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आतंकवादियों को सजा

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Dec 17, 2011, 12:00 am IST
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आतंकवादियों को सजामें देरी का औचित्य?

दिंनाक: 17 Dec 2011 17:32:56

में देरी का औचित्य?

*जगदीप धनखड़

भारत के राष्ट्रपति को अनेक संवैधानिक विशेषाधिकार प्राप्त हैं। विशेष रूप से वह शक्तियां अत्यधिक महत्व रखती हैं जिनमें वह अनुदान और क्षमायाचना जैसे निर्णय लेते हैं। किन्तु लम्बे समय से कहीं न कहीं इन शक्तियों और इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा की जा रही है। वास्तव में यह प्रणाली देश की व्यवस्था को लचर बनाती है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 में राष्ट्रपति को अनुदान एवं क्षमा याचना जैसी शक्तियों का वर्णन किया गया है। हालांकि यह भी सत्य है कि प्रधानमंत्री, कार्यपालिका और संसद की सलाह से भारत के राष्ट्रपति बंधे हुए हैं। किन्तु अब समय आ गया है कि एक अरब लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए इस पूरी प्रक्रिया पर पुन: विचार किया जाए।

13 दिसंबर, 2001 को पांच सशस्त्र  पाकिस्तानी आतंकवादी संसद भवन में प्रवेश कर गए। निश्चित तौर पर यह घटना पूरे राष्ट्र को उद्वेलित करने वाली थी। 30 मिनट तक संघर्ष के बाद पांचों आतंकवादी सुरक्षा बलों द्वारा मार गिराए गए। इस दौरान सुरक्षाकर्मियों और संसद-कर्मियों सहित कुल 9 लोगों का बलिदान हुआ। यहां सोचने की बात यह है कि यदि वे अपने प्रयोजन में सफल हो जाते तो क्या होता? उनके पास संपूर्ण संसद भवन को ध्वस्त करने के लिए पर्याप्त गोला-बारूद उपलब्ध था। देश के सर्वोच्च संस्थान पर किया गया यह हमला हमारी संप्रभुता पर हमला था, लेकिन आज तक उस हमले का न्याय बाकी है।

प्रत्येक वर्ष संसद भवन में उन सुरक्षाकर्मियों के बलिदान को याद करते हुए एक आकर्षक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। क्या वर्ष में एक बार किये जाने वाले इस कार्यक्रम से उन सुरक्षाकर्मियों के प्रति हमारे दायित्वों की पूर्ति हो जाएगी? वास्तव में उनको दी जाने वाली यह सच्ची श्रद्धाञ्जलि तो कतई नहीं हो सकती। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मृत्यु दंड दिए जाने के कई वर्ष बीत जाने के बाद भी दोषी को सजा देने में हम विफल रहे हैं। यह आतंकी हमला मनोत्तेजक षड्यंत्र कतई नहीं था। फिर मोहम्मद अफजल मृत्युदंड का हकदार होने के बावजूद आखिर किस प्रक्रिया के तहत आज भी जिंदा है?

यहां उल्लेखनीय है कि सन् 2005 में ही अफजल की अर्जी को खारिज कर दिया गया। इसके बाद 22 सितम्बर, 2005 को पुनर्रीक्षा याचिका भी खारिज कर दी गई। यहां तक कि आरोग्यकर (अस्वस्थता) याचिका को भी 12 जनवरी, 2007 में चार न्यायाधीशों की पीठ ने खारिज कर दिया। तत्पश्चात देश के सर्वोच्च न्यायालय ने मोहम्मद अफजल को मृत्युदंड की सजा सुनाई और इस न्यायिक प्रक्रिया में पांच वर्ष लगे।

पूरी न्यायिक प्रक्रिया के बाद जघन्यतम कृत्य करने के लिए फांसी की सजा पाने वाला अफजल अब राष्ट्रपति के रहमोकरम पर पांच साल से जीवित है। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि राष्ट्रपति ने इस मामले को दया से निपटाने की दलील दी है। जबकि अफजल को फांसी दिए जाने की मांग को सभी सार्वजनिक क्षेत्रों ने प्रमुखता से उठाया है। लेकिन तुष्टीकरण की राजनीति के चलते बीते अनेक वर्षों से कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है।

आतंकी शक्तियों से कैसे निपटा जाता है इसके एक नहीं, अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं, लेकिन हम उनसे कुछ सीखना ही नहीं चाहते। विश्व की शक्तिशाली शक्तियों में से एक अमरीका के न्यूयार्क स्थित विश्व व्यापार केन्द्र को 11 सितम्बर, 2001 को आतंकियों ने हमला कर ध्वस्त कर दिया था। इस हमले में 5000 से अधिक निर्दोष लोगों की जान गई थी। जिसके बाद से अमरीका ने कड़ाई से “पेट्रीऑट एक्ट” लागू किया। जिसका नतीजा है कि इस हमले के बाद आतंकवादी अमरीका में दोबारा आतंकी घटना को अंजाम नहीं दे सके। इतना ही नहीं, हमले के सरगना ओसामा बिन लादेन को अमरीकी सेना ने पाकिस्तान में ही मार गिराया। इसके विपरीत हम अपने ही देश के न्यायालय द्वारा एक हमलावर आतंकवादी को फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद भी उसे सहेज कर रखे हुए हैं। भारत के संसद भवन पर हमले के बाद से आतंकवादियों ने लगातार एक के बाद एक दिल्ली मुम्बई सहित देश के कई शहरों को निशाना बनाया, किन्तु लचर कानून व्यवस्था और आतंकवादियों के प्रति सरकारी नरम रुख के कारण भारत में आतंकवादी मौज कर रहे हैं। तुष्टिकरण की नीति, राजनीति में वोट बैंक का दबाव जैसे अनेक ऐसे कारण गिनाये जा सकते हैं जिनके सामने केन्द्र सरकार स्वयं को झुका पाती है। वह आतंक विरोधी कानून पोटा या टाडा लागू नहीं करती। राजनेता सत्ता में रहने के लिए छद्म धर्मनिरपेक्षता

का सहारा लेते हैं।

यह बहुत ही शर्म की बात है कि संविधान के अनुच्छेद 72 के संरक्षण में इन आतंक विरोधी शक्तियों को बढ़ावा दिया जा रहा है। राष्ट्रपति द्वारा यह दलील दिए जाने के बाद भी पांच वर्षों का समय लिया गया। वस्तुत: यह समय न्यायालय, उच्च न्यायालयों के द्वारा लिए गए समय से भी अधिक है। 2008 में पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब द्वारा मुम्बई पर हमले का संपूर्ण राष्ट्र गवाह है, जिसकी सजा अभी भी उच्च न्यायालय में विचाराधीन है। अब आशा कर सकते हैं कि इस प्रकरण को उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय लंबित नहीं करेंगे। अफजल तथा कसाब की सुरक्षा, पालन पोषण पर करोड़ों रुपए खर्च करना कहीं से भी उपयुक्त नहीं है। क्या यह करोड़ों लोगों के मानवाधिकारों के लिए सही होगा कि उनसे कर के रूप में प्राप्त राशि को सरकार आतंकवादियों को सुविधा, सुरक्षा मुहैया कराने और उनके रखरखाव पर खर्च करे? इस स्थिति में राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका पर विलंब क्या राष्ट्रहित में है? अनुच्छेद 72 को एक समय सीमा में प्रयोग करने की आवश्यकता है या नहीं? ऐसे तमाम प्रश्नों का उत्तर अभी बाकी है, जिनके उत्तर की आशा भारत के प्रत्येक देशभक्त नागरिक को है।

(लेखक “सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स एंड जस्टिस” के अध्यक्ष हैं)

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