राज्यों से
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मेरठ/ अजय मित्तल
बसपा विधायक के अखबार का कारनामा
उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर से एक समाचार पत्र प्रकाशित होता है “शाह टाइम्स”। इसके सम्पादक, मुद्रक और प्रकाशक हैं शाहनवाज राणा, जोकि वर्तमान में बसपा के विधायक हैं। “शाह टाइम्स” ने अपने 8 दिसम्बर, 2011 के अंक में यह समाचार छापकर सनसनी फैला दी कि शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे की पौत्री नेहा ठाकरे ने इस्लाम कबूल कर एक मुस्लिम चिकित्सक मित्र डा. मोहम्मद नबी से निकाह कर लिया है। केवल इसी अखबार में प्रकाशित यह “एक्सक्लूसिव खबर” क्षेत्र में चर्चा का विषय बन गयी। इस खबर को चटखारे लेकर पढ़ा और सुनाया जाने लगा। इससे मुस्लिमबहुल मोहल्लों में उल्लास और हिन्दू बहुल क्षेत्रों में निराशा और आश्चर्य का वातावरण दिखा। जब इस संवाददाता ने सचाई जानने की कोशिश की तो पूरी खबर ही निराधार पाई गयी। मुम्बई स्थित “हिन्दुस्थान समाचार” के संवाददाता प्रणव, शिव सेना के मुख्यालय “सेना भवन” तथा पार्टी सचिव अनिल देसाई से प्राप्त जानकारी के अनुसार नेहा ठाकरे, जो बाल ठाकरे के दिवंगत ज्येष्ठ पुत्र बिन्दु माधव की पुत्री हैं, का विवाह गुजरात के मनन ठक्कर के साथ गत 3 दिसम्बर को बांद्रा (मुम्बई) के एक होटल में सम्पन्न हुआ। मनन ठक्कर के पिता निपुण ठक्कर स्व. बिन्दु माधव के मित्र रहे हैं। दोनों परिवारों के बीच पुराना घनिष्ठ परिचय है। किसी नबी से विवाह की खबर झूठी, बेबुनियाद और ठाकरे परिवार की साख पर चोट पहुंचाने के लिए षड्यंत्रपूर्वक रची गई है।
“शाह टाइम्स” में प्रकाशित झूठे समाचार में गौर करने लायक बात यह है कि इसमें समाचार के स्रोत का उल्लेख नहीं है। यह किसी एजेंसी ने जारी की या अखबार के संवाददाता ने, कुछ पता नहीं। इसके पीछे का एक ही गर्हित उद्देश्य समझ में आता है कि इस क्षेत्र में सक्रिय “लव जिहादियों” को प्रेरित करने और कट्टरवादियों को उत्साह प्रदान कर हिन्दू समाज पर मनोवैज्ञानिक चोट करना। इसके लिए एक अखबार और उसमें प्रकाशित एक झूठी और मनगढ़न्त खबर का सहारा लिया गया, यह बेहद आश्चर्य की बात है।
शाह टाइम्स मुजफ्फरनगर तथा मेरठ आदि स्थानों से छपता है। इसके मुद्रक, प्रकाशक और सम्पादक शाहनवाज राणा हैं, जो अपना पूरा नाम न छापकर एस.एन. राणा लिखते हैं। राणा बिजनौर से बहुजन समाज पार्टी के विधायक हैं। इनके चाचा कादिर राणा मुजफ्फरनगर से बसपा सांसद हैं और इनकी पत्नी मुजफ्फरनगर जिला पंचायत की अध्यक्ष हैं। इस क्षेत्र में राणा परिवार “बाहुबलियों” का परिवार माना जाता है। स्टील के कारखानों की श्रृंखला चलाते हुए इस परिवार ने खूब पैसा कमाया, फिर राजनीति व पत्रकारिता में प्रवेश किया। तमाम तरह के आपत्तिजनक कार्यों की चर्चा शाहनवाज राणा व उनके परिवार के संदर्भ में होती हैं।
“शाह टाइम्स” ने अपने अखबार में जो तीन टेलीफोन नंबर प्रकाशित किए हैं, उन पर जब संपर्क करने का प्रयास किया गया तो एक नंबर के संबंध में पता लगा कि वह मौजूद ही नहीं है। एक कभी भी उठता नहीं और एक पर “फैक्स टोन” ही आती है। इसलिए पता नहीं लग पाया कि इस समाचार पत्र ने ऐसी बेबुनियाद खबर क्यों छाप दी? शिवसेना के सहारनपुर मंडल के प्रमुख मनोज सैनी ने कहा है कि यह खबर पूरी तरह से झूठी और बेबुनियाद है तथा उनकी पार्टी की साख को बट्टा लगाने वाली है। इसलिए वे शीर्घ ही “शाह टाइम्स” के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करने वाले हैं। द
केरल/ प्रदीप कृष्णन
पहचान बदलने की कोशिश में कट्टरवादी
सुरक्षा एजेंसियों की कड़ी निगरानी और लगातार कमजोर पड़ते जा रहे “नेटवर्क” के कारण अब केरल में सक्रिय कट्टरवादी मुस्लिम संगठनों ने अपनी रणनीति में बदलाब किया है। अब पर्दे के पीछे से कट्टरवादी मुस्लिम समाज का सहयोग लेकर यात्रा, धरना और सांस्कृतिक आयोजन जैसे लोकप्रिय कार्यक्रमों का आयोजन कर ये सुरक्षा एजेंसियों की आंखों में धूल झोंकना चाहते हैं। कांग्रेस के साथ सत्ता का सुख भोग रही मुस्लिम लीग ने भी कट्टरवादियों को हिदायत दी है कि बड़े लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि अपनी वर्तमान पहचान को बदलें। यही वजह है कि जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरवादी संगठन की इकाई “सॉलीडिरेटी यूथ मूवमेंट” ने इन दिनों भ्रष्टाचार और क्षेत्रीय विकास का मुद्दा उठाना शुरू किया है तो कट्टरवादी पापुलर फ्रंट आफ इंडिया (पूर्व में एन.डी.एफ.) ने सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन करना शुरू कर दिया है। उधर अपने नेता अब्दुल नसीर मदनी के बंगलौर बम धमाके के सिलसिले में कर्नाटक पुलिस द्वारा अगस्त, 2010 में गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद से पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) भी कमजोर पड़ी हुई थी। उसने भी अपने नेता को आतंकवादी की बजाय रहनुमा (मसीहा) सिद्ध करने के लिए कुछ लोकप्रिय व स्थानीय मुद्दों पर धरना-प्रदर्शन करने की रणनीति बनाई है।
केरल की एक खुफिया एजेंसी के प्रमुख के अनुसार, “सुरक्षा बलों तथा गुप्तचर एजेंसियों की सख्ती और लगातार निगरानी के कारण कट्टरवादी धड़े अलग-थलग पड़ने लगे थे। उधर सत्ता में शामिल होने के कारण मुस्लिम राजनीतिक दलों ने दिखावे के तौर पर ही सही, कट्टरवादियों से दूरी दिखानी शुरू कर दी थी, इसीलिए नए नाम और नए कार्यक्रमों से ये लोग सामने आ रहे हैं। पर हम इन लोगों पर पैनी नजर रखे हुए हैं।”
नई और लोकप्रिय पहचान बनाने की कोशिश में “सालीडिरेटी यूथ मूवमेंट” ने कोझिकोड़ के किनालूर में स्थापित होने वाली एक विवादास्पद औद्योगिक इकाई के विरुद्ध आंदोलन चलाया तो राष्ट्रीय राजमार्ग पर पथ कर (टोल टैक्स) के खिलाफ भी लोगों को जुटाया। पिछले एक महीने से मालाबार क्षेत्र में विकास कार्यों की उपेक्षा के मुद्दे पर वह राज्य सरकार को घेरने की कोशिश कर जनता का समर्थन जुटा रहे हैं। उधर केरल जमीयत उल उलेमा के महासचिव और सुन्नी नेता ए.पी. अबुबकर मुसलियर भी अगले साल अप्रैल से पूरे केरल की यात्रा करने की घोषणा कर चुके हैं। पापुलर फ्रंट भी दिल्ली में “सामाजिक न्याय” पर एक संगोष्ठी आयोजित करने के बाद अब केरल के उत्तरी, दक्षिणी और मध्य क्षेत्र में अलग-अलग तीन यात्राओं के माध्यम से जन-जागरण की घोषणा कर चुका है। द
कांग्रेस लड़ा रही है भाजपा और माकपा को
केरल की भाजपा इकाई ने अब यह समझ लिया है कि राज्य में उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) नहीं, कांग्रेस है। वस्तुत: भाजपा और माकपा की प्रतिद्वंद्विता का लाभ कांग्रेस ही उठाती है, इसीलिए वह माकपा और भाजपा के वैचारिक मतभेदों को हवा देकर संघर्ष पैदा कराती है। कांग्रेस की इस चाल को पहचानकर ही भाजपा की प्रदेश इकाई के महासचिव ए.एन. राधाकृष्णन का कहना है कि, “माकपाइयों से विभिन्न प्रकार के वैचारिक संघर्षों में कांग्रेस की भूमिका अधिक है। अब हम कांग्रेस को इसका लाभ नहीं उठाने देंगे।” श्री राधाकृष्णन का कहना है कि कन्नूर की अनेक घटनाओं का गहन विश्लेषण करने के बाद यह तथ्य सामने आया कि माकपा कार्यकर्ताओं के साथ भाजपा कार्यकर्ताओं के संघर्ष में कहीं न कहीं कांग्रेसियों की भूमिका रही। कांग्रेस सांसद के. सुधाकरन ने दोनों दलों के राजनीतिक विद्वेष को संघर्ष में बदलने के लिए “आग में घी डालने” का काम किया। अन्य कई स्थानों पर भी भाजपा-माकपा के बीच हुए संघर्ष में कांग्रेस की भूमिका सामने आयी है।
श्री राधाकृष्णन ने कहा कि हम राजनीति में किसी को शत्रु के नजरिये से नहीं देखते। हमारी दृष्टि में राजनीतिक और वैचारिक विरोध का अर्थ व्यक्तिगत शत्रुता नहीं होती। देश व राज्य के हित में होने वाले किसी भी निर्णय या आंदोलन में हम पार्टी लाइन से ऊपर उठकर सहयोग करते हैं। यही कारण है कि वरिष्ठ माकपा नेता वी.एस. अच्युतानंदन द्वारा खतरनाक कीटनाशक इंडोसल्फान के विरुद्ध चलाए गए आंदोलन में भाजपा द्वारा सहयोग देने की खुली घोषणा की गयी थी।
केरल में भाजपा इकाई के महासचिव का यह बयान दूरगामी राजनीति का संकेत देता है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मुस्लिम लीग समर्थित कांग्रेस सरकार के विरुद्ध केरल में अब भाजपा-माकपा एकजुट होकर हमलावर होंगे। द
असम/ मनोज पाण्डेय
डिब्रूगढ़ में अफजल के पुतले का दहन
देश की राजधानी दिल्ली में स्थित संसद भवन पर 13 दिसंबर, 2001 को आतंकी हमले से देश के लोकतंत्र को चुनौती दी गई थी। इस हमले को विफल करने में 9 जवान शहीद हुए थे। इस हमले के भारत स्थित सरगना मोहम्मद अफजल को उच्चतम न्यायालय द्वारा फांसी की सजा दिए जाने के बाद भी उसे अभी तक फांसी पर नहीं लटकाया गया है। इसलिए संसद पर हमले की 10वीं बरसी पर सुदूर असम के डिब्रूगढ़ के व्यापार केन्द्र, मारवाड़ी पट्टी में हिन्दू युवा छात्र परिषद् (असम) के सदस्यों ने आतंकवादी अफजल के पुतले का दहन किया और उसे फांसी पर लटकाने की मांग करते हुए केन्द्र में सत्तारूढ़ संप्रग सरकार के खिलाफ नारेबाजी की। परिषद की केंद्रीय समिति के सदस्य गिरिन चेतिया, जिला समिति में सचिव सत्यजित देउरी व संगठन सचिव नीरज शाह ने संयुक्त रूप से संवाददाताओं को बताया कि अफजल को अभी तक फांसी ना दिया जाना संसद की रक्षा में बलिदान देने वालों का अपमान है। भारत के सुरक्षा बलों के बीच भी इससे एक नकारात्मक सन्देश जा रहा है। इसलिए अफजल को अविलम्ब फांसी पर लटका देना चाहिए। द
महाराष्ट्र/ द.वा आंबुलकर
फर्जी स्कूल, फर्जी शिक्षक, फर्जी छात्र
शिक्षा के नाम पर सरकारी खजाने से लूट
पिछले दिनों महाराष्ट्र में स्कूलों की जांच-पड़ताल के दौरान लाखों फर्जी छात्रों के गोरखधंधे का जो पर्दाफाश हुआ है उसने घोटालों का एक नया ही तरीका सामने ला दिया है। शिक्षा की आड़ में वर्षों से चल रहे इस गोरखधंधे में स्कूलों के संचालकों ने जिस तरीके के हथकंडे अपनाए उससे आम आदमी तो भौचक है ही, घोटालेबाज राजनेता भी दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर हो गए हैं।
आश्चर्य में डाल देने वाले इस घोटाले का एक उदाहरण देखिए-महाराष्ट्र के धूलिया जिले के पायलोद नामक एक छोटे से कस्बे में एक दिन अचानक 50-60 छात्र “आइ-पॉड” जैसा अत्याधुनिक यंत्र लेकर स्कूल आ गये, जिसके कारण गांव वाले आश्चर्य में पड़ गए। उस दिन इन “छात्रों” ने स्कूल में जाकर पढ़ाई भी की। जबकि स्थानीय लोग जानते थे कि अब तक की परिपाटी के अनुसार गांव के इस स्कूल में छात्र दसवीं की वार्षिक परीक्षा के दौरान ही आते हैं और खुलेआम नकल के सहारे पास होकर अगली कक्षा में चले जाते हैं। फिर अचानक इस स्कूल में पढ़ाई कैसे होने लगी? इसका उत्तर अगले ही दिन गांव वालों को मिल गया जब एक दल ने सर्वेक्षण कर उस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की सही संख्या का उसके रिकार्ड से मिलान किया, पता चला कि वे सारे के सारे छात्र फर्जी थे।
उधर नांदेड़ जिले में शिक्षा विभाग द्वारा राजस्व मंत्रालय के सहयोग से जिले के स्कूलों का सर्वेक्षण करने के बाद जो रपट तैयार की गई है, उसके अनुसार नांदेड जिले के विभिन्न स्कूलों में दर्ज फर्जी छात्रों की संख्या 2 लाख से भी अधिक है। इस स्थिति को देखकर हक्के-बक्के रह गए राज्य के शिक्षा मंत्री राजेन्द्र दर्डा ने राज्य के सभी जिलाधिकारियों को अपने-अपने जिले में स्कूलों तथा उसमें शिक्षा पा रहे छात्रों की सही संख्या की जांच करने के आदेश दिये। इसके पश्चात स्कूलों का राज्यव्यापी सर्वेक्षण करने के बाद राज्य के ग्रामीण क्षेत्र में 26 लाख फर्जी छात्र होने का पता चला। इसका सीधा-सा अर्थ है कि राज्य के हर जिले के स्कूलों में औसतन एक लाख छात्र फर्जी हैं। यही नहीं तो इन स्कूलों के कथित तौर पर सैकड़ों “शिक्षकों” का भी कोई अता-पता नहीं है।
धूलिया के जिलाधिकारी प्रकाश महाजन के अनुसार जिले में किये गये स्कूलों के सर्वेक्षण के दौरान 2006 स्कूलों में 3 लाख 87 हजार 399 छात्र पाये गये जबकि इन स्कूलों के रिकार्ड के अनुसार छात्रों की यह संख्या 4 लाख, 51 हजार, 998 होनी चाहिए थी। सभी स्कूलों को सर्वेक्षण की पूर्व सूचना देने के बावजूद भी कुल अपेक्षित छात्रों में से 15 प्रतिशत छात्रों का “गायब” होना आश्चर्य की बात थी। इस सर्वेक्षण में सावधानी के तौर पर छात्रों की अंगुली पर स्याही का निशान लगाया गया, जैसा कि मतदान के दौरान लगाया जाता है। इस स्याही के निशान ने भी अपना रंग दिखाया और सर्वेक्षण को असरदार और पारदर्शी सिद्ध करने में मदद की। इस डर से भी बहुत से फर्जी छात्र स्कूल ही नहीं आए। इस सर्वेक्षण में पाया गया कि कई स्कूलों में छात्रों की मेज तथा कुर्सियां तो हैं, पर कोई छात्र नहीं है। रिकार्ड में दर्ज गलत आंकड़ों को सही सिद्ध करने के लिए बुलाये गए भाड़े के छात्र अपने सहयोगी, शिक्षक और यहां तक कि स्कूल का भी नाम तक नहीं बता पा रहे थे। पारण के आशापुरी स्कूल के कथित “छात्रों” ने इसका कारण पूछे जाने पर साफ तौर पर बता दिया कि उन्हें मात्र 2 दिन पहले ही स्कूल में लाया गया था।
समाज कल्याण के नाम पर तथा विकलांगों के लिए चलाये जाने वाले स्कूलों का भी यही हाल था। शिरपुर में विकलांगों के लिये चलाये जाने वाले विशेष स्कूल में मात्र 7 प्रतिशत छात्र ही उपस्थित थे जबकि निकटवर्ती साक्री तहसील में तो विकलांग स्कूल कागजों पर ही चल रहे थे, क्योंकि सर्वेक्षण के दौरान वहां कोई छात्र ही नहीं पाया गया। नासिक की मराठा विद्या प्रसारक संस्था एक जानी-मानी संस्था समझी जाती है तथा जिले में कई स्कूलों का संचालन करती है। इस संस्था द्वारा सर्वेक्षण के दौरान छात्रों की घोषित संस्था दिखाने के लिये दो स्कूलों के छात्रों को इकट्ठा किया गया, और तो और रिकार्ड के अनुसार स्कूल का नाम तक बदल दिया गया। इसी शिक्षण संस्था द्वारा संचालित प्रतिष्ठित संस्थान “होराईजन अकादमी” का दिल्ली के “काउंसिल फॉर दि इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट” से किया गया पंजीकरण भी फर्जी पाया गया। सर्वेक्षण में अकेले नासिक जिले में ही 30 हाईस्कूल तथा 14 प्राथमिक विद्यालय फर्जी तौर पर चलाये जाने का मामला भी खुलकर सामने आया।
इन स्कूलों में आम तौर पर छात्रों की संख्या दोगुनी बताने का चलन पाया गया। नासिक शहर में ही एक स्कूल में दाखिल दिखाए गए 1364 छात्रों के स्थान पर मात्र 608 छात्र ही उपस्थित थे, जबकि छात्राओं के लिए चलाये जा रहे दूसरे स्कूल में छात्राओं की संख्या 1276 के स्थान पर मात्र 725 ही थी। नासिक से ही सटे नंदुरबार जिले में तो स्कूली सर्वेक्षण के दौरान स्कूलों में छात्रों की संख्या पूरी दिखाने के लिए पड़ोसी राज्य गुजरात तक से छात्र-छात्राओं को टैंपो में भरकर लाये जाने की भी चेष्टा की गयी। वनवासी बहुल जिला होने के कारण नंदुरबार में छात्रों के लिए सरकारी तौर पर आवासीय स्कूल बड़ी संख्या में चलाये जाने का दावा करने के बावजूद कई आवासीय स्कूल नाम-मात्र के लिए चलाये जाने का मामला भी सामने आया। इन आवासीय स्कूलों को राज्य सरकार द्वारा प्रदान किये जा रहे राशन व अन्य सामग्री का भी कोई पता नहीं चल पाया।
सर्वेक्षण के बाद सरकारी तौर पर जो विवरण प्रकाशित किया गया, उसमें जो प्रमुख मुद्दे उभरकर सामने आये, वे इस प्रकार हैं-
* 26 लाख स्कूली छात्रों का प्रवेश दिखाए जाने के बावजूद उनका कोई अता-पता नहीं चल पाया।
* इन छात्रों हेतु मध्याह्न भोजन के लिए आवंटित की गई 3 करोड़ रुपए के राशि का भी कुछ पता नहीं।
* 43 हजार शिक्षक “अतिरिक्त” पाये गये, जिनके मासिक वेतन की राशि 6 करोड़ रुपए राज्य सरकार से वसूली जा रही थी।
* आवासीय स्कूलों के छात्रों के भोजन के लिये सरकारी व्यवस्था से प्रतिमाह 3 किलो चावल आवंटित होता है, यह चावल कहां गया, कुछ पता नहीं।
* अनुसूचित जातियों-जनजातियों के छात्रों हेतु बनाए गए छात्रावासों में वितरण के लिए भेजी गई स्कूल ड्रेस एवं किताबों का भी कोई अता-पता नहीं।
राज्य में पहली बार किये गये स्कूलों के इस व्यापक सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि बरसों से धांधली करने वाले इन स्कूलों का संचालन ऐसे राजनीतिज्ञ एवं नेता तथा उनके परिजन करते आये हैं, जिनकी सरकारी दरबार में खासी साख है। इसी कारण पढ़ाई के नाम पर सरकारी खजाने की लूट का यह गोरखधंधा बड़े आराम से चल रहा था और किसी को कानों-कान खबर तक नहीं थी। अब यह छात्रों का फर्जीवाड़ा सामने आने के बाद भी शिक्षा माफिया चुप्पी साधे बैठे हैं।द
उल्फा का दोगलापन
वार्ता भी, धमकी भी
असम/ बासुदेब पाल
भले असम के आतंकवादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) का एक गुट केन्द्र सरकार के साथ “शांति वार्ता” कर रहा है, पर उसके तेबर अभी भी उग्र बने हुए हैं। “शांति वार्ता” के विरोधी गुट और उल्फा का “कमाण्डर इन चीफ” परेश बरुआ देश की सीमा से बाहर बैठकर हथियारों के बल पर समस्या का समाधान खोजने की जो धमकी दे रहा है, वैसी ही धमकी “शांति वार्ता” समर्थक और बंगलादेश से गिरफ्तार कर लाया गया उल्फा का अध्यक्ष अरविन्द राजखोवा भी दे रहा है। पिछले दिनों असम की दिमासा जनजाति के सशस्त्र संगठन दीमा हलाओ दाओग (डी.एच.डी.) ने कछार जिले के सिलचर में एक रैली आयोजित की। 29 नवम्बर को आयोजित इस रैली को सम्बोधित करने अरविन्द राजखोवा भी गया था। रैली के बाद एक स्थानीय दैनिक अंग्रेजी समाचार पत्र को दिए विशेष साक्षात्कार में अरविन्द राजखोवा ने कहा, “यदि शांतिवार्ता विफल हुई तो हम फिर से हथियार उठाने में हिचकिचाएंगे नहीं। इसके लिए हम असम की जनता से भी अभिमत लेंगे।” इसके एक कदम आगे बढ़कर धमकी देते हुए राजखोवा ने कहा, “पर इतना तो तय है कि यदि हम दोबारा हथियार उठाने को मजबूर हुए तो हालात पहले से कहीं अधिक बदतर होंगे, जिसका कोई अंत नहीं होगा।” अरविन्द राजखोवा ने यह भी कहा कि हम भले ही असम की सम्प्रभुता नहीं चाहते हैं, किन्तु असम के मूल निवासियों के लिए सम्प्रभुता की लड़ाई लड़ते रहेंगे।
हालांकि मंजे हुए राजनेता की तरह अरविन्द राजखोवा ने अपनी बात को संभालते हुए यह भी कहा कि हिंसक संघर्ष किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। हम लोगों ने 30 साल तक हथियार उठाकर असम को स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष किया लेकिन एक जिले को भी स्वतंत्र नहीं करा पाए। इस दौरान हमें सीमा पार से भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद की सहायता भी मिली, बावजूद इसके हमारे 12 हजार से अधिक समर्थक मारे गए। उधर भारत सरकार ने भी भारी मात्रा में धन खर्च किया, लेकिन उल्फा का मनोबल नहीं तोड़ सकी। इसलिए अब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि असम समस्या का समाधान राजनीतिक मार्ग से ही निकल सकता है। हालांकि वार्ता की मेज पर अभी काफी तनातनी है, पर बातचीत का माहौल बना हुआ है। इसके बाद भारत सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगाते हुए राजखोवा ने कहा- “दिल्ली के मामले में पुराने कटु अनुभवों को देखते हुए हमें एक बार फिर गढ्ढे में धकेल दिया जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। ऐसी स्थिति में एक बार फिर हथियार उठाने से पहले उल्फा असम की जनता से सलाह लेगा।”
अरविन्द राजखोवा के ताजा बयान से इस आशंका को बल मिलता है कि “शांति वार्ता” की आड़ में उल्फा अपने बिखर चुके संगठन को फिर जुटाकर खुद को ताकतवर बना रहा है। यह आशंका इसलिए भी अधिक है कि आत्मसमर्पण कर दिए जाने के बाद उल्फा के अध्यक्ष या अन्य पदाधिकारियों ने अब तक सुरक्षा बलों या वार्ताकारों को यह नहीं बताया है कि भारी मात्रा में विदेशों से लाये गये हथियार और गोला-बारूद कहां है। खबर है कि वह हथियार और गोला-बारूद असम में ही कहीं छुपा कर रखा गया है और उल्फा के ही कुछ लड़ाके उसकी पहरेदारी कर रहे हैं।द
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