आवरण कथा
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ममता की घुड़की
से
सहमी कांग्रेस
* बासुदेब पाल
पश्चिम बंगाल में कहने को तो तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठबंधन की सरकार है, लेकिन दोनों ही दलों में इन दिनों इतने आपसी मनमुटाव हैं कि लगता है वहां किसी विरोधी दल की जरूरत ही नहीं है। भीषण तलवारें खिचीं हुर्इ हैं। कोलकाता के बीच स्थित राइटर्स बिÏल्डग में तापमान शहर के तापमान से कई गुणा ऊपर चल रहा है। एक के बाद एक चिंगारी सुलगती है और भीषण लपटें उठने लगती हैं।
रायगंज की लपट
घटनाएं तो अनेक हैं, लेकिन चर्चा शुरू करते हैं अभी हाल में घटी एक बड़ी घटना से। उत्तरी दिनाजपुर में रायगंज स्थित कालेज में छात्रसंघ के चुनाव होने वाले हैं। यहां तृणमूल कांग्रेस की छात्र इकाई और कांग्रेस की छात्र इकाई में लम्बे समय से एक दूसरे पर हावी होने की राजनीति चलती आयी है। रायगंज कांग्रेसी सांसद दीपा दासमुंशी का गढ़ है। यहां के कालेज में छात्र संघ चुनावों के लिए तृणमूल कांग्रेस के छात्रों को नामांकन पत्र ही नहीं भरने दिये गए। इससे तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं में तीखा रोष उत्पन्न हो गया और वे प्रधानाचार्य से बात करने के लिए गए। बातचीत तो क्या होनी थी उन्होंने प्रधानाचार्य को तरह-तरह से अपमानित किया, दफ्तर के कुर्सी-मेज तोड़ डाले, कम्प्यूटर पलट दिये। यहां तक कि हाथापाई भी की गयी। छात्रों की इस गुंडागर्दी के विरुद्ध कालेज के शिक्षकों ने एक बड़ा जुलूस निकाला। प्रधानाचार्य ने इस अपमान के बाद इस्तीफा दे दिया। इस घटना की पूरे पश्चिम बंगाल में कड़ी भत्र्सना की गयी। दबाव पड़ने पर तृणमूल कांग्रेस के छात्र नेताओं ने अदालत में जाकर आत्मसमर्पण किया और फौरन जमानत ले ली। लेकिन इस घटना के विरुद्ध कांग्रेस की छात्र इकाई ने एसएफआई के साथ मिलकर रायगंज में एक बड़ा जुलूस निकाला। रायगंज की घटना दीपा दासमुंशी के लिए नाक का सवाल बन गयी थी। दीपा ने आव देखा न ताव, रायगंज में एक बड़ी सभा करके तृणमूल कांग्रेस पर चुन-चुनकर आरोप लगाए और खूब बयानबाजी की।
एक और बड़ी घटना जो रायगंज प्रकरण से पहले घटी, वह थी कोलकाता के साल्ट लेक इलाके में “इंदिरा भवन” का नाम “नजरुल भवन” करने की। इस पर कांग्रेस बौखला गयी थी, क्योंकि खुद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने घोषणा की थी कि नजरुल भवन में नजरुल अकादमी बनेगी जिसमें कवि नजरुल इस्लाम पर शोध किया जाएगा। कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने तीखा गुस्सा दिखाते हुए धरना भी दिया। रायगंज की घटना तो दरअसल इस आग में घी ही डाल गयी। पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व. गनी खान चौधरी की भांजी कांग्रेस की युवा इकाई की अध्यक्ष कांग्रेसी सांसद मौसम बेनजीर नूर ने कोलकाता में जुलूस और सभा के जरिये रायगंज की घटना को लेकर तृणमूल की जमकर भत्र्सना की। इस बीच कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के एक दूसरे पर अत्याचार करने के आरोप आते रहे थे। किसानों की अनदेखी और कृषि उत्पादों के समर्थन मूल्य में हुई बढ़ोतरी का श्रेय राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष प्रदीप भट्टाचार्य लेते आ रहे थे।
दरअसल कांग्रेस ने जब बेनजीर नूर को आरोपों-प्रत्यारोपों के मैदान में उतारा तो उधर तृणमूल कांग्रेस ने अपनी युवा इकाई के अध्यक्ष शुभेन्दु अधिकारी को आगे कर दिया। कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस अपनी-अपनी युवा इकाइयों के मंचों को एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करने और कीचड़ उछालने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। राज्य मंत्रिमंडल में शहरी विकास मंत्री फरहद हकीम ने बयानबाजी में शब्दों की मर्यादा भी लांघ दी थी, जिसपर कांग्रेसी मंत्री मनोज चक्रवर्ती ने मोर्चा संभालते हुए उतने ही तीखे शब्द इस्तेमाल किये।
हाथ वाम के साथ
दोनों सत्तारूढ़ दलों के गठबंधन से उम्मीद की जा रही थी कि वाममोर्चा के तीन दशक से ज्यादा चले कुशासन के बाद जनता को राहत नसीब होगी और राज्य को विकास, लेकिन जो सामने आ रहा है वह केवल निराशाजनक ही कहा जा सकता है। मंत्रिमंडल में दोनों दलों के मंत्रियों में जो आपसी तालमेल दिखना चाहिए था वैसा नहीं दिख रहा है बल्कि राज्य के हित को छोड़ बाकी तमाम बातें हो रही हैं जिसका खामियाजा अंतत: प्रदेश की जनता को भुगतना पड़ेगा। प. बंगाल में दोनों के बीच छिड़ी जंग का असर केन्द्र में संप्रग सरकार पर भी साफ दिख रहा है, जहां कांग्रेस तृणमूल का विकल्प तलाशने में लगी है।
ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में, वामपंथियों की तरफ कांग्रेसियों का झुकाव भी देखने में आया है। अभी 9 जनवरी को वामपंथी मजदूर संघ की ओर से बुलाई गयी सभा में कांग्रेसी मजदूर संघ इंटक के अध्यक्ष, जो एआईसीसी के सदस्य भी हैं, लाल झण्डों के तले बैठे थे। उन्होंने राज्य सरकार और केन्द्र की संप्रग सरकार के विरुद्ध जमकर भाषण दिया। इससे जहां वाम खेमा बाग-बाग है तो कांग्रेस बगलें झांक रही है।
उल्लेखनीय है कि जब ममता बनर्जी ने कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस की नींव रखी थी तो उसके पीछे बड़ा कारण कांग्रेस का माकपा की “बी टीम” होना बताया गया था। ममता का कहना था कि राज्य में कांग्रेस विरोधी दल की बजाय वामपंथी सरकार के पाले में खड़ी दिखती थी। 1980 के बाद से जहां नई दिल्ली में कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने सत्ता संभाली, उसी दौरान कोलकाता में वाममोर्चा बार-बार सत्ता में आता रहा। तब लोग कहते थे, केन्द्र (कांग्रेस) सरकार राज्य की वाममोर्चा सरकार को परेशान करना नहीं चाहती। 1996 से 2006 तक अर्थात् पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों तक, ममता की तृणमूल कांग्रेस भाजपानीत राजग के साथ थी, राज्य में भी यदाकदा भाजपा के बड़े नेताओं के साथ मंच साझा करती थी। लेकिन इसके बाद हुए विधानसभा और संसदीय चुनावों में राजग की पराजय को देखकर ममता बनर्जी धीरे-धीरे कांग्रेस के करीब जाने लगी थीं। 2004 में संप्रग वाममोर्चे के सहारे दिल्ली में सत्ता में बैठा था। 2008 में अमरीका से असैन्य परमाणु करार के मुद्दे पर वाममोर्चा ने मनमोहन सरकार के खिलाफ वोट दिया था तब से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी वामदलों को सबक सिखाने का कथित मौका तलाश रही थीं। प. बंगाल में इस काम के लिए उन्हें ममता सटीक लगीं। उस समय ममता सिंगूर-नन्दीग्राम आंदोलनों के कारण एक लोकप्रिय वामविरोधी चेहरा बनकर उभरी थीं। सोनिया गांधी की पहल पर राज्य में 2009 के संसदीय चुनाव और 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के साथ कांग्रेस का गठजोड़ हुआ। तत्कालीन राज्य कांग्रेस अध्यक्ष और वर्तमान में राज्य मंत्रिमंडल के सदस्य डा. मानस भुइयां को विशेषज्ञ वाममोर्चे से ज्यादा तृणमूल कांग्रेस विरोधी मानते थे। वैसे मौजूदा राज्य कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप भट्टाचार्य भी लगभग उसी सोच के हैं। प्रदेश की राजनीति में मुर्शिदाबाद जिला कांग्रेस अध्यक्ष सांसद अधीर चौधुरी और रायगंज से सांसद दीपा दासमुंशी ममता बनर्जी के धुर विरोधियों में गिने जाते हैं। दोनों ममता के विरुद्ध मोर्चे खोले हुए हैं जिनमें बाकी लोग भी शामिल होते जा रहे हैं। कांग्रेस आलाकमान एक तरह से उन पर वरदहस्त रखे हुए है। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश पर भी तृणमूल ने संप्रग के प्रस्ताव का खुलकर विरोध किया और सरकार को संकट में डाल दिया।
खुलेआम विरोध
संसद के शीतकालीन सत्र में तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने सरकार द्वारा लाये गए लोकपाल विधेयक को सिरे से खारिज किया और कांग्रेस के खिलाफ डंके के साथ अपना विरोध दर्ज कराया। राज्य मंत्रिमंडल में तो दोनों के बीच खुलकर कहासुनी होती है और एक दूसरे पर आरोप उछाले जाते हैं। कांग्रेस ने शिकायत की तो ममता ने उससे दो टूक शब्दों में कहा- “दरवाजा खुला है, कांग्रेसी बाहर जाना चाहें तो जा सकते हैं।” कांग्रेस नाराज है, पर क्या कर सकती है। पश्चिम बंगाल में उसका ममता के अलावा ठौर नहीं है, यह बात प्रणव दा (केन्द्रीय वित्त मंत्री) बखूबी जानते हैं। राज्य के उद्योग मंत्री कांग्रेस के मनोज चक्रवर्ती ने तो अभी 7 जनवरी को सचिवालय में जो कुछ कहा उस पर एक नजर डालना दिलचस्प होगा। उन्होंने कहा- “हम तृणमूल कांग्रेस की दया से चुनाव नहीं जीते, बल्कि कांग्रेस ने मजबूर होकर ममता को मुख्यमंत्री बनाया। अगर ममता बनर्जी को वोट नहीं मिलते तो वह सत्ता तक नहीं पहुंच पातीं। अगर उनमें साहस है तो हमें बाहर करके दिखाएं”।
कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच इस धींगामुश्ती के बीच वाम नेता ठहाके लगा रहे हैं। वे समझ रहे हैं कि उनके कहर बन चुके शासन को हटाने के लिए जनता ने जिन लोगों के हाथ सत्ता सौंपी है वे भी ओछी राजनीति में उलझ कर जनता और राज्य का हित भूले जा रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस की इस तकरार में सौ फीसदी नुकसान कांग्रेस का होगा, इसमें कोई शक नहीं है। ममता बनर्जी ने जिस तरह साफ शब्दों में कांग्रेस को उसकी जगह दिखाई है उससे कांग्रेसी प्रबंधक सहमे हुए हैं, 10 जनपथ भी खामोश है।द
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