बात बेलाग
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संसद के शीतकालीन सत्र में राजनीतिक तापमान गरम रहेगा, इसका अंदाजा तो सभी को शुरू से ही था, लेकिन मुख्य विपक्षी दल भाजपा के एक दांव ने सत्तापक्ष को बुरी तरह उलझा दिया। यह दांव है केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के बहिष्कार का। स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े घोटाले यानी 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन में चिदंबरम की भूमिका पर भाजपा शुरू से ही सवाल उठाती रही है। 10 जनपथ के विश्वस्तों में शुमार चिदंबरम तब देश के वित्त मंत्री थे, जब वर्ष 2008 में तत्कालीन दूर संचार मंत्री ए. राजा ने इस घोटाले को अंजाम दिया। भाजपा के सवाल निराधार नहीं थे, यह बात केन्द्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजे गए नोट के सार्वजनिक होने से भी साबित हो गयी। नोट साफ कहता है कि अगर केन्द्रीय वित्त मंत्री के रूप में अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए चिदंबरम 2 जी स्पेक्ट्रम का आवंटन वर्ष 2001 के मूल्य पर 'पहले आओ- पहले पाओ' के बजाय नीलामी के जरिए ही करने पर जोर देते तो राजा देश के खजाने को पौने दो लाख करोड़ रुपए से भी अधिक का चूना नहीं लगा पाते। शुरू में चिदम्बरम राजा की इस बंदरबांट का विरोध कर भी रहे थे, पर फिर अचानक सहमत हो गए। इस बदलाव के पीछे क्या था, यह जांच का विषय है, पर मनमोहन सिंह सरकार जांच कराना ही नहीं चाहती। वैसे भी केन्द्रीय गृहमंत्री सरीखे महत्वपूर्ण पद पर विराजमान व्यक्ति के विरुद्ध, उसी के इशारों पर काम करने वाली सीबीआई कैसे जांच करेगी? इसलिए भाजपा ने दांव चला कि वह संसद में चिदंबरम का बहिष्कार करेगी। न तो उनसे कोई सवाल पूछेगी और न ही जवाब सुनेगी। मुख्य विपक्ष के इस दांव से सत्तापक्ष सन्न रह गया। कुछ और नहीं सूझा तो इसे अलोकतांत्रिक करार दे दिया। पर जब मीडिया ने ही याद दिलाया कि जब कांग्रेस विपक्ष में थी तो उसने तो महज अपने ही आरोपों के बल पर तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस का बहिष्कार किया था, तो बगलें झांकने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है सत्तापक्ष के पास।
'युवराज' के संवाद
कांग्रेस के 'युवराज' के भाषण कौन लिखता है, अभी इस बारे में विश्वास के साथ तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह साफ है कि वे राजनीतिक कम और फिल्मी डायलॉगबाजी ज्यादा होती है। इसी डायलॉगबाजी में अपने नेहरू वंश की महिमा का बखान करते हुए 1971 में बंगलादेश के निर्माण का श्रेय लेकर देश और सरकार के लिए बेहद असहज स्थिति पैदा कर चुकने के बाद भी उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा है। फूलपुर में उन्होंने उत्तर प्रदेश के निवासियों पर 'महाराष्ट्र में भीख' मांगने और 'पंजाब में मजदूरी' करने का आपत्तिजनक कटाक्ष किया तो उस पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई, पर 'युवराज' हैं कि अपनी टिप्पणी पर कायम हैं। अब वह उत्तर प्रदेश को दस साल में देश का 'नंबर वन राज्य' बनाने का दम भर रहे हैं यानी यह सपना दिखाकर दस साल के लिए सत्ता मांग रहे हैं। देश के इस सबसे बड़े राज्य में आज कांग्रेस जिस तरह हाशिये पर पड़ी हुई है, उसमें सत्ता की बातें शेखचिल्ली का सपना ही लगती हैं, पर आम आदमी का सवाल सीधा-सपाट है। वह पूछ रहा है कि दस साल क्यों, कांग्रेस तो लगातार चालीस चाल तक उत्तर प्रदेश और देश में निष्कंटक सत्ता में रही, फिर तब उसने ऐसा कोई चमत्कार क्यों नहीं कर दिखाया? यह भी कि अगर कांग्रेस सरकारें जन-आकांक्षाओं की कसौटी पर खरी उतरी होतीं तो फिर मुलायम सिंह यादव और मायावती को क्यों झेलना पड़ता? अब आम आदमी को कौन समझाये कि राजाओं और 'युवराजों' को उसके सवालों का जवाब देने की आदत ही नहीं होती, वे तो सिर्फ प्रवचन देकर या फिर फिल्मी डायलॉग बोल तालियां बटोरने के आदी होते हैं, जो बाद में वोटों में बदल जाए तो सोने पे सुहागा।
हार के बाद भी
पिछले महीने ही हरियाणा के हिसार संसदीय उप चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस का जो हश्र हुआ, वह सबने देखा। मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा हिसार में ही डेरा डाल कर कांग्रेसी उम्मीदवार जयप्रकाश की जीत के दावे कर रहे थे, पर मतदाताओं ने उनकी जमानत तक जब्त करा दी। खुद पर विरोधियों को शिकंजा कसता देख हुड्डा ने बड़ी चतुराई से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष फूलचंद मुलाना की गर्दन आगे कर दी, जो सोनिया गांधी द्वारा नया अध्यक्ष नियुक्त न किए जाने के कारण महज तकनीकी रूप से अपने पद पर बने हुए हैं। यह वही मुलाना हैं तो प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए वर्ष 2009 में खुद विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार चुके हैं। अब आदमपुर और रतिया में विधानसभा उपचुनाव भी आ गए हैं। हुड्डा एक बार फिर हवा में हैं। दोनों जगह जीत का दम भर रहे हैं, पर उन्होंने चतुराई से नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति भी रुकवा दी है, ताकि इन उपचुनावोें में पराजय भी मुलाना के ही खाते में चली जाए और विरोधी उनकी बलि न मांगने लगें।
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