सम्पादकीय
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सम्पादकीय
बल्देव भाई शर्मा
जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि मात्र करता है, वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।
-दयानन्द (सत्यार्थप्रकाश, भूमिका)
अखिरकार कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने संविधान, लोकतंत्र और राष्ट्रीय व सामाजिक एकता को ताक पर रखकर अपनी वोट राजनीति को परवान चढ़ाने के लिए अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के लिए आरक्षण कोटे में कोटा नीति बनाकर मजहबी आरक्षण के प्रावधान को हरी झंडी दे ही दी। जिस लोकपाल के डर से वह भागती फिर रही थी, अब अपनी नाक बचाने के लिए उसने जो अधकचरा लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया है, उसमें भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश और संविधान की मूल संकल्पना को धता बताकर न्यूनतम 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर अब तो एक संवैधानिक संस्था में ही आरक्षण का रास्ता खोल दिया गया है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत रखी है, लेकिन लोकपाल विधेयक में यह सीमा 50 प्रतिशत से तो शुरू होगी, आगे कहां तक जाएगी, कह नहीं सकते। दूसरी ओर, नौकरियों, शिक्षण संस्थानों आदि में अल्पसंख्यक, विशेषकर मुस्लिम आरक्षण के लिए लंबे समय से प्रयासरत कांग्रेस ने 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों, खासकर उत्तर प्रदेश, जहां 2 दशकों से ज्यादा समय से सत्ता से बेदखल कांग्रेस सत्ता सुख चखने के लिए फड़फड़ा रही है और उसके “युवराज” राहुल गांधी ने इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया है, में राज्य के करीब 18 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं, जो प्रदेश की करीब 120 विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं, को अपनी झोली में डालने के लिए पिछड़े वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण कोटे में साढ़े चार प्रतिशत कोटा निर्धारित कर अपनी नीयत उजागर कर दी है। लेकिन कांग्रेस यह भूल रही है कि एक ओर तो यह उस संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन है जिसमें केवल सामाजिक-आर्थिक आधार पर ही आरक्षण देने की बात कही गई है और किसी भी प्रकार के मजहबी आरक्षण की सख्त मनाही है, दूसरी ओर यह कोटे में कोटा पिछड़े वर्गों के हितों पर कुठाराघात है क्योंकि उन्हीं के हिस्से को मारकर कांग्रेस मुस्लिमों के भरोसे अपनी सत्ता लिप्सा पूरी करना चाहती है।
इस तरह सरकार का यह कदम देश के सामाजिक सौहार्द को बिगाड़कर विद्वेष को बढ़ाने वाला साबित होगा, क्योंकि इससे पिछड़े वर्गों में नाराजगी बढ़ेगी। लेकिन वोट के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण के जुनून में कांग्रेस शुरू से ही राष्ट्रीय व समाज जीवन में साम्प्रदायिकता का विष घोलती रही है। “60 के दशक में कांग्रेस ने खुलकर साम्प्रदायिक राजनीति की शुरुआत करते हुए केरल विधानसभा चुनावों के मद्देनजर उस मुस्लिम लीग के साथ चुनावी गठबंधन किया जो मातृभूमि के विभाजन के लिए जिम्मेदार थी। इसी क्रम को और आगे बढ़ाते हुए शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से बिफरे मुस्लिम कट्टरवादियों को खुश करने के लिए तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उस आदेश को उलटने के लिए संविधान में ही संशोधन करा दिया ताकि मुल्ला-मौलवी संतुष्ट व शांत हो जाएं तथा वे कांग्रेस के खिलाफ न जाएं। और अब मजहबी आरक्षण की शुरुआत। इस बीच संप्रग सरकार की कत्र्ताधत्र्ता और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद, जिसमें छांट-छांट कर हिन्दुत्व विरोधियों को शामिल किया गया है, ने मुस्लिम कट्टरवादियों को खुश करने और हिन्दुओं के दमन के लिए “साम्प्रदायिक व लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक” तैयार किया जिसे कानून बनाने के लिए यह सरकार आमादा है, परंतु इसके देशव्यापी विरोध से उसके हाथ-पांव फूल रहे हैं। लेकिन इस सबसे संप्रग सरकार, विशेषकर कांग्रेस की नीयत पूरी तरह सामने आ गई है कि सत्ता के लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकती है और लोकतंत्र, संविधान व राजनीतिक मूल्य, यहां तक कि राष्ट्रहित व लोककल्याणकारी राज्य की संकल्पना को भी ध्वस्त करने में वह तनिक भी नहीं हिचकिचाती। वह यह भी भूल रही है कि उसके ऐसे असंवैधानिक प्रयत्नों को कई बार अदालतों में मुंह की खानी पड़ी है। लेकिन जब सत्ता का नशा सिर चढ़कर बोलता है तो व्यक्ति हो या राजनीतिक दल, सारी मर्यादाएं भूल जाता है। वह यह भी भूल जाता है कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है, उसे सत्ता का नशा उतारने में जरा भी देर नहीं लगती। काश, 1977 में अपनी नेता व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तानाशाही का देश की जनता द्वारा दिया गया करारा जवाब कांग्रेस याद रख पाती।
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