राज्य/विशेष
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जम्मू–कश्मीर/विशेष प्रतिनिधि
पहले सुरक्षा खर्च घटाओ
फिर सुरक्षा बल हटाओ
जम्मू–कश्मीर की राजनीति इन दिनों अच्छी-खासी गर्माने लगी है और गठबंधन सरकार में शामिल दोनों दलों-नेशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कांग्रेस के मतभेद उभरकर सामने आने लगे हैं। नेशनल कान्फ्रेंस के नेतृत्व, विशेषकर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने राज्य के कई भागों से सुरक्षा बलों के विशेष अधिकार समाप्त करने के लिए एक अभियान छोड़ रखा है। सेना प्रमुखों के विरोध के बावजूद वे यह विषय नई दिल्ली तक ले गए और प्रधानमंत्री सहित प्रमुख मंत्रियों को यह समझाने की कोशिश करते रहे कि सैनिकों के विशेष अधिकारों को समाप्त करने का उद्देश्य क्या है। इसके लिए तर्क यह भी दिया कि राज्य की परिस्थितियों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है, इसलिए कुछ जिलों व क्षेत्रों में इस कानून को जारी रखना अर्थहीन है, वहां सैनिकों की तैनाती की आवश्यकता ही नहीं है।
परन्तु भाजपा सहित प्रदेश के सभी विपक्षी दलों और सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञों का मानना है कि नेशनल कान्फ्रेंस के नेता उन तत्वों से बाजी मारने का प्रयास कर रहे हैं जो सेना की उपस्थिति को अलगाववाद के विस्तार में बाधक मानते हैं। अलगाववादियों की हमेशा से यह मंशा रही है कि भारतीय सेना को बदनाम किया जाए और यह सिद्ध करने का प्रयास किया जाए कि भारतीय सेना जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों को रौंद रही है और शांति स्थापना में रोड़ा है।
सुरक्षा बलों के विशेषाधिकार कानून को समाप्त करने की मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की मुहिम को अनुचित मानने वालों का कहना है कि अगर स्थिति सुधर गई है और इन क्षेत्रों में सेना की तैनाती ही नहीं है तो फिर विशेषाधिकार कानून का पुस्तकों में बने रहने से क्या अंतर पड़ता है। देश में बहुत से कानून ऐसे हैं जो पुस्तकों में मौजूद हैं किन्तु साधारणतया उनका प्रयोग नहीं किया जाता। ऐसे में सुरक्षा बलों के विशेषाधिकार से सम्बंधित यह कानून भी बना रहता है तो इससे क्या फर्क पड़ेगा? लेकिन आश्चर्य है और खेदजनक भी कि प्रदेश में सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रमुख घटक दल सोनिया कांग्रेस के प्रादेशिक नेता ही नहीं, केन्द्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री भी इस महत्वपूर्ण और गंभीर विषय पर गंभीर नहीं हैं और विरोधाभासी वक्तव्य दे रहे हैं। रक्षामंत्री ए.के. एंटनी कानून को बनाए रखने के पक्षधर हैं जबकि गृहमंत्री पी. चिदम्बरम और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद उमर अब्दुल्ला के समर्थन में वक्तव्य दे रहे हैं। जबकि भाजपा सहित सभी राष्ट्रवादी संगठनों के प्रमुखों का कहना है कि अगर घाटी की स्थिति में सुधार आया है तो मुख्यमंत्री स्वयं अपनी सुरक्षा में कमी क्यों नहीं करते हैं? केन्द्र से प्राप्त होने वाले सुरक्षा सम्बंधी खर्चों की राशि घटाने को तैयार क्यों नहीं हैं?
उल्लेखनीय है कि केन्द्र से 1990-91 में राज्य को जो राशि सुरक्षा व्यय हेतु 10 करोड़ रु. दी जाती थी, अब बढ़ाकर 800 करोड़ रुपए वार्षिक कर दी गई है। दूसरी बात, अगर परिस्थितियों में सुधार हुआ है तो विस्थापित परिवारों का पुनर्वास क्यों नहीं हो रहा है? कश्मीरी हिन्दू विस्थापित परिवारों की संख्या चार वर्ष पूर्व 52000 थी, वह अब बढ़कर 58,000 कैसे हो गई है? सीमा पार उग्रवादियों के प्रशिक्षण शिविर अब भी हैं, घुसपैठ के प्रयत्न बड़े पैमाने पर हो रहे हैं, सीमा पार से छेड़े गए छद्म युद्ध में तो कोई परिवर्तन नहीं आया है, इन परिस्थितियों में राज्य में तैनात सुरक्षा बलों और उनके विशेषाधिकारों में कमी कौन-सी बुद्धिमत्ता है?
मुसलमानों को रिझाने की राह में खड़ा हुआ देवबंद
हरियाणा/डा. गणेश दत्त वत्स
लखनऊ: कांग्रेस की चाल उसी को भारी पड़ रही है। चुनावी साल में मुसलमानों को रिझाकर अपने सियासी हालत को सुधारने की उसकी कोशिशों पर देवबंद ने सवाल खड़ा कर दिया है। देवबंद ने मदरसों को सरकारी मदद और मुसलमानों के आरक्षण को एक तरह से गैरइस्लामी करार दे दिया है। दारूल उलूम, देवबंद के मोहतिमिम मुफ्ती मौलाना अबुल कासिम नोमानी का तर्क है कि सरकारी मदद से मदरसों की स्वायत्तता प्रभावित होगी। उनका कहना है स्वतंत्र रहकर ही मदरसे मजहबी तालीम के साथ बुनियादी शिक्षा दे सकते हैं। दीनी तालिम में हुकूमत की दखलदांजी ठीक नहीं है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह भी कहा है कि मुसलमानों को आरक्षण का लाभ मजहब के आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक स्थिति व पिछड़ेपन के आधार पर मिलना चाहिए।
मौलाना नोमानी की बातों पर गौर करें तो कई सारी बातें साफ हो जाती हैं। मौलाना की आपत्ति भले ही सरकारी मदद से पैदा होने वाले खतरों को लेकर हो, लेकिन इससे कांग्रेस की वोट की खातिर चली जा रही खतरनाक चालों की झलक मिल जाती है। मोहतिमिम की बातों से साफ हो जाता है कि मुसलमानों को लेकर कांग्रेस, सपा या बसपा की चिन्ता के पीछे इन दलों के तमाम स्वार्थ छिपे हैं। यह मुसलमानों को लुभाकर उनके वोट हासिल करना चाहते हैं। इसीलिए देवबंद को लगता है कि चुनावी लाभ के लिए कांग्रेस की इन चालों पर अगर वह चुप रहा तो उसकी ताकत प्रभावित होगी। इसलिए वह इन कोशिशों के खिलाफ तत्काल मैदान में आ गया है। जहां तक देवबंद द्वारा मुस्लिम आरक्षण के विरोध का मामला है तो उसे लगता है कि मुसलमानों को अगर सामाजिक आधार पर आरक्षण देने की व्यवस्था हुई तो वह जातियों में बंटेंगे, इससे अन्तत: उसकी ताकत भी प्रभावित होगी। इसीलिए उसने इसका विरोध किया है।
देवबंद के विरोध पर कांग्रेस अपनी कोशिशों से बाज आएगी या नहीं, यह तो आने वाले दिनों में पता चल ही जाएगा, लेकिन देवबंद ने कांग्रेस की कोशिशों और सपा-बसपा की इस बारे में पैरोकारी का विरोध करके यह स्पष्ट कर दिया है कि मुसलमानों से हमदर्दी केवल उनके वोट पाने के लिए जताई जा रही है। n
सरकार कटघरे में, अपराध रोकने में विफल महिलाओं की सुरक्षा पर भी प्रश्न चिन्ह
उत्तर प्रदेश/धीरज त्रिपाठी
हरियाणा में बढ़ते अपराध एवं अत्याचार के मामलों ने प्रदेश की हुड्डा सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। जबसे मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने प्रदेश की बागडोर संभाली है तब से ही उनकी कार्यप्रणाली एवं प्रशासन पर पकड़ को लेकर कई प्रकार के आरोप लगते रहे हैं। क्षेत्रवाद एवं भेदभाव पूर्ण राजनीति करने का आरोप तो उनके कांग्रेस में विरोधी धड़े के लोग भी लगाते रहे हैं। लेकिन आम जनता को इन राजनीतिक हथकंडों से कुछ लेना-देना नहीं है। उन्हें तो भय एवं भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की ही अपेक्षा होती है, जिसे देने में हुड्डा सरकार पूरी तरह नाकाम रही है। आंकड़े बताते हैं कि जबसे हुड्डा ने सत्ता संभाली है तबसे लगातार अपराधों में वृद्धि हो रही है। 2010 में जारी रपट के अनुसार हरियाणा में विभिन्न मामलों में लगभग 60 अपराध के मामले प्रतिदिन दर्ज होते हैं, जोकि पूरे वर्ष में 22054 की संख्या तक पहंुच गए हैं। यही नहीं अपराध के कई मामलों में तो हरियाणा ने पंजाब एवं दिल्ली को भी पीछे छोड़ दिया है। प्रदेश में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध एवं अत्याचार के मामलों ने भी कांग्रेस की उस प्रक्रिया प्रति पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है जोकि महिलाओं के सशक्तिकरण एवं उनकी हर क्षेत्र में भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए की जा रही है। राष्ट्रीय आंकड़ों के अनुसार अपराध की गतिविधियों की दृष्टि से हरियाणा देश का 12वां आपराधिक प्रदेश बन गया है।
मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपने पहले कार्यकाल के अनुरूप दूसरे कार्यकाल में भी पूरी तरह से विफल सिद्ध हो रहे हैं। अपराध की दृष्टि से 2004 में हत्या के 733 मामले बढकर 2009 में 950 व 2010 में 1005 तक पहंुच गए जबकि 2004 में बलात्कार के 386 मामले 2009 में 602 व 2010 में बढ़कर 717 तक पहंुच गए। 2005 में अपहरण के 493 मामले 2009 में 895 व 2010 में 950, डकैती- 2004 में 52 और 2009 में 152 तक पहंुची। महिलाओं के साथ दहेज से संबधित अत्याचार की घटनाएं 2005 में 2285 एवं 2009 में 2893 की संख्या से बढ़कर 2010 में 3002 तक पहुंच गईं। यही नहीं, चोरी की घटनाएं भी 2005 में 8649 के मुकाबले 2009 में 12834 एवं 2010 में 16234 का आंकड़ा पार कर गईं। इन आंकड़ों पर नजर डालें तो प्रदेश में प्रतिदिन तीन हत्या, 44 चोरी की घटनाएं, 8 दहेज से संबधित मामले एवं 2 बलात्कार होते हैं। प्रदेश में जनता जहां भ्रष्टाचार से मुक्त प्रशासन को देखना चाहती है वहीं इन अपराध की बढ़ती घटनाओं से जनता में भय का माहौल है और रोष है कि कांग्रेस जो दावे करती है उससे उलट ही होता है।
प्रदेश की जनता ने तो मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की कमजोर प्रशासनिक क्षमता को उनके पहले कार्यकाल में ही भांप कर उन्हें नकार दिया था और कांग्रेस से किनारा करने के लिए मतदान किया था। लेकिन राजनीतिक समीकरण एवं सत्ता लोलुपता के चलते उन्हें जो बाहर से समर्थन मिला उसके बलबूते वे जनता के संदेश को नकार कर फिर से काबिज हो गए। एक बार फिर प्रदेश में हुए हिसार लोकसभा उपचुनाव में जनता ने कांग्रेस को पछाड़कर अपना संदेश साफ ढंग से दे दिया है। स्पष्ट है कि कांग्रेस ने अपनी कार्यप्रणाली को नहीं बदला तो आगामी चुनाव में भी उसे इसी प्रकार जनता के कोप का भाजन बनना पड़ेगा और सत्ता से हटना पड़ेगा।
पत्नी ईसाई, पुत्रियां ईसाइयों को ब्याहीं,
फिर भी बने रहे
'दलित' कांग्रेसी
उड़ीसा/पंचानन अग्रवाल
कंधमाल में हुए साम्प्रदायिक संघर्ष के मामले में गत 15 नवम्बर को राज्यसभा में कांग्रेस के पूर्व सदस्य आर.के. नाइक भी प्रस्तुत हुए। कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों में नाइक की भी भूमिका बताई जा रही है। इस संदर्भ में उनके विरुद्ध दो शपथपत्र जांच आयोग में प्रस्तुत किए गए हैं जिनमें आरोप लगाया गया है कि विभिन्न समुदायों के बीच घृणा और नफरत फैलाने में नाइक भी सक्रिय रहे। इस सम्बंध में जांच आयोग के सम्मुख प्रस्तुत होकर उन्होंने कहा कि राज्यसभा सदस्य के नाते सन् 2008 से 2000 तक मैं अधिकांश समय दिल्ली में ही रहा। (यानी कंधमाल जलता रहा और नाइक दिल्ली में ही मौज मनाते रहे) नाइक ने कहा कि वे ईसाई नहीं हैं दलित हिन्दू हैं और उन्होंने कभी मतान्तरण नहीं किया। पर इसके साथ ही यह भी स्वीकारा कि 1960 में उनका विवाह एक चर्च में ईसाई रीति-रिवाज के अनुसार एक ईसाई युवती से हुआ था। इससे उत्पन्न दोनों पुत्रियों का विवाह भी ईसाई युवकों के साथ ही हुआ है और एकमात्र पुत्र ने एक रूसी युवती से विवाह किया है। पर वे स्वयं हिन्दू हैं।
असीत बसु का निधन
उड़ीसा बसु की गत 11 नवम्बर को एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। उनके असामायिक निधन से उड़ीसा के शिक्षक समाज व रष्ट्रवादी संगठनों में शोक व्याप्त हो गया। रा.स्व.संघ एवं भाजपा के वरिष्ठ नेताओं सहित अनेक समाजसेवी संगठनों के पदाधिकारी, उनके अंतिम दर्शन हेतु पहुंचे और भावपूर्ण श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। सभी ने असीत बसु को एक कुशल संगठक व समर्पित कार्यकर्ता के रूप में स्मरण किया तथा आपातकाल के दौरान उनकी क्रांतिकारी भूमिका की प्रशंसा की।
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