मंथन
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मंथन
देवेन्द्र स्वरूप
स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती-2
अवतार क्यों माना?
स्वामी विवेकानंद अपनी युवावस्था में अत्यधिक तर्कवादी थे। उन्हें अपनी तर्कशक्ति पर बहुत अभिमान था। इसलिए वे स्वयं को नास्तिक कहने लग गये थे। ऐसे तर्कवादी, नास्तिक व्यक्ति ने रामकृष्ण परमहंस जैसे अशिक्षित, घोर मूर्तिपूजक और तर्कवाद से दूर भागने वाले व्यक्ति को अपना गुरु क्यों माना? क्यों अपनी पूर्ण श्रद्धा और कर्तृत्व समर्पित करके उनका उपकरण बनने में ही अपने जीवन को सार्थक माना? श्री रामकृष्णदेव के प्रति स्वामी विवेकानंद की आंतरिक भावनाओं की जानकारी हमें उनके सार्वजनिक भाषणों एवं चर्चाओं से अधिक उनके व्यक्तिगत पत्राचार में मिलती है। स्वामी जी अपने गुरुभाईयों, शिष्यों एवं प्रशंसकों के नाम अपने पत्रों में श्री रामकृष्णदेव की अवतारी भूमिका का प्रतिपादन करते हैं, साथ ही यह आग्रह भी करते हैं कि अपने मन में उन्हें अवतार स्वीकार करते हुए भी उनके चारों ओर कर्मकांडी पूजा का आडम्बर न खड़ा करें और अन्यों पर उनके अवतारवाद को थोपने का दुराग्रह भी न करें।
श्रीरामकृष्ण की शिक्षा का प्रसार
अपने एक मद्रासी शिष्य “किडी” को शिकागो से 3 मार्च, 1894 को वे लिखते हैं, “श्री रामकृष्ण का जीवन ज्ञान और भक्ति मार्ग का समन्वय पूर्ण था। ऐसे महापुरुष जगत में बहुत कम आते हैं। हम उनके जीवन और उपदेशों को आदर्श के रूप में सामने रखकर आगे बढ़ सकते हैं। श्री रामकृष्ण के जैसा पूर्ण चरित्र कभी किसी महापुरुष का नहीं हुआ। इसलिए हमें चाहिए कि हम उन्हीं को केन्द्र बनाकर उन पर डटे रहें। हर एक व्यक्ति उनको अपने-अपने ढंग से ग्रहण करे। इसमें कोई रुकावट नहीं डालनी चाहिए। चाहे कोई उन्हें ईश्वर माने या परित्राता या आचार्य अथवा महापुरुष। जो जैसा चाहे वह उन्हें उसी तरह समझे। श्री रामकृष्ण पर सभी का समान अधिकार है, इसलिए मैं कहता हूं कि स्वदेशवासी युवको, क्या तुममें से कुछ लोग श्री रामकृष्ण को केन्द्र बनाकर उनके भाव में ही एकदम मग्न हो सकते हो। सामग्री इकट्ठा कर श्रीरामकृष्ण जी की एक छोटी-सी जीवनी लिखो, उसमें केवल उनकी ही बातें रहें, खबरदार मुझको या किसी और जीवित व्यक्ति को उसमें मत लाना। तुम्हारा एकमात्र उद्देश्य होगा- उनकी शिक्षाओं को जगत में फैलाना और वह जीवनी उसके ही उदाहरण प्रस्तुत करेगी। अयोग्य होने पर भी मेरे ऊपर एक विशेष दायित्व था कि उन्होंने जो रत्न की पेटी मुझे सौंपी थी, उसे मद्रास लाकर तुम्हारे हाथों में दे दूं। वह हो गया, अब मुझे छोड़ दो, मुझे भूल जाओ,केवल श्रीरामकृष्ण का प्रचार करो, उनके उपदेशों और जीवन को जन-जन तक पहुंचाओ।”
मद्रासी शिष्यमंडली के एक अन्य सदस्य डा.नान्जुदार राव को 30 नवम्बर को अमरीका से वे लिखते हैं, “श्रीरामकृष्ण के चरणों में बैठकर ही भारत का उत्थान हो सकता है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा-हिन्दू समाज के अंग-अंग और रोम-रोम में उन्हें भरना होगा? यह कौन करेगा? है कोई जो श्रीरामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिए विचरण करे?” उसी दिन एक अन्य मद्रासी शिष्य आलासिंगा को चेतावनी देते हैं कि, “आध्यात्मिक क्षेत्र में हमारा प्रयत्न होना चाहिए कि सम्प्रदाय न बनने पाएं। श्रीरामकृष्ण का जीवन एक असाधारण ज्योतिर्मय दीपक है, जिसके प्रकाश से हिन्दू धर्म के विभिन्न अंग और अर्थ समझ में आ सकते हैं। शास्त्रों में जो ज्ञान सिद्धांत रूप में वर्णित हैं उसका वे प्रत्यक्ष उदाहरण रूप थे। ऋषि और अवतार हमें जो वास्तविक शिक्षा देना चाहते थे, उसे उन्होंने अपने जीवन द्वारा दिखा दिया है। शास्त्र यदि शब्द मंत्र है तो श्रीरामकृष्ण उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति। उन्होंने 51 वर्ष में पांच हजार वर्ष का आध्यात्मिक जीवन जीकर दिखाया और इस प्रकार वे भावी पीढ़ियों के लिए स्वयं को जीवंत
उदाहरण बना गये।”
जूनागढ़ के पूर्व दीवान श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को नवम्बर, 1894 में शिकागो से स्वामी जी लिखते हैं, “मुझे श्री रामकृष्ण के आशीर्वाद से वह अन्तर्दृष्टि प्राप्त हुई है जिसे लेकर मैं अपनी छोटी-सी मंडली के साथ काम करने का प्रयत्न कर रहा हूं। वे तो मेरे समान निर्धन भिक्षुक हैं। आपने उन्हें देखा है। दैवीय कार्य सदैव गरीब व दीन मनुष्यों के द्वारा ही हुआ है।” अपने गुरुभाई स्वामी रामकृष्णानंद को अमरीका से 1895 में वे लिखते हैं, “जब तक मैं पृथ्वी पर हूं श्री रामकृष्ण मेरे द्वारा काम कर रहे हैं। जब तक तुम इस पर विश्वास रखते हो, तुम्हें किसी प्रकार का भय नहीं हो सकता। रामकृष्ण अवतार में “स्त्री गुरू” को स्वीकार किया गया है। वे कभी-कभी स्त्रियों जैसे वस्त्र भी पहनते थे। मेरा पहला प्रयत्न स्त्रियों का मठ स्थापित करना है। इस मठ से गार्गी और मैत्रेयी और उनसे भी अधिक योग्यता रखने वाली स्त्रियों की उत्पत्ति होगी।”
मैं रामकृष्ण का दास
आगे लिखते हैं “वेद वेदांत तथा अन्य अवतारों ने जो भूतकाल में किया, श्रीरामकृष्ण ने उसकी साधना एक ही जन्म में कर डाली। उनके जन्म की तिथि से ही सत्ययुग आरंभ हुआ है।…इसलिए सब प्रकार के भेदों का अंत अवश्यंभावी है-पुरुष और स्त्री, धनी और गरीब, शिक्षित और अशिक्षित, ब्राह्मण और चण्डाल, इन सब भेद भावों को मूल से नष्ट करने के लिए ही उनका जन्म हुआ था।”
जीवन के अंतिम दिनों में 28 मार्च, 1900 को सेन फ्रांसिस्को की भगिनी निवेदिता को अपने कार्य की समाप्ति की सूचना देते हुए स्वामी जी कहते हैं, “मैं श्री रामकृष्ण देव का दास हूं। मैं एक साधारण यंत्र मात्र हूं। और मैं कुछ नहीं जानता, जानने की मेरी कोई इच्छा भी नहीं है।” उन्हीं दिनों श्रीमती ओलिबुल को लिखते हैं, “आप ही मेरी एक मित्र हैं जिन्होंने श्री रामकृष्ण देव को अपने जीवन में ध्रुवतारे की तरह ग्रहण किया है। मैं जो आपका इतना अधिक विश्वास करता हूं, “उसका मूल रहस्य यही है। अन्य लोग मुझे व्यक्तिगत रूप से चाहते हैं। किंतु वे यह बिल्कुल नहीं जानते कि श्री रामकृष्ण के लिए ही वे मुझे चाहते हैं। उन्हें छोड़ देने पर तो मैं कुछेक निरर्थक और स्वार्थी भावनाओं का बोझ मात्र हूं।”
शिकागो के धर्म सम्मेलन के बाद स्वामी जी को अमरीका में मिली अपार लोकप्रियता से घबराकर ईसाई मिशनरियों ने उनके विरोध में कुप्रचार प्रारंभ किया तो स्वामी जी ने अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद को 19 मार्च, 1894 को पत्र लिखा कि “जब तक गुरुदेव मेरे साथ हैं तब तक ईसाई लोग मेरा क्या कर सकते हैं। यदि मेरे उद्देश्य की सफलता के लिए तुममें से कोई मेरी सहायता करे तो उत्तम ही है, नहीं तो श्री गुरुदेव मुझे पथ दिखाएंगे ही। अमरीका में सामान्यतया लिखित भाषण देने का प्रचलन है, पर स्वामी जी को यह आदत नहीं थी। स्वामी ब्रह्मानंद को वे लिखते हैं, “व्याख्यान आदि लिखकर नहीं देता। एक व्याख्यान पढ़ा था, वही तुमने छपाया है। बाकी सब जगह खड़ा हुआ और कह चला। स्वयंस्फूर्त भाषण। गुरुदेव मेरे पीछे हैं। कागज- पत्र के साथ कोई संबंध नहीं है। एक बार डेट्रियाट में तीन घंटे लगातार व्याख्यान दिया। कभी-कभी मुझे भी आश्चर्य होता है कि अच्छा बेटा। तेरे पेट में भी इतनी विद्या थी।” अन्यत्र स्वामी जी ने स्वीकार किया कि उनके मुख से श्री रामकृष्ण और मां बोलती हैं।
वे ईश्वर के अवतार थे
स्वामी ब्रह्मानंद को उपरोक्त पत्र में स्वामी जी ने भारत में अपनी कार्य योजना की एक रूपरेखा भी प्रस्तुत की। साथ ही निर्देश दिया कि यह पत्र प्रकाशित न करना, “मैं अनुभव कर रहा हूं कि कोई मेरा हाथ पकड़कर लिखवा रहा है, जो-जो मेरा यह पत्र पढ़ेंगे उन सबमें मेरा भाव भर जाएगा, विश्वास करें।” श्रीरामकृष्ण के प्रति अपने समर्पण का पुनरुच्चार करते हुए उन्होंने उसी पत्र में लिखा है, “लोग उनका नाम लें या न लें इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं। केवल उनके उपदेश, जीवन और शिक्षाएं जिस उपाय से संसार में प्रचारित हों, उसी के लिए प्राणों का होम करके भी प्रयत्न करता रहूंगा।”
एक अन्य गुरुभाई शिवानंद को 1894 में अमरीका से वे लिखते हैं, “मेरे प्यारे भाई। श्रीरामकृष्ण ईश्वर के अवतार थे, इसमें मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। परंतु वे कहते थे-लोगों को स्वयं देखने दो। जबरदस्ती क्या कोई किसी को दिखा सकता है। मेरी आपत्ति भी यही है। लोगों को अपना मन बनाने दो। हमें इसमें आपत्ति क्यों हो? … श्री रामकृष्ण देव का अध्ययन किये बिना वेद-वेदांत भागवत और अन्य पुराणों का महत्व समझना असंभव है। उनका जीवन भारत की समूची आध्यात्मिक विचारधारा को आलोकित करने वाला, असीम शक्ति वाला प्रकाश स्तंभ है। वेदों और उनके वास्तविक उद्देश्य के वे जीवित भाष्य हैं। अपने एक जीवन में ही उन्होंने भारत की राष्ट्रीय चिंतन धारा के अनेक कल्पों को जीकर दिखा दिया। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था या नहीं, यह मुझे मालूम नहीं है। पर श्रीरामकृष्ण, जिन्हें हमने देखा है और जो पूर्णतम हैं, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, उदारता और लोकहितैषी भावना आदि सब गुणों के मूत्र्त रूप हैं। उनका एक शब्द भी मेरे लिए वेद-वेदांत से अधिक मूल्यवान है। वे अपने जीवन में ही पूजे गये, उसी उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में। विश्वविद्यालय के असाधारण योग्यता रखने वाले विद्वानों ने भी उन्हें ईश्वर का अवतार माना।”
मेरे गुरुदेव
अपनी दूसरी इंग्लैंण्ड यात्रा के समय 28 मई, 1896 को स्वामी विवेकानंद की जर्मन विद्वान मैक्समूलर से भेंट हुई। मैक्समूलर ने “सच्चा महात्मा” शीर्षक से एक लेख श्री रामकृष्ण देव के बारे में लिखा, जो इंग्लैंण्ड की प्रतिष्ठित बौद्धिक पत्रिका “नाईंन्टींथ सेन्चुरी” (उन्नीसवीं शताब्दी) के अगस्त, 1896 के अंक में प्रकाशित हुआ। इससे पश्चिमी देशों में रामकृष्ण देव के बारे मं अधिक जानने की भूख जगी। इसी भूख की तृप्ति के लिए स्वामी जी का न्यूयार्क में “मेरे गुरुदेव” विषय पर एक लम्बा भाषण हुआ। इस भाषण में स्वामी जी ने बताया कि एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में जन्मे रामकृष्ण को पूर्वजन्म का संस्मरण जन्म से ही था तथा वह इस बात को भली-भांति जानते थे कि इस संसार में उन्होंने किस उद्देश्य से जन्म लिया है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगा दी। बाल्यकाल में ही पितृछाया से वंचित होकर उन्हें पढ़ने के लिए एक नि:शुल्क संस्कृत पाठशाला में भेजा गया। वहां एक दिन अपने गुरुजनों को दक्षिणा में वस्त्रों की अच्छी जोड़ी पाने के लिए तर्कशास्त्र और ज्योतिष आदि विषयों पर लड़ते-झगड़ते और बहस करते देखा। उन्हें वितृष्णा हुई और उन्होंने तय किया कि अब मैं पाठशाला बिल्कुल नहीं जाऊंगा। यही उनके पाठशाला जीवन का अंत था। जीविकोपार्जन के लिए उन्हें दक्षिणेश्वर मंदिर में मां की पूजा का काम मिला जिससे उनके मन में प्रश्न पैदा हुआ- क्या इस मूर्ति में किसी का वास है? क्या यह सत्य है कि इस विश्व का सारा व्यवहार आनंदमयी जगन्माता चलाती है? ये प्रश्न उनके मन-मस्तिष्क में समा गये और उन्होंने अपनी सारी जीवन शक्ति इसका उत्तर पाने पर केन्द्रित कर दी। “क्या ईश्वर देखा जा सकता है”, यह प्रश्न उनके मन में इतना प्रबल हो गया कि बहुधा वे जगन्माता की मूर्ति के सामने नैवेद्य रखना भी भूल जाते थे और कभी- कभी घंटों तक आरती ही उतारा करते थे। मैक्समूलर ने अपने लेख में माना कि किसी विश्वविद्यालय के सम्पर्क में न रहने के कारण ही वे ऐसा कर सके।
अंत में उस बालक (रामकृष्ण देव) के लिए उस मंदिर में काम करना असंभव हो गया। उन्होंने वह मंदिर छोड़ दिया। समीपवर्ती एक छोटे से जंगल में चले गए और वहीं रहने लगे। अपने जीवन की इस अवस्था के संबंध में मेरे गुरुदेव ने मुझसे कई बार चर्चा की थी। कुछ महीनों बाद उन्होंने अपनी थोड़ी-बहुत सम्पत्ति को भी त्याग दिया और कभी धन न छूने का प्रण कर लिया। निद्रावस्था में भी मैं उनके शरीर को किसी सिक्के से छू लेता था तो उनका हाथ टेढ़ा हो जाता था और उनके शरीर को ऐसा लगता था कि लकवा मार गया हो। उन्होंने सोचा कि काम और कांचन ही ऐसे दो कारण हैं जो जगन्माता के दर्शन नहीं होने देते। इस प्रकार सत्य लाभ के लिए श्री रामकृष्ण को छटपटाते अनेक दिन, सप्ताह और महीने बीत गए। तब प्रत्यक्ष जगन्माता एक विदुषी व सुंदर स्त्री का रूप लेकर उनके पास आ पहुंची। वह कई वर्षों तक उनके पास रहीं और उस माता ने रामकृष्ण को भारत के विभिन्न धर्म प्रणालियों के साधन सिखाये, अनेक प्रकार के योग साधनों की शिक्षा दी। कुछ दिनों बाद वहां एक असाधारण तत्वज्ञानी संन्यासी आये। उन्होंने उस बालक (श्रीरामकृष्ण) को वेदांत सिखाया। वे कई मास उनके साथ रहे और उन्हें संन्यास मार्ग की दीक्षा देकर चले गए। इससे घबराकर उनके घरवालों ने उनका विवाह कर दिया। किंतु उन्होंने उस स्त्री में भी जगन्माता को देखा। वह स्त्री भी तेजस्वी थीं। वे स्वयं ही अपने पति के सम्मुख आकर खड़ी हो गयीं। वे अपनी स्त्री के चरणों पर गिर पड़े और उसे अपनी माता के रूप में स्वीकार कर लिया।
जड़-चेतन से एकात्मता
इसके बाद उन्होंने विभिन्न मत-पंथों के सत्य स्वरूप को जानने की इच्छा से इस्लाम, ईसाई, शैव, शाक्त, वैष्णव आदि विभिन्न मार्गों से साधना करके साक्षात्कार किया कि सब धर्म एक ही सत्य की शिक्षा देते हैं। अंतर केवल उनकी साधना पद्धति और भाषा में रहता हे। फिर वे परम अहंशून्यता की साधना में संलग्न हो गए। उसी स्थान के निकट एक चाण्डाल जाति का कुटुम्ब रहता था। मेरे गुरुदेव ने ब्राह्मण होते हुए भी चाण्डाल के घर में दास कर्म करने की आज्ञा मांगी। चाण्डाल ने उन्हें वह काम नहीं करने दिया परंतु आधी रात को जब चाण्डाल के घर के सब लोग सोते रहते थे, तब श्री रामकृष्ण उसके घर में घुस जाते थे और अपने बड़े-बड़े बालों से ही वे उसका घर झाड़ डालते थे। यद्यपि मेरे गुरुदेव ने पुरुष शरीर में जन्म लिया था फिर भी वे सभी बातों में स्त्री भाव लाने की चेष्टा करने लगे। वे यह सोचने लगे कि वे स्वयं पुरुष नहीं, बल्कि स्त्री हैं। स्त्रियों जैसे कपड़े पहनने लगे, उन्हीं के जैसा बोलने लगे। वे वेश्याओं के चरणों पर भी गिर जाते थे। इस प्रकार उन्होंने स्त्री-पुरुष भेद मिटाया। गाय के शरीर पर लाठी के प्रहार के निशान अपने शरीर पर दिखाकर और रौंदी जाती हुई घास के घाव अपनी छाती पर दिखाकर उन्होंने जड़-चेतन की एकता का साक्षात्कार किया। उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि ब्रह्म कहीं बाहर नहीं, इसी जड़-चेतन सृष्टि में व्याप्त है। वेदांत के लिए किसी अमूर्त की उपासना करने की बजाय आंखों से दिखायी देने वाले समाज देवता की पूजा करना ही पर्याप्त है। उन्होंने “दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवोभव” का साधना मंत्र प्रदान किया।
इस प्रकार अपने तीन चतुर्थांश जीवन में अनेक विध साधनाएं करके उन्होंने आध्यात्मिक शक्ति अर्जित की, जिसके तेज से आकर्षित होकर उनके जीवन के अंतिम 7-8 वर्षों में अनेक पढ़े- लिखे युवक और झुंड के झुंड नर-नारी उनके पास आने लगे। वे अपनी सादी-सरल भाषा में दिन-रात उन्हें अध्यात्म बताने लगे। रोकने पर भी नहीं रुके, अनवरत बोलने से उन्हें गले की बीमारी हो गयी, जिसने 16 अगस्त, 1886 को उन्हें महासमाधि में खींच लिया। इन्हीं आठ वर्षों में वह शिष्य मंडली उन्हें प्राप्त हुई जिसने विवेकानंद के नेतृत्व में उनका नाम पूरे विश्व में पहुंचा दिया। क्रमश:
(22.12.2011)
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