पुस्तक समीक्षा
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पुस्तक समीक्षा
विभूश्री
यह सही है कि आज के स्वार्थी और धन-पद-प्रतिष्ठा लोलुप मानसिकता वाले समय में समाज और देशहित की चिंता करने वाले लोग बहुत कम ही हैं, लेकिन हमारी इसी पावन धरती पर कई ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपना सारा जीवन देश, समाज और परहित के लिए ही समर्पित कर दिया। देश की राजधानी दिल्ली के पड़ोसी राज्य हरियाणा के हिसार जिले में जन्मे लाला हरदेव सहाय ऐसे ही एक महापुरुष थे। हालांकि उनकी ख्याति सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, पत्रकार और राजनीतिज्ञ के रूप में भी थी लेकिन गोरक्षक के तौर पर उन्हें सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली। इस दिशा में उनके द्वारा किए गए प्रयासों और अभियानों से हम सभी प्रेरणा ले सकते हैं। उनके संपूर्ण जीवन को विस्तार से सामने लाने वाली पुस्तक 'लाला हरदेव सहाय' (जीवनी) कुछ समय पूर्व ही प्रकाशित हुई है।
कुल चौदह अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक में लाला जी के जीवन के विभिन्न कालखण्डों और उनके कार्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। पहले अध्याय में यह बताया गया है कि किस तरह युवावस्था में ही उन्होंने निडर होकर अंग्रेजी शासन का विरोध किया और असहयोग आंदोलन का समर्थन करने की वजह से उन्हें एक साल की कैद भी हुई। कारागार में ही मिले स्वामी श्रद्धानंद के व्यक्तित्व और उनके जीवन दर्शन का युवा हरदेव पर गहरा प्रभाव पड़ा। साथ ही उस समय पूरे देश में चल रही गांधी लहर ने भी लाला जी को प्रभावित किया। गांधी जी के आदर्शों और उनकी जीवन शैली को लालाजी ने अपने जीवन में उतारा। इसी के चलते ही वे सच्चाई, सादगी और स्वदेशी के प्रति सदैव संकल्पित रहे। पुस्तक के दूसरे अध्याय में लालाजी के द्वारा हरियाणा के हिसार जिले के ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के लिए किए गए कार्यों के बारे में बताया गया है। विद्या प्रचारिणी सभा के माध्यम से ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ ही लालाजी ने प्रौढ़ शिक्षा के लिए रात्रि कालीन विद्यालय भी शुरू करवाया। साथ ही उन्होंने हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में अद्वितीय योगदान दिया। केवल शिक्षा की दिशा में ही नहीं बल्कि लालाजी वर्ष 1938-40 के दौरान हिसार में पड़े अकाल के दौरान पूरे जी-जान से लोगों की सेवा में जुटे रहे। व्यक्तिगत और सामूहिक सेवा के साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी तरफ लोगों का ध्यान खींचा और भाखड़ा-नांगल बांध बनवाने के लिए जनांदोलन शुरू करने में भी सक्रिय भूमिका निभाई। इससे सिद्ध होता है कि लालाजी किसी भी समस्या या विपत्ति का सामना करने के लिए हर स्तर पर प्रयास करते थे।
गो-महिमा के ज्ञाता और गोवध के कारणों का गहराई से अध्ययन करने के बाद लालाजी ने अंतिम सांस तक गोरक्षा हेतु प्रयास किया। गो-रक्षा के लिए लालाजी ने अपना घर भी छोड़ दिया। पहले उत्तर प्रदेश में संघर्ष कर गो-हत्या निषेध का बिल पास कराया, इसके लिए कारावास भी गए। फिर कलकत्ता में भी आंदोलन चलाया। राजस्थान में होने वाली गोहत्या को रोकने के लिए कई अभिमान चलाए और राष्ट्रपति से भी कई बार मिले। गांधी जी और देश की स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस से जुड़े लालाजी ने वर्ष 1951 में कांग्रेस से इसलिए नाता तोड़ लिया क्योंकि उसकी नीति गो-रक्षा के विरुद्ध थी। इससे सिद्ध होता है कि लालाजी सच्चे अर्थों में सिद्धांतवादी राजनीतिज्ञ और गोरक्षक थे। इनके जीवन में अनेक ऐसे प्रसंग इस पुस्तक में मौजूद हैं जो किसी को भी प्रेरित कर सकते हैं। पुस्तक के आरंभ में लालाजी के जीवन से जुड़े कई चित्र और अंत में संकलित परिशिष्ट इसे और भी अधिक महत्वपूर्ण बना देते हैं। n
पुस्तक का नाम –लाला हरदेव सहाय (जीवनी)
लेखक – एम.एम. जुनेजा
प्रकाशक – मॉर्डन पब्लिशर्स
बॉलीवुड हाइट्स,
पीयर मुसल्ला,
जिरकपुर-4 (पंजाब)
मूल्य – 300 रु. पृष्ठ-250
महाग्रंथ की विषद् व्याख्या
सदियों से भारतीय जनमानस में पूज्य और भारतीय आध्यात्मिक साहित्य में ही नहीं बल्कि वैश्विक आध्यात्मिक साहित्य में भी सम्मानित 'गीता' वास्तव में आत्मा, धर्म एवं दर्शन का अद्भुत ग्रंथ है, जिसकी समय-समय पर अनेक विद्वानों ने अपनी बुद्धिमत्ता, दृष्टि और विचार से व्याख्याएं की हैं। लेकिन यह इस ग्रंथ की गहनता और विलक्षणता ही है कि इसकी हर व्याख्या में हर बार कई नई बातें सामने आती हैं। प्रतिष्ठित साहित्यकार, शिक्षाविद्, धर्म-दर्शन के गहन अध्येता और जनप्रिय राजनेता आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने भी सम्पूर्ण गीता के सभी अध्यायों की विषद् व्याख्या करते हुए प्रवचन दिए थे। उन्हीं प्रवचनों में से गीता के 6-6 अध्यायों को संकलित का पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया गया है। हाल में ही इस गीता परिक्रमा का अंतिम खंड (भाग-3) प्रकाशित होकर आया है। इसमें गीता के अंतिम 6 अध्यायों पर शास्त्री जी का विषद् व्याख्यात्मक प्रवचन संकलित है।
इस पुस्तक की गहनता और उसमें मौजूद आध्यात्मिक प्रसंगों की गूढ़ व्याख्या का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि गीता जैसा अद्भुत ग्रंथ और उसके बारे में शास्त्री जी जैसे विद्वान की व्याख्या। गीता के तीसरे (ज्ञान) घटक में निहित छ: अध्यायों की गहन व्याख्या बाली इस पुस्तक के संपादक श्री नरेन्द्र कोहली की संपादकीय टिप्पणी इस पुस्तक को समझने में बहुत सहायक होगी। इस पुस्तक के प्रथम तीन अध्यायों, यानी शास्त्री जी के प्रवचन क्रमांक 37, 38 और 39 के द्वारा गीता के तेरहवें अध्याय के श्लोकों की व्याख्या की गई है। इसमें भगवान कृष्ण के द्वारा अर्जुन को यह शिक्षा देने का प्रयास किया गया है कि ज्ञान के नेत्रों से क्षेत्र (यानी प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (प्रकृति में काम करने वाली आत्मा) के अंतर को समझकर ही मोह अथवा अज्ञान से मुक्त हो सकते हो। शास्त्री जी द्वारा दिए गए प्रवचन संख्या 40 व 41 के द्वारा गीता के चौदहवें अध्याय की व्याख्या की गई है। इन दोनों प्रवचनों में सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के बारे में विस्तार से बताया गया है। साथ ही इन तीनों गुणों से परे कौन जा सकता है और कैसे जा सकता है, इसकी भी गहन चर्चा की गई है। इनमें शास्त्री जी व्यावहारिक जीवन में सतोगुण अपनाने के सरल-सहज तरीके भी बताते हैं। इसी क्रम में शास्त्री जी 42वें और 43वें प्रवचन के द्वारा गीता के पंद्रहवें अध्याय की व्याख्या करते हुए बताते हैं-पुरुषोत्तम के विषय में जानने से पहले जगत और जीवात्मा को जानना जरूरी है। इनकी व्याख्या करने के दौरान बल्लभाचार्य और विनोबा भावे तक के प्रसंग उद्धृत करते हुए शास्त्री जी ने इसे सुग्राह्य बनाने का भरपूर प्रयत्न किया है।
इसी तरह शास्त्री जी के 44 से लेकर 54वें प्रवचनों के माध्यम से गीता के शेष सभी अध्यायों की भी सरल, सहज और सुबोध व्याख्या पुस्तक में संकलित है। पुस्तक की एक विशेषता यह भी है कि वाचक शैली में होने के साथ ही शास्त्री जी श्रोता/पाठक के मन में उपजने वाले संशयों और प्रश्नों को स्वयं ही उठाते हैं और उसका समाधान भी बताते हैं। जटिल संदर्भों और शब्दों की व्याख्या के लिए अनेक दूसरों उद्धरणों और विद्वानों के उपदेशों की भी वे मदद लेते हैं। कहने का सार यह है कि शास्त्री जी हर तरह से गीता में निहित जटिल ज्ञान को श्रोताओं/पाठकों तक सरल–सहज ढंग से पहुंचाने का भरसक प्रयत्न करते हैं।
पुस्तक का नाम – गीता परिक्रमा (भाग-3)
लेखक (वाचक) – आचार्य विष्णुकान्त शास्ख्ैं
संपादक – नरेन्द्र कोहली
प्रकाशक – श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, 1-सी, मदनमोहन
बर्मन स्ट्रीट, कोलकाता-7,
मूल्य – 400 रुपए, पृष्ठ – 416
सम्पर्क – (033) 22688215
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