अशांति फैलाने वाले "शांति पुरुष"
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अशांति फैलाने वाले “शांति पुरुष”

by
Dec 17, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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पाठकीय

दिंनाक: 17 Dec 2011 17:05:27

पाठकीय

अंक-सन्दर्भ *27 नवम्बर,2011

आवरण कथा “पाकिस्तान की असलियत” के अन्तर्गत श्री नरेन्द्र सहगल ने पाकिस्तान की बदनीयति, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पराजित मनोवृत्ति और हीनता से ग्रसित कूटनीति को पूरी तरह उजागर कर दिया है। यह सरकार चीन के साथ-साथ पाकिस्तान जैसे ओछे मुल्क के सामने भी घुटने टेक रही है। इससे यही लगता है कि भारत अपने लक्ष्यों, हितों और यहां तक कि राष्ट्रीय आत्मसम्मान की रक्षा करने में असमर्थ है। हाल ही में मालदीव में हुए दक्षेस सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आतंक का निर्यात करने वाले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को “शान्ति पुरुष” का तमगा लगाकर भारत की जनता को एक बार फिर उसी तरह चकित कर दिया है जैसे उन्होंने शर्म-अल-शेख में संयुक्त घोषणा पत्र जारी करके किया था, जिसमें पाकिस्तान के बलूचिस्तान में आतंकी गतिविधियों में भारत का हाथ होने के पाकिस्तानी आरोप को शान्ति प्रक्रिया के एजेंडे में शामिल कर लिया था।

-आर.सी. गुप्ता

द्वितीय ए-201, नेहरू नगर

गाजियाबाद-201001 (उ.प्र.)

द पाकिस्तान से कभी सिखों के सिर कलम करने, कभी हिन्दू-सिखों पर जजिया कर लगाने, कभी अपहरण करके फिरौती वसूलने, कभी हिन्दू बहू-बेटियों के अपहरण, बलात्कार, मुसलमान बनाकर जबरदस्ती निकाह कराने आदि के समाचार निरन्तर आते रहते हैं। इसके बावजूद भारत सरकार और उसके लाचार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी निन्दा का एक शब्द नहीं बोला। गुरु तेग बहादुर और गुरु गोविन्द सिंह ने हिन्दुओं पर इस्लामी अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष करते हुए अपना और अपने परिवारों का बलिदान कर डाला, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं के अनुयायी मनमोहन सिंह जिहादी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ गिलानी को “शान्ति पुरुष” का अलंकरण प्रदान कर रहे हैं।

-डा. सुशील गुप्ता

शालीमार गार्डन कालोनी, बेहट बस स्टैण्ड सहारनपुर (उ.प्र.)

द मालदीव में हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को “शांति पुरुष” कह कर ऐसे संबोधित किया, जैसे उन्होंने विश्व शांति के लिए कोई बहुत बड़ा काम किया हो और नोबल पुरस्कार के अधिकारी बन गए हों। इससे पहले प्रधानमंत्री “शर्म अल शेख” में बलूचिस्तान में फैली अशांति और आतंकवाद के सांप को अपने गले में डाल कर ले आए थे। क्या इस प्रकार की आत्महीनता और मुस्लिम ग्रंथि वोट बैंक की मजबूरी है या पिछले बारह सौ साल की गुलामी का असर जो इतने बड़े-बड़े नेता और देश के कर्णधार  भी आत्मसम्मान और राष्ट्र गौरव को भूल जाते हैं?

-अरुण मित्र

324, राम नगर, दिल्ली-110051

सुनो “युवराज”

सम्पादकीय “सत्ता मद में चूर कांग्रेस” में कांग्रेसी संस्कृति पर प्रहार किया गया है। “युवराज” एवं उनके सिपहसालारों की हरकतों से कांग्रेस की साख गिर रही है, इसमें कोई दो राय नहीं है। फूलपुर (उ.प्र.) रैली में “युवराज” ने मेहनतकश जनता को “भिखारी” की संज्ञा दे दी। “युवराज” को पता होना चाहिए कि वर्षों तक राज करने के बावजूद उनकी पार्टी ने आम जनता के लिए कुछ नहीं किया, सिवाय आश्वासन के। क्या आश्वासन से किसी का पेट भरता है? जिनका पेट नहीं भरता था वे लोग घर से सैकड़ों कि.मी. दूर निकल गए और मेहनत कर कमा रहे हैं। ऐसे लोगों को “भिखारी” कहा जा रहा है!

-हरेन्द्र प्रसाद साहा

नया टोला, कटिहार-854105 (बिहार)

भंवरी के हत्यारे न छूटें

राजस्थान में भंवरी देवी के साथ जो कुछ हुआ वह घोर निन्दनीय है। सच लिखा गया है कि इस मामले से “कांग्रेसी संस्कृति” का असली चेहरा उजागर हुआ है। इससे पहले दिल्ली में कांग्रेसी संस्कृति उजागर हुई थी, जब नैना साहनी को कई टुकड़ों में काटकर तंदूर में फेंक दिया गया था। भंवरी देवी के हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा मिले।

-मनीष कुमार

तिलकामांझी, भागलपुर (बिहार)

सिर्फ राजनीति

चर्चा सत्र में मे.ज.(से.नि.) गगनदीप बख्शी का आलेख “इस षड्यंत्र को समझें” अच्छा लगा। जब-जब जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक संकट आया है तब-तब वहां के शासक जनता का ध्यान बंटाने के लिए कुछ और मुद्दे पकड़ लेते हैं। इस समय वहां की सरकार अपने कुकर्मों से बदनाम हो रही है। इसलिए मुख्यमंत्री उमर सशस्त्र सेनाओं के विशेषाधिकार कम करने की बात कह रहे हैं। घाना, कांगो आदि देशों में शान्ति की स्थापना में भारतीय सेना की बड़ी भूमिका रही है। इसके लिए भारतीय सेना की प्रशंसा भी होती है। किन्तु कश्मीर को लेकर उसी सेना पर आरोप लगते हैं। यह राजनीति नहीं तो क्या है?

-बी.एल. सचदेवा

263, आई.एन.ए. मार्केट, नई दिल्ली-110023

सत्ता के स्वार्थी

डा. कृष्ण गोपाल का शोधपरक लेख “भारत अपनी 11 हजार एकड़ भूमि से हाथ धो बैठेगा”हर भारतीय को पढ़ना चाहिए। बंगलादेश को यह जमीन देने से पहले इस पर संसद में चर्चा कराई जानी चाहिए थी। भारत की एक इंच जमीन भी किसी देश को यूं ही नहीं दी जा सकती है। सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बंगलादेश से समझौता करने से पूर्व आपस में चर्चा क्यों नहीं की? क्या हमारे सेकुलर नेता इतने स्वार्थी हो गए हैं कि उन्हें देशहित से बड़ा स्वहित दिखने लगा है? ये लोग राष्ट्रधर्म भूल गए हैं, और सत्ताधर्म के लिए कार्य कर रहे हैं।

-सूर्यप्रताप सिंह ठाकुर

कांडरवासा, रतलाम-457222 (म.प्र.)

अनवरत पशुवध

गोहत्या के संबंध में श्री मुजफ्फर हुसैन ने अपने लेख “फतवे के आगे भी जाकर देखें” में जो तथ्य दिए हैं वे रोंगटे खड़े करते हैं। ईद-उल-जुहा के दिन मुम्बई में 2 लाख पशुओं की हत्या की गई। यह तो सरकारी आंकड़ा है। गैर-सरकारी आंकड़े के अनुसार तो यह संख्या काफी होगी। इस दिन पूरे देश में कटे गोवंश की संख्या करोड़ों में हो सकती है। एक गाय एक परिवार का पोषण कर सकती है। इतनी गायें काटकर कितने परिवार की आजीविका को नष्ट किया गया है। बड़े-बड़े अर्थशास्त्री विचार करें कि सड़कें, पुल, इमारतें बन भी गईं तो उनमें रहेगा कौन? जब खेत, खेती, किसान नहीं रहेंगे तो अमीर लोग पशुओं का आहार कब तक करेंगे?

-प्रो. परेश

1251/8सी, चण्डीगढ़

द जन्मदायी मां अपने बच्चे को कुछ समय तक दूध पिलाती है, किन्तु गाय मनुष्य को जीवनभर अपना दूध पिलाती है। फिर भी गाय की हत्या धड़ल्ले से की जा रही है। गांधी जी ने कहा था, “यदि सारा संसार गाय की पूजा का विरोध करे तो भी मैं गाय की पूजा करूंगा।” बात-बात पर गांधीवाद की बात करने वाले लोग गांधी जी के उपर्युक्त कथन को क्यों भूल गए हैं? अभी भी समय है गाय को बचाने के लिए सरकार आगे आए।

-उदय कमल मिश्र

समीप गांधी विद्यालय, सीधी-486661 (म.प्र.)

उनकी आह क्यों नहीं दिखती?

पिछले दिनों नक्सली नेता किशन के मारे जाने के बाद कथित बुद्धिजीवियों और सेकुलर नेताओं ने कहा फर्जी मुठभेड़ में किशन को मारा गया। यह मानवता के खिलाफ है। ये लोग उस समय मानवता की बात क्यों नहीं करते जब नक्सली आम लोगों और सुरक्षाकर्मियों को बड़ी बर्बरता के साथ मारते हैं? इन नक्सलियों ने पिछले छह साल में 2271 निर्दोष लोग मारे और 1415 सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतारा। इस तरह कितने बच्चों पर से माता-पिता का साया उठ गया, कितनी बहनों का सुहाग उजड़ गया, कितनी माताओं की गोद सूनी हो गई, तो बड़ी संख्या में वृद्ध माता-पिता बुढ़ापे की सशक्त लाठी (पुत्र) खो बैठे। इनकी पीड़ा, आह और दुख उन बुद्धिजीवियों और सेकुलर नेताओं को क्यों नहीं दिख रहा है, जो किशन के मारे जाने पर दु:ख मना रहे हैं?

-स्वामी अरुण अतरी

560, सीतानगर, लुधियाना (पंजाब)

दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की उपेक्षा

दिल्ली विश्वविद्यालय “दिल्ली” राज्य में स्थित भारत का सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय है और दिल्ली “क” वर्ग राज्य है जहां की राजभाषा हिन्दी है। परन्तु भारत सरकार के राजभाषा अधिनियम नियमों का उल्लंघन करते हुए विश्वविद्यालय के कुलसचिव कार्यालय का कार्य, महाविद्यालयों से जन सम्पर्क और अन्य सभी से पत्र व्यवहार केवल अंग्रेजी में किया जा रहा है, जो नियम विरुद्ध है। इतना ही नहीं छात्र-छात्राओं को दी जाने वाली विवरणिका व प्रवेश पत्र भी केवल अंग्रेजी में ही उपलब्ध कराये जाते हैं। यह राजभाषा अधिनियम के विरुद्ध है और दिल्ली के माथे पर कलंक है। इससे भी अधिक दुर्भाग्य की बात यह है कि विश्वविद्यालय के 5, 6 महाविद्यालयों में प्रवेश के लिए जो प्रथम 4 विषयों के अंक जोड़े जाते हैं उनमें हिन्दी की उपेक्षा कर अंग्रेजी को महत्व दिया जाता है, हिन्दी को छोड़ दिया जाता है। परिणामवरूप हजारों विद्यार्थी जिनके अंग्रेजी में अंक कम होते हैं और हिन्दी में अधिक वे प्रवेश से वंचित रह जाते हैं। यह उन 80 प्रतिशत छात्रों के साथ अन्याय है, जो सरकारी विद्यालयों से हिन्दी माध्यम से पढ़कर और उत्तीर्ण होकर आते हैं। 4,5 वर्ष पूर्व विश्वविद्यालय में हिन्दी विषय में से भक्तिकाल के कवियों, सूर, तुलसी जैसे अनेक आदर्श गद्य पाठों को भी कम कर दिया गया है। इतिहास विभाग में तो पहले से ही हिन्दी विरोधी वातावरण बनाया जा रहा है। यह व्यवस्था अंग्रेजी मानसिकता की प्रतीक है। इससे राष्ट्रभाषा और राजभाषा हिन्दी पढ़ने वालों में हीन भावना उत्पन्न होती है। विश्व के सभी देशों ने अपनी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षण देकर ही प्रगति की है। रूस, चीन, जापान, फ्रांस, स्पेन आदि इसके प्रमाण हैं। आशा है कि हिन्दी-प्रेमी, विश्वविद्यालय के अधिकारी, दिल्ली सरकार का भाषा संस्कृति विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्री, भारत सरकार रुचि लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय में जो हिन्दी की उपेक्षा हो रही है उसे समाप्त कर राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा हिन्दी को उचित स्थान दिलायेंगे।

-महेश चन्द्र शर्मा

ई-81, दयानन्द कालोनी, किशनगंज, दिल्ली-7

इस्रायल से सबक लें

1946 के लगभग इस्रायल अमरीकी तंत्र से मुक्त हुआ। 1946 तक इस्रायल में न तो कोई संविधान था और न ही उनकी कोई मातृभाषा थी। स्वतंत्रता प्राप्त होने पर इस्रायल में सबसे पहले संविधान बना और उसमें स्पष्ट रूप में यह दृढ़ निश्चय किया गया कि इस्रायल देश की एकमात्र भाषा “हिब्रू” होगी। सभी राजकीय कार्य और समस्त शिक्षा क्षेत्र में केवल हिब्रू भाषा का प्रयोग किया जायेगा। देशवासियों से अपील की गई कि वे केवल “हिब्रू” भाषा का प्रयोग करें। “हिब्रू” भाषा के विकास के लिये सभी स्तरों पर प्रयास किये गये। देशवासियों ने भी “हिब्रू” भाषा को अपना कर अपना स्वाभिमान जगाया। सभी प्रकार के व्यापार, शिक्षा, आम बोल चाल में हिब्रू भाषा को प्राथमिकता प्रदान की गई। विश्व के सबसे छोटे देशों में इस्रायल की गिनती होती है। किन्तु उसके काम बड़े हैं। इस्रायल के वैज्ञानिक और अन्य विद्वान विश्व में श्रेष्ठ स्थान रखते हैं। वे अधिकांशत: दुभाषियों का सहयोग लेते हैं। क्या भारत में भी मातृभाषा के प्रति इतना लगाव संभव है? हमें इस्रायल से सबक लेने से परहेज क्यों?

-कृष्णमोहन गोयल

113-बाजार कोट, अमरोहा-244221 (उ.प्र.)

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