी बैरक से इन्हें चारपाई सहित उठाकर अपने बीच ले आये। अदालत में पेशी पर इन्हें लाया जाता तो सैकड़ों लोग इन्हें देखने इकट्ठा होते और ‘मेरठ का भगत सिंह जिंदाबाद’ के नारे लगाते।द
देश का दुख पहले…
द संजीव कुमार
आपातकाल के समय अपने भविष्य को दांव पर लगाकर कई लोग जेल गए। उनमें एक प्रमुख नाम श्री रामचन्द्र प्रसाद का भी है। सीवान के रहने वाले रामचन्द्र जी संघ के स्वयंसेवक थे। देश के सुनहरे भविष्य की कल्पना प्रतिदिन किया करते थे। 18 वर्ष के रामचन्द्र जी पढ़ाई के साथ कपड़े की दुकान पर 150रु. प्रतिमाह की नौकरी करते थे। माताजी व पिताजी के अलावा पांच भाई भी थे। पिताजी शरीर से लाचार होने के कारण कोई काम नहीं कर पाते थे। बड़े भाई के तीन बच्चे थे। घर का खर्चा इनके 150रु. से ही चलता था। आपातकाल की घोषणा होते ही संघ ने ‘जेल भरो’ का आह्वान किया। रामचन्द्र जी तत्कालीन जिला प्रचारक नरेन्द्र जी के कहने पर जेल जाने को तैयार हो गए। एक माह का अग्रिम वेतन परिवार को देकर जेल चले गए। इन्हें जेल में डेढ़ वर्ष गुजारना पड़ा।
सीवान जेल में अनशन किया कि ‘जेल मेन्युअल’ के हिसाब से तयशुदा खाना सभी कैदियों को मिलना चाहिए। जेल अधीक्षक के उकसाने पर कुछ कैदियों ने इन लोगों के साथ मार-पीट की। कसूर न होते हुए भी इन लोगों को भागलपुर जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। वहां भी इन लोगों ने इसी मुद्दे को लेकर आंदोलन किया। वहां सहायक जेल अधीक्षक के साथ तीखी नोक-झोंक के बाद इन्हें भागलपुर केन्द्रीय कारा में भेज दिया गया। भागलपुर केन्द्रीय कारा में इन्हें फांसी की कोठरी में रखा गया। वहां 14 कोठारियां खूंखार अपराधियों के लिए बनाई गई थीं, परन्तु सिर्फ इन्हीं को उस कोठरी में डाला गया। इनके साथ संघ के स्वयंसेवक बाल्मीकि यादव भी उसमें डाल दिए गए। इन्हें खाना फेंक कर दिया जाता था। विरोध में इन्होंने भूख हडताल की। चार दिन भूखे रहे। वहां से इन्हें अस्पताल जाना पड़ा।
घर की कमाई का स्रोत न होने के कारण माताजी व पिताजी ने बड़े भाई को समझाया कि वह किसी तरह अपने बच्चों व पत्नी का परिवार चलाएं और मां शेष सदस्यों के साथ दूसरे गांव चली गईं। वहां धान कूटने का काम मिला। पूरा परिवार खाने के नाम पर चावल के टुकड़े खाकर अपना पेट भरता था तथा मां को मिले पैसे से पिताजी का इलाज होता था। इस क्रम में घर का सभी सामान बिक गया। खाने के बर्तन तक बेच देने पड़े। जब रामचन्द्र जी जेल से वापस आए तो अपने घर की परिस्थिति देखकर दुखी हुए, परन्तु उन्हें उम्मीद थी कि देश का संकट समाप्त होगा। अपनी बातचीत में उन्होंने बताया कि अपने घर की गरीबी देखकर उन्हें उतना दुख नहीं होता है जितना आज के हालात को देखकर होता है।द
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