बात बेलाग
|
समदर्शी
वैसे तो कांग्रेस खुद को देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी बताती है, पर हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली में आयोजित एक सम्मेलन को नाम दिया गया 'बुनियाद'। दरअसल यह सम्मेलन युवा कांग्रेस के उन नव निर्वाचित पदाधिकारियों का था, जिन्हें बकौल राहुल गांधी युवा कांग्रेस कार्यकर्त्ताओं ने चुना है, न कि ऊपर से मनोनीत किया गया है। अब कैसे-कैसे आपराधिक छवि वालों ने कैसे-कैसे वंशवादियों को चुना है, सब जानते हैं। फिर भी दो दिन के इस जमावड़े को नाम दिया गया 'बुनियाद' और दावा किया गया कि यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक संगठन है। ऐसे में राजनीतिक गलियारों में सवाल पूछा जाता रहा कि अगर कांग्रेस की 'बुनियाद' अब रखी जा रही है तो क्या सवा सौ साल से कांग्रेस बिना बुनियाद के ही थी? कांग्रेस नेतृत्व की ओर से तो इस सवाल का जवाब नहीं आया, पर जिस तरह से दो दिन तक सोनिया गांधी और राहुल गांधी का गुणगान किया गया, उससे यह जवाब साफ-साफ मिल गया कि चाटुकारिता कांग्रेस की संस्कृति ही नहीं, बुनियाद भी है और यह सम्मेलन यही याद दिलाने के लिए था। लगातार पद की असुरक्षा से ग्रस्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी मंच से आह्वान करना पड़ा कि सोनिया और राहुल के हाथ मजबूत करें। प्रधानमंत्री के इस आह्वान के बाद उनकी पद से विदाई और राहुल की ताजपोशी की अटकलें और तेज हो गयी हैं।
चोरी और सीनाजोरी
कारगुजारियां तो पहले कार्यकाल की भी अब खुल-खुलकर सामने आ रही हैं, लेकिन दूसरे कार्यकाल में तो मनमोहन सिंह सरकार के खाते में घोटालों, विवादों और नाकामियों के सिवाय कुछ और है ही नहीं। महंगाई लगातार बेलगाम बनी हुई है तो विदेशों में जमा कालेधन के मुद्दे से भी सरकार लगातार मुंह चुराती नजर आ रही है। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए वह अपनी पीठ खुद चाहे जितनी ठोंक ले, पर राष्ट्रमंडल खेलों से लेकर 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन तक तमाम घोटाले यही बताते हैं कि उसकी ऊर्जा भ्रष्टाचारियों के संरक्षण में ही जाया हो रही है। यह भी कि भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध जो कुछ कार्रवाई होती हुई नजर आ रही है, वह न्यायपालिका के कड़े रुख की बदौलत है। इसके बावजूद सरकार है कि मनमानी करने से बाज नहीं आ रही। महंगाई और कालेधन पर विपक्ष के एकजुट आक्रामक तेवरों से बचने के लिए सरकार ने संसद की कार्यवाही तक को बंधक बना लिया है। लोकपाल समेत अनेक महत्वपूर्ण विधेयकों के चलते संसद का यह शीतकालीन सत्र बेहद खास माना जा रहा है, लेकिन सरकार नये-नये हथकंडे अपनाकर कार्यवाही चलने ही नहीं दे रही। पहले दिन तो कार्यवाही महंगाई और कालेधन पर विपक्ष के काम रोको प्रस्ताव पर आग्रह के कारण नहीं चल पायी, लेकिन उसके बाद खुद कांग्रेस के सदस्य ही तेलंगाना के मुद्दे पर हंगामा कर सदन स्थगित करवाते रहे, जबकि तेलंगाना की राह में कांग्रेस और उसकी सरकार ही रोड़ा है। फिर खुदरा निवेश में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देकर खुद सरकार ने ही ऐसा माहौल बना दिया है कि उत्तेजित विपक्ष सदन न चलने दे, ताकि वह सवालों का जवाब देने से बच सके और शीतकालीन सत्र में ही लोकपाल विधेयक पारित कराने की वचनबद्धता से मुकरने का बहाना भी मिल जाए।
धोखा ही धोखा
21 दिसंबर तक चलने वाले संसद के इस शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक पारित हो पायेगा या नहीं, इस पर राजनीतिक गलियारों में अटकलबाजियां जारी हैं, पर संसद की स्थायी समिति ने लोकपाल विधेयक का जो मसौदा सदस्यों को बांटा, वह सरकार की मंशा को बेनकाब कर देता है। इस मसौदे में उनमें से ज्यादातर मांगों को जगह नहीं दी गयी है, जिन्हें लेकर अण्णा हजारे ने 12 दिन तक दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन किया था। न प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखा गया है और न ही न्यायपालिका व निचली नौकरशाही को। हां, एनजीओ और मीडिया को अवश्य लोकपाल के दायरे में लाया जा रहा है, जिसकी मांग किसी ने भी नहीं की थी। मकसद साफ है कि सरकार भ्रष्टाचार के बजाय उसे उजागर करने वालों पर ही शिकंजा कसना चाहती है। सो, मसौदे को धोखा करार देते हुए अण्णा ने 11 दिसंबर को जंतर मंतर पर एक दिन का अनशन और फिर 27 दिसंबर से रामलीला मैदान में आमरण अनशन की घोषणा कर दी है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध अण्णा हजारे की जंग की अंतिम परिणति क्या होगी, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इस बार उनका वास्ता साम, दाम, दंड, भेद में माहिर ऐसी सरकार से पड़ा है जो लोकतंत्र के नाम पर ही लोकतंत्र का गला घोंटने तथा आम आदमी के नाम पर आम आदमी की कमर तोड़ने में सिद्धहस्त है। आम आदमी से ले कर बाबा रामदेव और अण्णा हजारे तक हर किसी को इस सरकार ने धोखा ही दिया है।
टिप्पणियाँ