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बात बेलाग

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Dec 24, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 24 Dec 2011 18:04:28

समदर्शी

दोमुंही राजनीति

वैसे तो मनमोहन सिंह सरकार ने तमाम कवायद के बाद जैसा लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया है, उससे भ्रष्टाचार पर अंकुश की गलतफहमी भी शायद ही किसी को होगी, लेकिन 11 दिसम्बर से 22 दिसम्बर तक का यह नाटकीय घटनाक्रम भारतीय राजनीति के कई चेहरों को बेनकाब कर गया। कांग्रेस सांसद एवं प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति द्वारा लोकपाल विधेयक पर बेहद निराशाजनक रपट पेश किए जाने के विरोध में अण्णा हजारे ने 11 दिसम्बर को  जन्तर-मन्तर पर एक दिन का सांकेतिक अनशन किया था। 22 दिसम्बर को सरकार ने संसद में संशोधित विधेयक पेश किया। 11 दिसम्बर को अनशन के दौरान ही टीम अण्णा ने तमाम राजनीतिक दलों को लोकपाल पर खुली बहस के लिए जन्तर-मन्तर पर आमंत्रित किया था। सत्ता मद में डूबी कांग्रेस और उसके मित्र दलों को तो यह बहस संसद का अपमान लगी, पर कमोबेश सभी गैर संप्रग दलों के प्रतिनिधि वहां पहुंचे। किन्तु-परन्तु के साथ ही सही, सभी ने सीबीआई के राजनीतिक दुरुपयोग पर चिंता जताई और मजबूत लोकपाल का समर्थन किया। निश्चय ही यह सरकार के लिए बड़ा झटका और अण्णा के लिए हौसला-अफजाई थी, लेकिन उसके बाद सर्वदलीय बैठक से लेकर संसद में विधेयक पेश किए जाने तक पर्दे के पीछे कई गुल खिलाए गए। जाति-वर्ग की राजनीति करने वाले दलों को अचानक लोकपाल में भी कोटा-राजनीति याद आ गई। सरकार तो मानो बहस की दिशा बदलने का इंतजार ही कर रही थी, तो तत्काल लोकपाल में आरक्षण का प्रावधान कर लिया गया। बसपा जंतर-मंतर पर बहस में शामिल नहीं हुई थी, पर बाद में पार्टी प्रमुख एवं उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री ने खुलकर अण्णा के समर्थन का ऐलान कर दिया, लेकिन जन्तर-मन्तर पर सर्मथन करने वाली सपा मुकर गई। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के भाई रामगोपाल यादव ने जन्तर-मन्तर पर अण्णा का समर्थन किया था, लेकिन संसद में विधेयक पेश किए जाने से एक दिन पहले मुलायम के मन का डर बोल बैठा कि अगर लोकपाल आ गया तो दरोगा उन्हें जेल में डाल देगा। लोकपाल पर लालू की तो खैर बात हो क्या? वह लोकपाल पर विचार करने वाली संसद की स्थायी समिति के सदस्य हैं, पर एक भी बैठक में नहीं गए, लेकिन अण्णा और लोकपाल का मजाक उड़ाने का कोई मौका भी नहीं चूके, अब ऐसी दोमुंही राजनीति से भ्रष्टाचार पर अकुंश के लिए मजबूत लोकपाल की आस मृग-मरीचिका ही ज्यादा नजर आती है।

सैंया भए कोतवाल

दस जनपथ के “नवरत्नों” में से एक हैं पी.चिदम्बरम। हैं तो मनमोहन सिंह सरकार में केन्द्रीय गृह मंत्री, पर दस जनपथ के आशीर्वाद के चलते वह किसी को कुछ नहीं समझते। पिछली मनमोहन सिंह सरकार में वित्त मंत्री थे, तो 2008 में वर्ष 2001 के मूल्य में 2 जी स्पेक्ट्रम की बंदरबांट होती देखते ही नहीं रहे, उसके लिए सहमति देकर अध्याय बंद समझने की सलाह भी प्रधानमंत्री को दे डाली, और हैरत की बात कि प्रधानमंत्री मान भी गये। उसकी कीमत देश के खजाने को पौने दो लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा के नुकसान के रूप में चुकानी पड़ी। जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी इस मामले को तो अदालत में ले गये हैं, पर अब दस जनपथ के इस “नवरत्न” की एक और कारगुजारी सामने आयी है। जब केन्द्र में राजग सरकार थी और चिदम्बरम एक सांसद होने के साथ साथ वकालत भी कर रहे थे, तो वह देश की राजधानी दिल्ली के एक पांच सितारा होटल के मालिक एस. पी. गुप्ता के वकील भी थे। गुप्ता के विरुद्ध धोखाधड़ी और जालसाजी के कई मुकदमे दर्ज हुए, पर जैसे ही वर्ष 2008 के अंत में चिदम्बरम केन्द्रीय गृह मंत्री बने, उन मुकदमों को वापस कराने की कवायद शुरू हो गयी। जब सैंया भले कोतवाल तो डर काहे का? मीडिया में पर्दाफाश के बाद चिदम्बरम की एक वकीलनुमा दलील आयी कि 40 साल के कैरियर में हजारों मुवक्किलों को याद रखना संभव नहीं है। बेशक, पर फिर गुप्ता के विरुद्ध दर्ज मुकदमे वापस लेने में गृह मंत्रालय ने इतनी दिलचस्पी क्यों ली?

चुनाव का मौसम

चुनाव का मौसम आते ही राजनीतिक दल, राजनेता और सरकारें गिरगिट की तरह रंग बदलती हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अगले साल के शुरू में विधानसभा चुनाव होने हैं, सो रंग बदलने का खेल जोरों पर है। साढ़े चार साल से सत्तारूढ़ बसपा प्रमुख एवं मुख्यमंत्री मायावती को अचानक उत्तर प्रदेश विभाजन की याद आयी तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार को तीन साल बाद खाद्य सुरक्षा विधेयक की याद आ गयी है। उत्तर प्रदेश में मुसलमान बड़ा और निर्णायक वोट बैंक है, सो अल्पसंख्यक आरक्षण का राग भी जोर-शोर से अलापा जा रहा है। कांग्रेस के “युवराज” तो उत्तर प्रदेश का कायाकल्प कर देने का सपना बेचते घूम ही रहे हैं, परिवारवाद का पोषण करते हुए समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश को रथ यात्रा पर निकाल दिया है, पर  महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार तक उन मुद्दों पर कोई मुंह खोलने के लिए तैयार नहीं है, जिन्होंने आम आदमी का जीवन दूभर बना दिया है। वक्त का तकाजा है कि मतदाता इन गिरगिटों को सही सबक सिखाएं।

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