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भारत-विरोधियों की दुरभिसंधि के विरुद्ध

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Dec 10, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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वैचारिकी

दिंनाक: 10 Dec 2011 16:46:27

सजग रहें, सशक्त बनें

डा. शत्रुघ्न प्रसाद

ईसा की उन्नीसवीं सदी के अंत में अद्वैत समता चिंतन के वैश्विक साधक स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि भारतीयों को अगले सौ वर्षों तक केवल एक ही देवी-भारतमाता की उपासना की नितांत आवश्यकता है। साथ ही अपने पुरातन गौरवमय समाज जीवन से ऊंच-नीच, हीनता के विचार एवं व्यवहार को दूर करना होगा और भक्ति के साथ शक्ति एवं सेवा-धर्म को अपनाना होगा। इसके बाद श्री अरविन्द ने अंग्रेजी साम्राज्य को चुनौती देते हुए भारतीयता के आधार पर नवजागृति का संदेश दिया था। “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है- लोकमान्य तिलक का यह ओजस्वी स्वर सारे देश में गूंजने लगा था। वीर सावरकर ने हिन्दुत्व की नए सिरे से व्याख्या की। महात्मा गांधी ने स्वदेशी, स्वभाषा और रामराज्य के आधार पर सामान्य जनजीवन को जागृत कर दिया। डा. केशव बलिराम हेडगेवार ने हिन्दू संगठन का महामंत्र दिया तो माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी ने समाज एवं राष्ट्र के लिए वैयक्तिक चरित्र और राष्ट्रीय चरित्र-दोनों पर विशेष बल दिया।

पाकिस्तान का विचार

सन् 1909-10 में गांधी जी की पुस्तक “हिन्द स्वराज” की चर्चा हो रही थी और जनजीवन अनुप्राणित हो रहा था, उन्हीं दिनों इंग्लैण्ड-जर्मनी से लौटे कौमी शायर मुहम्मद इकबाल द्वारा रचित “शिकवा” और बाद में “जवाबे शिकवा” से इस्लामी चेतना और विश्व इस्लामवाद की मजहबी सियासत के विचार फैलने लगे थे। यदि गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से आकर अपनी पुस्तक में अंग्रेजी साम्राज्यवाद, पश्चिमी संस्कृति, पश्चिमी राजनीति और पश्चिमी अर्थनीति की समीक्षा कर भारत को सावधान कर रहे थे तो मुहम्मद इकबाल शायरी के माध्यम से विश्व इस्लामवाद की विचारधारा को प्रोत्साहित करने में लगे थे। पाकिस्तान के उपन्यासकार आनिश तासीर ने अपने लेख में लिखा है, “हिन्दुस्थान के प्रति पाकिस्तान की मनोग्रंथि को, या यूं कहें कि उसके पागलपन को समझना है तो हमें पाकिस्तान के मूल विचार की केन्द्रीय अवधारणा को देखना होगा, जो हर भारतीय चीज को नकारती है, उसकी संस्कृति को, उसके इतिहास को। पाकिस्तान के विचार को पूरी गंभीरता से सबसे पहले किसी मजहबी नेता या राजनीतिज्ञ ने नहीं, बल्कि एक शायर ने पेश किया था। सन् 1930 में आल इंडिया मुस्लिम लीग के एक जलसे की अपनी तकरीर में मुहम्मद इकबाल ने हिन्दुस्थान के मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क की बात की थी। इकबाल की इस सोच को अगस्त 1947 में आकार मिला।” (हिन्दुस्तान, पटना, 23 जुलाई, 11)

कांग्रेस और लीग

यह स्मरणीय है कि बंग-भंग विरोधी जनांदोलन की व्यापकता तथा वंदेमातरम् के ओजस्वी घोष से घबराकर अंग्रेजों के इशारे पर मुस्लिम लीग की स्थापना ढाका में सन् 1906 में हुई थी। और यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि अंग्रेजों ने सन् 1857-58 के बाद उग्र राष्ट्रीयता के जागरण से बचने के लिए और भारत के नवशिक्षितों में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति निष्ठा जगाने के लिए सन् 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना की थी। इस प्रकार कांग्रेस और बाद में मुस्लिम लीग की स्थापना अंग्रेजों द्वारा की गई थी। परंतु हिन्दी कथाकार यशपाल ने प्रसिद्ध उपन्यास “झूठा सच” में लिखा है कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग की स्थापना स्वाधीनता संघर्ष के लिए हुई थी। ऐसा असत्य वामपंथी लेखनी की देन ही हो सकता है। पर यह ऐतिहातिसक सत्य है कि गांधी जी ने सन् 1944 में कारागार से मुक्त होकर लीग के सर्वमान्य नेता मुहम्मद अली जिन्ना के दरवाजे पर ग्यारह दिनों तक जाकर स्वाधीनता संग्राम में सहयोग के लिए अनुरोध किया था। जिन्ना ने सहयोग से पहले पाकिस्तान की स्वीकृति के लिए उन पर दबाव डाला। अंत में उन्होंने अपने द्वार पर गांधी जी का तिरस्कार भी कर दिया। गांधी जी निराश होकर लौटे थे। अंग्रेजी साम्राज्यवाद और मुस्लिम लीग की दुरभिसंधि का ही यह परिणाम था, जिसे वामपंथी दलों का पूरा समर्थन था। स्पष्ट है कि भारत विभाजन के पीछे अंग्रेजी साम्राज्यवाद, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट-तीनों की दुरभिसंधि सक्रिय थी। सन् 1946 तथा 1947 में आतंक और खूनी उपद्रव के बल पर लीग ने कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व को झुकाकर भारत का खूनी बंटवारा करा दिया। यह दुरभिसंधि और हिंसा के सामने आत्मसमर्पण था। अहिंसावाद और हिंसावाद के द्वंद्व में हिंसा की जीत हो गयी थी।

भारत-विरोधियों की दुरभिसंधि

भारत के समकालीन इतिहास की कठोर सच्चाई यह है कि भारतीय जन के बहुविध संघर्ष और बलिदान के बाद भी वह दुरभिसंधि विजयी हो गयी। यह संघर्ष सन् 1857 से लेकर सन् 1945 तक चला था। विवेकानंद के भारत ने षड्यंत्र और दंगों के समक्ष अपनी वैचारिक दुर्बलता तथा सत्ता-राजनीति के कारण आत्मसमर्पण करके विभाजन और विस्थापन की असह्य पीड़ा को झेला है। स्पष्टत: हम विवेकानंद के संदेश को भूल गये थे। आज इक्कीसवीं सदी के आरंभ में ही लग रहा है कि अपने देश में पाकिस्तान-परस्त हैं, चीन-परस्त हैं और अमरीका-परस्त प्रबल प्रतीत हो रहे हैं। तथापि स्वामी विवेकानंद से अनुप्राणित भारत भूमि, मातृभूमि के प्रति निष्ठावान जनसमूह इनके प्रतिरोध में खड़ा है और भारत मां के ये उपासक संकल्पित हैं। द्वंद्व चल रहा है। आज भी वह दुरभिसंधि दूसरे रूप में प्रहार कर रही है। अमरीका-पाकिस्तान-चीन का गठबंधन भारत के विरुद्ध है, भारतीयता के विरुद्ध है, भारतभूमि की शेष अखंडता के विरुद्ध है। भ्रष्टाचार और कालेधन का भयानक रूप इस स्थिति को विषम बना रहा है। कांग्रेस का वंशानुगत नेतृत्व पुन: उस दुरभिसंधि यानी पाकिस्तानपरस्ती, चीनपरस्ती और अमरीकापरस्ती के आगे झुकता नजर आ रहा है। यह नेतृत्व भ्रष्टाचार, कालाधन और सत्ता राजनीति के मकड़जाल में उलझ गया है। इसलिए तुष्टीकरण की भारत-भारतीयता विरोधी नीति जारी है। भारतनिष्ठों को आतंकित किया जा रहा है। यह द्वंद्व असाधारण है। ऐसे में भारतीयजन का व्यक्तिवादी और जातिवादी विचार-व्यवहार हमारे राष्ट्रीय चरित्र को कमजोर कर रहा है। शासन की शिक्षा नीति इस देश के वैयक्तिक चरित्र तथा राष्ट्रीय चरित्र दोनों को ध्वस्त कर रही है। यह सर्वाधिक चिंता का विषय है। हम आत्महंता बन रहे हैं। हमें तो संघर्षी बनना है। संतोष का विषय है कि भारतनिष्ठ संकल्पितों का दायरा बढ़ रहा है। उधर पाकिस्तानपरस्त, चीनपरस्त तथा अमरीकापरस्तों की बड़ी जमात है। यह जमात भारत की संस्कृति, इतिहास, भाषा, साहित्य, समाज और राष्ट्रीयता पर प्रहार कर रही है। इस दंश का, प्रहार का हम सभी अहसास नहीं कर पा रहे हैं। पीड़ा की अनुभूति हमारे सबके संकल्प को सुदृढ़ करेगी।

मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण

पाकिस्तानपरस्त आतंकवादी पाकिस्तान से लेकर भारत के गांव-नगरों तक फैले हुए हैं। अफजल और कसाब की रक्षा के लिए एक नहीं, अनेक आवाजें इस भूमि से उठती रहती हैं। आतंकवाद से घायल भारत अपने घावों को सहलाकर चुप हो जाता है। भूल भी जाता है। उधर सत्ता राजनीति चुनाव में जीतने के लिए आतंकवाद के समक्ष झुक जाती है। आतंकवाद के समक्ष यह समर्पण भयानक स्थिति पैदा कर रहा है। कटु सच्चाई यह है कि कांग्रेस, वामपंथी दलों और अन्य क्षेत्रीय दलों ने मान लिया है कि भारत के सभी मुसलमान पाकिस्तान तथा आतंकवाद के समर्थक हैं। अत: कश्मीर के अलगाववाद तथा आतंकवाद के विरुद्ध उग्र नहीं होना है। पर यह बहुत बड़ी गलतफहमी है। सभी मुसलमान पाकिस्तान और आतंकवाद के समर्थक नहीं हैं। इनका बड़ा प्रतिशत देश से जुड़ा हुआ है। वे हर क्षेत्र में हिन्दुओं के साथ आगे बढ़ रहे हैं। पर दुर्भाग्य से इस देश की सेकुलर राजनीति देशभक्त, उदार और विचारशील मुसलमानों के साथ खड़ी नहीं होती है। वह कट्टर मजहबी सियासत के आगे समर्पित हो जाती है। यह अदूरदर्शिता, अविवेक तथा अराष्ट्रीयता है।

यह कैसा अन्तर्विरोध है कि कांग्रेस के नेता पं. नेहरू ने मुस्लिम लीग की रक्तपिपासु जिद के आगे सन् 1947 में आत्मसमर्पण कर दिया था। तब ही विभाजित भारत स्वाधीन हो सका था। पर नेहरू-पुत्री इंदिरा के समय से कांग्रेस के शासन को इसी मुस्लिम लीग का सहयोग मिल रहा है। आज कांग्रेस के गठबंधन शासन में मुस्लिम लीग सम्मिलित है। 2 दिसम्बर, 2011 के दैनिक जागरण (पटना) में एक भारतीय पत्रकार ने कराची से लौटकर बताया है कि पाकिस्तानी भारत में कांग्रेस पार्टी को कमजोर होते देखकर चिंतित हैं। उन्हें डर है कि भाजपा शासन में आ जाएगी। इस चिंता का निहितार्थ गंभीर है। यदि कांग्रेस सत्ता में है तो मुस्लिम लीगी और जिहादी आतंकवादी भारत तथा पाकिस्तान दोनों देशों में निरंकुश होकर भारत पर प्रहार कर सकेंगे। भारत के कश्मीर में हिन्दुओं को विस्थापित होकर जीना पड़ रहा है। कश्मीर का पूर्णत: इस्लामीकरण हो सकेगा। कश्मीरी मूल के मुहम्मद इकबाल का सपना पूरा हो सकता है।

इधर भारत में पाकपरस्त, चीनपरस्त तथा अमरीकापरस्त सक्रिय हैं तो उधर भारत के बाहर अमरीका, पाकिस्तान तथा चीन में अघोषित गठबंधन है। भारत को शरीर, मन-मस्तिष्क तथा हर प्रकार से प्रबल होना है। वैयक्तिक चरित्र तथा राष्ट्रीय चरित्र के इस्पाती आधार पर ही भारत इस दुरभिसंधि तथा षड्यंत्रों को विफल कर सशक्त, वैभवशाली तथा विश्व प्रतिष्ठित हो सकेगा। इसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माण कार्य-वैयक्तिक तथा राष्ट्रीय चरित्र की साधना को और आगे बढ़ाना होगा। भारत के जनजीवन की व्यापक जागृति ही इसके लिए अमोघ अस्त्र है। शिक्षा संस्थान और पत्रकारिता को प्रबल होना है। दुरभिसंधि और षड्यंत्र के साथ भ्रष्टाचार पर प्रहार हो, यही आज का युगधर्म है।द

कांग्रेस का वंशानुगत नेतृत्व पुन: उस दुरभिसंधि यानी पाकिस्तानपरस्ती, चीनपरस्ती और अमरीकापरस्ती के आगे झुकता नजर आ रहा है। यह नेतृत्व भ्रष्टाचार, कालेधन और सत्ता राजनीति के मकड़जाल में उलझ गया है। ऐसे में भारतीयजन का व्यक्तिवादी और जातिवादी विचार-व्यवहार हमारे राष्ट्रीय चरित्र को कमजोर कर रहा है। यह सर्वाधिक चिंता का विषय है। हम आत्महंता बन रहे हैं। हमें तो संघर्षी बनना है। संतोष का विषय है कि भारतनिष्ठ संकल्पितों का दायरा बढ़ रहा है।

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