चर्चा सत्र
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कांग्रेस-रालोद की अवसरवादी राजनीति
शून्य से शून्य का जोड़
*हृदयनारायण दीक्षित
उत्तर प्रदेश कड़ाके की ठंढ में भी गरमा गया है। कांग्रेस पसीने से तरबतर है। यानी “सर्दी में भी गर्मी का अहसास” है। केन्द्र सरकार का भ्रष्टाचार गांव-गली में चर्चा का विषय है, महंगाई का सेहरा भी कांग्रेस के सिर पर है। कांग्रेस बिल्कुल अकेली है। न संगठन, न जनाधार और न कोई प्रभावी नेता। आत्मविश्वासहीन कांग्रेस को एक साथी की तलाश थी। यों सपा, बसपा उसकी अगुआई वाली केन्द्र सरकार के समर्थक दल हैं, लेकिन चुनाव में उतरने के लिए कोई हमसफर तो चाहिए ही था। चौ. अजित सिंह के रालोद की उससे भी बुरी स्थिति है। छोटे चौधरी भी अकेले नहीं चलते। वे किसी न किसी के साथ ही सफर करते हैं, लेकिन लम्बे समय की दोस्ती नहीं करते। “लिव-इन रिलेशन” उनकी पार्टी का स्वभाव है। वह वी.पी. सिंह के साथ रहे, मंत्री रहे, नरसिंह राव के साथ रहे, मंत्री रहे। राजग के साथ रहे, मंत्री रहे। उ.प्र. की सरकार में भी जब-जब साझा किया, उनके लोग मंत्री रहे। वे नकद लेते हैं, नकद देते हैं। उधार प्रेम की कैंची है। सो इस दफा भी कांग्रेस के साथ गये तो मंत्री बने, अब संप्रग के घटक हैं।
अकेले हम-अकेले तुम
कांग्रेस और रालोद की दोस्ती स्वाभाविक है। दोनों अकेले थे, दोनों कमजोर थे। दोनों अवसरवादी हैं। दोनों मिल गये, लेकिन दोनोंे का राजनीतिक गठबंधन नितांत अस्वाभाविक और अवसरवादी है। चौ. चरण सिंह गैरकांग्रेसवादी थे। वे कांग्रेस की किसान विरोधी नीतियों पर लगातार हमलावर रहे। “गांधियन ब्लूप्रिन्ट” नामक किताब में उन्हांेने गांधीवादी स्वदेशी अर्थनीति की पैरवी की थी। वे नेहरू के विकास मॉडल के विरोधी थे। “एम्पटी लैण्ड एण्ड हंग्री पिपुल” जैसे लेखन के जरिए वे कांग्रेस की नीतियों पर आक्रामक थे। उनका प्रभाव समूचे उ.प्र. में था, किसान उन्हें अपना नेता मानते थे। लेकिन चौ. अजित सिंह का रालोद सिकुड़कर पश्चिमी उ.प्र. के आधा दर्जन जिलों में ही रह गया है। रालोद प्रभाव वाले इस क्षेत्र के किसान और अजित सिंह के मतदाता भी कांग्रेस विरोधी हैं। पश्चिमी उ.प्र. का किसान जागरूक है। उसमें केन्द्र सरकार की किसान विरोधी नीतियों से गुस्सा है। वह कांग्रेस का नाम भी सुनना पसंद नहीं करता। सो अजित सिंह और कांग्रेस की नई दोस्ती से रालोद का और नुकसान होगा। केन्द्र में कांग्रेसी गठबंधन सरकार में अजित सिंह का मंत्री होना भी अंतत: घाटे का सौदा ही सिद्ध होगा।
पश्चिमी उ.प्र. राजधानी दिल्ली का पड़ोसी है। यहां की जनता कांग्रेसी नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार के काले कारनामे जानने के लिए मात्र अखबारों पर निर्भर नहीं है। राष्ट्रमण्डल खेलों की लूट उन्होंने खुद देखी है। 2-जी घोटाले की गूंज गौतम बुद्धनगर, गाजियाबाद, बागपत और मेरठ तक सुनी गयी है। मजहबी तुष्टीकरण को ही सर्वोपरि मानने वाली कांग्रेस का चरित्र यहां मुस्लिम लीग जैसा बदनाम है। इस क्षेत्र के मतदाता कांग्रेस को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करते। फिर गठबंधन का यह खेल सरेआम लेन-देन का है। अजित सिंह ने अपने समर्थकों की कांग्रेस विरोधी मानसिकता के बावजूद अपने लिए मंत्रिपद लिया है। रालोद के मतदाता खासे नाराज हैं। वे किसी के बंधुआ नहीं हैं। कांग्रेसी संप्रग का साथ उन्हें किसी भी सूरत में अच्छा नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन अजित सिंह बम-बम हैं। अब वे केन्द्रीय मंत्री हैं। उन्होंने मंत्रिपद की शपथ लेने के बाद हास्यास्पद बात कही कि “कांग्रेस-रालोद गठबंधन के रूप में प्रदेश की जनता को बसपा के दमनकारी शासन का एक विकल्प मिल गया है।” उन्होंने यह नहीं बताया कि बसपा अगर दमनकारी है तो केन्द्र की कांग्रेसी अगुआई वाली सरकार बसपा का समर्थन क्यों ले रही है? आखिरकार वे सपा, बसपा समर्थित केन्द्र सरकार के ही मंत्री हैं। वे कांग्रेस के पापों के साझीदार हैं, मूलभूत प्रश्न यह है कि वे अपनी केन्द्र सरकार के सहयोगी दल बसपा के पापों के साथ साझीदार क्यों न माने जाएं?
एक ही थाली के…
दरअसल कांग्रेस, सपा व बसपा तीनों का चरित्र सत्तावादी है। तीनों अल्पसंख्यकवादी हैं, तीनों भ्रष्टाचारी सरकारों के लिए कुख्यात हैं। तीनों एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। तीनों सगी बहनें हैं। आप एक से यारी करोगे तो बाकी दो की रिश्तेदारी अपने आप मिलेगी। यों रालोद कोई पार्टी नहीं है। चार-पांच जिलों में घूम-घुमाकर चार-पांच संसदीय सीट जीतकर कोई पार्टी नहीं हो जाता। चौ. अजित सिंह इस तथ्य से सुपरिचित हैं, बावजूद इसके वे अपने नये गठबंधन को लेकर आत्ममुग्ध हैं। यों वे सपा से गठबंधन चाहते थे, लेकिन बात नहीं बनी। वह भाजपा से मिलकर चुनाव लड़ने को तैयार थे, लेकिन भाजपा उनकी अवसरवादिता से परिचित है। कांग्रेस उनका अंतिम विकल्प थी, कांग्रेस के लिए भी वे ही अंतिम विकल्प थे। न इनको साथ लेने को कोई तैयार था, न उनसे कोई दोस्ती के लिए तैयार था। दोनों मिल गये, रालोद का घाटा हुआ। कांग्रेस का भी कोई फायदा नहीं हुआ।
शून्य से शून्य का जोड़ शून्य ही होता है। शून्य से शून्य का गुणा भी शून्य ही रहता है। कांग्रेस-रालोद अब उ.प्र. में शून्य हैं। इसलिए इनके योग, गुणा और गठबंधन का कोई फायदा नहीं होगा। फिर आम जनता विकल्प चाहती है। कांग्रेस विकल्प हो नहीं सकती। उसकी हालत यहां बहुत खराब है। राहुल के “रोड शो” जनता का मनोरंजन ही करते हैं। जनता ऐसे कांग्रेसी अभियानों को गम्भीरता से नहीं लेती। जनता को वास्तविक विकल्प चाहिए। विकल्प का मतलब चूल्हे की आग से निकलकर भाड़ में घुस जाना नहीं होता। पहले ऐसा ही हो चुका है। सपाई माफियाराज से आजिज जनता ने बसपा को चुना। चूल्हे की आग से भागे, तो भाड़ की आग मिली। विकल्प का मतलब दु:शासन की जगह दुर्योधन नहीं, सुशासन होता है। कांग्रेस का विकल्प सपा नहीं है। बसपा भी सपा का विकल्प नहीं सिद्ध हुई। बसपा सरकार ने राजकोष की लूट का ही काम किया है। इस गठबंधन के जरिए कांग्रेस अपनी प्रतिष्ठा बचाना चाहती है। लेकिन गठबंधनों से क्या होता है, विकल्प जनता ही चुनती है।
भाजपा ही विकल्प
भाजपा और कांग्रेस का विरोध स्वाभाविक है। देश के 36 प्रतिशत भाग पर भाजपा की राज्य सरकारें हैं। कांग्रेसी भ्रष्टाचार और केन्द्र प्रायोजित, मनमोहन-संरक्षित महंगाई से नाराज आम जनता की पहली पसंद भाजपा है। सरकारी आतंकवाद, भ्रष्टाचार लूट और किसान उत्पीड़न वाली बसपाई सरकार का वास्तविक विकल्प भाजपा है। भाजपा सच्चे अर्थो में जिम्मेदार राष्ट्रीय राजनीतिक दल है। उ.प्र. के बाकी खिलाड़ी किसी न किसी नेता की “प्रापर्टी” हैं। कांग्रेस सोनिया-राहुल की “प्रापर्टी” है और रालोद अजित सिंह की। सपा मुलायम सिंह-अखिलेश की “प्रापर्टी” है, तो बसपा मायावती की निजी कम्पनी। ये चारों दल आंतरिक लोकतंत्र, बहस और सामूहिक विचार-विमर्श नहीं चलाते, कम्पनी की तरह ही चलते हैं। उ.प्र. का मतदाता भाजपा को विकल्प मान चुका है, लेकिन भाजपा को अभी लम्बी दूरी तय करनी है। भाजपा के सारे जन-अभियान सफल हुए हैं तो भी प्रत्यक्ष जन-सम्वाद का कोई विकल्प नहीं होता। मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ आदि की सरकारों के मॉडल लेकर आम जनता को बताना होगा कि भाजपा की राज्य सरकारें सुशासन और विकास के सभी मानकों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हुई हैं। वास्तविक विकल्प देना भाजपा का राष्ट्रीय कर्तव्य है। द
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