चर्चा सत्र
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अरब राष्ट्रों में क्रांति का परिणाम
मा.गो. वैद्य
ब यह मानना ही होगा कि अरब राष्ट्रों में जनतंत्र की तेज हवाएंं बहने लगी हैं, तानाशाही राज ढहने लगे हैं। इसका प्रारंभ किया ट्यूनीशिया ने। इस एक-सवा करोड़ की जनसंख्या के छोटे-से देश ने अरब देशों में क्रांति का सूत्रपात किया। तानाशाह अली को पदच्युत किया, जनतंत्र की स्थापना की। बाद में मतदाताओं ने चुनाव में उत्साह से भाग लिया।
मिस्र में क्रांति
ट्यूनीशिया में हुई क्रांति की हवा मिस्र में भी पहुंची। गत बत्तीस वर्षों से वहां सत्ता भोग रहे हुस्नी मुबारक को भागना पड़ा, फौजी अधिकारियों ने सत्ता संभाली! उन्होंने चुनाव घोेषित किए। लेकिन चुनाव होंगे ही, इसका लोगों को भरोसा नहीं था। वे पुन: क्रांति के संकेतस्थल-तहरीर चौक-पर जमा हुए और उन्होंने तत्काल सत्ता परिवर्तन की मांग की। फौजी अधिकारियों को लगा कि दमन से आंदोलन कुचल देंगे। उन्होंने पहले पुलिस और बाद में फौज की ताकत आजमाई। इस जोर-जबरदस्ती में मिस्र के पांच नागरिक मारे गए। लेकिन लोग अड़े रहे, फिर फौज को ही पछतावा हुआ। दो फौजी अधिकारियों ने इस गोलीबारी के लिए जनता से क्षमा भी मांगी। 28 नवम्बर को वहां कई चरणों में होने वाले चुनावों की शुरुआत हुई। आगामी मार्च माह में नया संविधान बनेगा और इस संक्रमण काल की फौजी सत्ता समाप्त होगी।
लीबिया का संघर्ष
मिस्र के बाद क्रांति की लपटें लीबिया पहुंचीं। कर्नल गद्दाफी नामक तानाशाह ने लीबिया में चालीस वर्ष सत्ता भोगी। जनता ने उसे भी सबक सिखाना तय किया। क्रांतिकारियों की ओर से अमरीका के नेतृत्व में “नाटो” की हवाई सेना खड़ी हुई। गद्दाफी की कुछ न चली। आखिर उसका अंत हुआ।
यमन में भी वही
इन तीन देशों की जनता के विद्रोह की प्रतिध्वनि अन्य अरब देशों में भी गूंजी। सबसे पहले यमन के तानाशाह कर्नल अली अब्दुल्ला सालेह को कुछ सद्बुद्धि आई। स्वयं की गत गद्दाफी जैसी ना हो इसलिए उसने पहले देश छोड़ा और 23 नवंबर को सऊदी अरब से घोषणा की कि, वह गद्दी छोड़ने को तैयार है। उसने लिखित गारंटी भी दी, तुरंत उपाध्यक्ष के हाथों में सत्ता सौंप दी। वहां आगामी तीन माह में चुनाव होने का संकेत है।
सीरिया में रक्तपात
यह क्रांति की आंधी प्रारंभ में उत्तर अफ्रीका या अरब सागर से सटे देशों तक ही सीमित थी। लेकिन अब यह उत्तर की ओर बढ़ते हुए भूमध्य सागर को छू गई है। अभी वह सीरिया में पूरे उफान पर है और सीरिया के फौजी तानाशाह बशर असद गद्दाफी का अनुसरण कर रहे हैं। अब तक केवल दो माह में इस तानाशाह ने चार हजार नागरिकों को मौत के घाट उतारा है। उसकी यह क्रूरता देखकर अन्य अरब राष्ट्रों को भी चिंता हो रही है। अरब लीग, जो 22 अरब राष्ट्रों का संगठन है, ने असद को कुछ उपाय सुझाए थे। राजनयिक कैदियों को रिहा करने और शहरों में तैनात फौज को वापस लौटाने को कहा था। लेकिन असद ने कुछ राजनयिक कैदियों को रिहा करने के सिवाय और कुछ नहीं किया। आखिर अरब लीग ने सीरिया को लीग से निकाल दिया और उसके विरुद्ध आर्थिक नाकाबंदी शुरू की। किन्तु, असद की भी सत्ता वहां अधिक समय तक चलने वाली नहीं है।
ट्यूनीशिया से उठकर जनतंत्र की जो हवाएं अरब जगत में बहने लगी हैं, उसे चिंतकों ने अरब जगत में “वसंतागम” नाम दिया है। यह सही है, इस क्षेत्र में तानाशाही के शिशिर की ठंडी हवाएं चल रही थीं, अनेक दशकों के शिशिर का वह जानलेवा जाड़ा अब समाप्त हो रहा है। वसंत ऋतु आई है, या कम से कम उसके आगमन के संकेत दिखाई दे रहे हैं। लेकिन क्या हम यह कह सकते हैं कि वसंतागम के जो संकेत दिखाई दे रहे हैं, वे सही में सुखद हवा की गारंटी देने वाले हैं? पहले ट्यूनीशिया का ही उदाहरण लें। वहां चुनाव हुए, 271 प्रतिनिधि चुने गए, 22 नवंबर को निर्वाचित प्रतिनिधियों की पहली बैठक हुई, संक्रमणकाल के फौजी प्रशासन ने स्वयं हटना मान्य किया है। निर्वाचितों में 41 प्रतिशत प्रतिनिधि “नाहदा” इस्लामी संगठन के कार्यकर्ता हैं। स्वयं के बूते वे राज नहीं कर सकते इसलिए “सेकुलर” के रूप में जिन दो पार्टियों की पहचान है, उनके साथ उन्होंने हाथ मिलाया है। “नाहदा” के नेता हमादी जबाली प्रधानमंत्री बनेंगे, यह निश्चित है। तानाशाही राज में राजनयिक कैदी के रूप में उन्होंने कारावास भी सहा है। उन्होंने गारंटी दी है कि, “हम भयप्रद इस्लामी नहीं”। किन्तु इस आश्वासन पर विश्वास करना कठिन है। चिंता यह है कि इस्लामी पार्टी के नेताओं के अंदर कौन से विचार उफान ले रहे हैं? “खिलाफत” कहने के बाद “खलीफा” आता है। उसके हाथों में राजनीतिक और मजहबी शक्तियां केंद्रित होंगी ही, ईसाइयों के पोप के समान “खलीफा” केवल सबसे बड़ा मजहबी नेता नहीं होता। “खिलाफत” की स्थापना का विचार उदारमतवादी लोगों के मन में, जिन्होंने यह जनतांत्रिक क्रांति की, निश्चित ही भय निर्माण करने वाला है।
किसके हाथ सत्ता?
मिस्र में 28 नवंबर को मतदान का एक दौर समाप्त हुआ। दो दौर बाकी हैं। लेकिन पहले दौर के मतदान से यह स्पष्ट हुआ कि, “मुस्लिम ब्रदरहुड” जैसे कट्टर इस्लामी संगठन द्वारा पुरस्कृत उम्मीदवार अधिक संख्या में चुने गये हैं। “मुस्लिम ब्रदरहुड” को 40 प्रतिशत स्थान मिले हैं। इससे भी अधिक कट्टर संस्था, जिसका नाम “सलाफी” है, के उम्मीदवारों को भी खूब वोट मिले। उन्हें 25 प्रतिशत सीटें मिलीं। यह सलाफी सब प्रकार की आधुनिक सोच के विरुद्ध है। महिलाओं के राजनीति-सामाजिक, सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेने, दूरदर्शन आदि मनोरंजन के साधनों से भी उसका विरोध है। सलाफी शरियत कानून का पक्षधर है। “ब्रदरहुड” और “सलाफी” के बीच गठबंधन के संकेत स्पष्ट दिखाई देते हैं। इस गठबंधन को इजिप्ट की नई संसद में 65 प्रतिशत सीटें मिलेंगी, ऐसा माना जा रहा है।
कट्टरवादियों के हाथों में सत्ता के सूत्र जाने से इन क्रांतिवादी देशों में भी तालिबान जैसा राज दिखाई देगा। यह स्पष्ट दिखता है कि आने वाले समय में अरब जगत को तानाशाही या कट्टरवाद के खतरे से छुटकारा नहीं मिलने वाला। आश्चर्य इस बात का है कि लोगों ने ही अपने मत से कट्टरवादियों को सत्ता पर बिठाया है। वे आगे चलकर जनतंत्र को चलने देंगे, इसकी गारंटी नहीं है। जर्मनी में हिटलर भी जनता के द्वारा ही चुनकर सत्ता में आया था। कहने का अर्थ है, संसार के इस क्षेत्र में फिर से कट्टरवाद की सिहरन भरी हवाओं के बहने के संकेत भी मिल रहे हैं।द
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