गवाक्ष
|
बेटियां शुभकामनाएं हैं
शिवओम अम्बर
मध्य प्रदेश सरकार के जन सम्पर्क विभाग ने 'बेटी बचाओ अभियान' के अन्तर्गत प्रसारित विज्ञापन में कुछ अत्यंत प्रभावी कविता पंक्तियों को प्रकाशित किया
बेटियां शुभकामनाएं हैं,
बेटियां पावन दुआएं हैं।
बेटियां जीनत हदीसों की,
बेटियां जातक कथाएं हैं।
बेटियां गुरूग्रंथ की वाणी,
बेटियां वैदिक ऋचाएं हैं। है-
कविता-पंक्तियों के साथ कवि का नाम नहीं दिया गया है। अच्छा होता अगर कवि की संज्ञा भी उल्लिखित होती, किंतु ये सम्पूर्ण शासन-प्रशासन की सद्भावनाओं की सम्यक् अभिव्यंजनाएं प्रतीत होती हैं। जहां तक मेरी जानकारी है-ये पंक्तियां भाई अजहर हाशमी (रतलाम) की हैं। वर्षों पूर्व दूरदर्शन के केन्द्रीय कार्यक्रम निर्माण केन्द्र (दिल्ली) द्वारा आयोजित कवि सम्मेलनों में अक्सर उनका सान्निध्य मिला है। कविवर गोविन्द व्यास उन कार्यक्रमों का संचालन किया करते थे। ऐसे ही किसी आयोजन में उन्होंने अपनी इन पंक्तियों का पाठ किया था और ये पंक्तियां पर्याप्त चर्चित हुईं, अभिवंदित हुईं। भारत वर्ष की समन्वयशील सांस्कृतिक चेतना के कलात्मक सूची-पत्र सी इस काव्याभिव्यक्ति में बेटियों के प्रति जिस तरल वत्सलता और उनकी सहज गरिमा के प्रति जो हार्दिक स्वीकृति है, वह इन्हें विशिष्ट बना देती है। अपने जन सम्पर्क में इन पंक्तियों का चयन करके मध्य प्रदेश प्रशासन ने साहित्यिक संदृष्टि और सांस्कृतिक सुरुचि का परिचय दिया है-एतदर्थ साधुवाद।
इसी प्रसंग में अनायास स्मृति में जाग उठती हैं डा.कुंवर बेचैन की वे प्रसिद्ध गीति-पंक्तियां, जो बेटियों को उन शीतल हवाओं के रूप में वर्णित करती हैं जिनका बसेरा पिता के घर कुछ समय के लिए ही होता है-
ये तरल जल की परातें हैं
लाज की उजली कनातें हैं,
है पिता का घर हृदय जैसा
ये हृदय की स्वच्छ बातें हैं।..
बेटियां शीतल हवाएं हैं जो
पिता के घर बहुत दिन तक नहीं रहतीं।
बेटियों की चर्चा और अर्चा के इस प्रकरण में मैं वंशीधर अग्रवाल की एक गजल के चंद अशआर भी उद्वृत करना चाहूंगा, जो बेटियों की भावमयी भूमिकाओं की प्रभावी प्रस्तुति हमें देते हैं-
भोर की उजली किरन–सी घर में आएं बेटियां,
सांझ की लाली लजीली बनके जाएं बेटियां।
ये सरल मन की किताबें बांच तो लेना जरा,
प्राण में होंगी ध्वनित पावन ऋचाएं बेटियां।
वार दें सर्वस्व अपना जो कुलों की आन पर,
पुत्र कुल दीपक अगर तो हैं शिखाएं बेटियां।
कीर्ति की उज्ज्वल पताका कम इन्हें मत आंकिये
दो कुलों को तारती ये तारिकाएं बेटियां।
हमारी परम्परा पुत्री को दुहिता कहकर पुकारती आई हैं। 'मानस' के जनक जी का सीता के प्रति उद्गार है-पुत्रि, पवित्र किये कुल दोऊ। वस्तुत: पुत्री वह देहरी-दीपिका है जिसका प्रकाश दोनों ओर पड़ता है। परिवार में उसकी उपस्थिति जीवन में धन्यता की दस्तक है। व्यक्ति या तो अपनी कृति के माध्यम से जीवित रहता है या सन्तति के माध्यम से। पुत्री हमारी कृति भी है, प्रकृति भी, संन्तति भी, संस्कृति भी।
डा.ध्रुवेन्द्र का एक छंद
डा.ध्रुवेन्द्र भदौरिया राष्ट्रीय चैतन्य के एक मुखर अभिधान हैं। शहीद भगत सिंह के अंतिम दिवसों पर लिखे गये उनके छंद पर्याप्त प्रसिद्ध हुए। इधर उन्होंने एक अद्भुत छंद कारगिल के एक अनाम शहीद पर लिखा। बड़ी ही कलात्मकता के साथ उन्होंने उस ऐतिहासिक घटना को साहित्यिक सौष्ठव में समाहित कर लिया, जिसमें शत्रुओं के पास से उस भारतीय शहीद का शव प्राप्त किया जाता है, सेना के भेद उजागर न करने की सजा के रूप में जिसका शीश विच्छिन्न कर दिया गया था। डा. ध्रुवेन्द्र भदौरिया के इस छंद में उस शहीद की बहन अपनी शोक-विह्वल भाभी को भाई के शव पर शीश न होने की कहानी सुनाती है। आंसुओं से भीगी हुई बहन की यह वक्रोक्ति समकालीन कविता की एक निधि है-
दादी का दुलार भूला बापू का प्यार भूला,
मोतियों की माला मेरी आज तक न लाया है,
होलिका के रंग ज्योति–पर्व की उमंग भूला
राखियों का संग बार–बार बिसराया है।
सुन भाभी! भैया भुलक्कड़ है जन्म से ही,
अपने स्वभाव को ही आज दोहराया है,
जाते वक्त मैया का आशीष लेना भूल गया,
आते समय रणथल में शीश भूल आया है।।
भाई का यह भुलक्कड़ स्वभाव छंद की पंक्ति-पंक्ति में विश्लेषित होकर अंतत: उस अलमस्त नौजवान की बांकी छवि चेतना में उभारता है जो रणस्थल में अपना शीश भूलकर घर लौट सकता है लेकिन शरीर में स्पंदन रहते राष्ट्र की आन-बान-शान को नहीं भूल सकता, भारतीय सेना के स्वाभिमान को नहीं भूल सकता, वंदेमातरम् के गौरव गान को नहीं भूल सकता- इस तरह की रचना के लिए ध्रुवेन्द्र का वंदन, अभिनंदन।
वसीम साहब के अशआर
कविवर वसीम बरेलवी हिन्दी काव्य-मंच पर भी पर्याप्त लोकप्रिय हैं। पिछले दिनों एकाधिक आयोजनों में उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ। उनके द्वारा इधर कहे गये कुछ अशआर सम-सामयिक संदर्भों पर सटीक टिप्पणी करते हुए दिशाबोध भी देते हैं। अण्णा और स्वामी रामदेव के द्वारा उठाये गये परिवर्तन की आकांक्षा के ज्वार पर उनकी अभिव्यक्ति है-
ये है तो सबके लिये हो ये जिद हमारी है,
इस एक बात पे दुनिया से जंग जारी है।
उड़ान वालो, उड़ानों पे वक्त भारी है,
परों की अबके नहीं हौसलों की बारी है।
जो लोग नकारात्मकताओं को प्रश्रय देते हैं और सकारात्मकताओं का तिरस्कार करते हैं, जिनके चित्त में आतंकवादियों के मानवाधिकारों के लिए तो बड़ी छटपटाहट है लेकिन निर्दोष नागरिकों की उनके हाथों हुई तबाही की कोई चिंता नहीं है, उनके लिये वसीम साहब का कहना है-
चला है सिलसिला कैसा
ये रातों को मनाने का,
तुम्हें हक दे दिया किसने
दियों का दिल दुखाने का।
कहां की दोस्ती किन
दोस्तों की बात करते हो,
मियां दुश्मन नहीं मिलता
कोई अब तो ठिकाने का।
और, हर अन्याय-अत्याचार के प्रतिरोध के लिए नौजवानों को उत्प्रेरित करतीं तथा उन्हें जिंदगी का हर कदम विवेकपूर्ण ढंग से उठाने की सलाह देतीं उनकी ये पंक्तियां तो पुन: पुन: उद्धरणीय हैं ही-
उसूलों पर अगर आंच आये
टकराना जरूरी है,
जो जिंदा हो तो फिर जिंदा
नजर आना जरूरी है
नई उम्रों की नाफरमानियों को
कौन समझाये,
कहां से बचके चलना है
कहां जाना जरूरी है।
अभिव्यक्ति मुद्राएं
असमय बूढ़ी हो जाने का कारण जब भी पूछा है,
कहते–कहते रुक जाती है कुछ बेचारी रामवती।
जिस दिन वह बीमार पुरुष से ब्याही गई उसी दिन से,
कर बैठी थी विधवा होने की तैयारी रामवती।
-मयंक श्रीवास्तव
टिप्पणियाँ